डॉ. क्षिप्रा माथुर
महाराष्ट्र की करीब चार सौ छोटी नदियों, का जीवन लौट आया है। यह धरती का ऋण है जिसे ‘नाम’ संस्था की पूरी टीम ने चुकाया है। कहीं सफाई हुई, कहीं तल में जमा मिट्टी और गन्दगी को हटाने का काम हुआ। जनभागीदारी की इस तस्वीर से पानी को तरस रहे और राज्यों को अपने यहां के रंग भरकर नए कैनवस तैयार करना आसान हो सकता है
हमारे किसानों और आदिवासियों ने धरती को हमेशा धानी और हरियाली चुनरी से संवारा है। लेकिन कारखानों और इमारतों की तीमारदारी में लगी दुनिया का नदियों की मिट्टी, समंदर की रेत, पहाड़ के पत्थर और पेड़ों की लकड़ियों से लगाव छूटने से पूरी सभ्यता का एक मुहाना टूटने लगा है। जमीन, पत्थर, मिट्टी सब जितनी तेजी से खिसक रहे हैं, उतनी तेजी से उन्हें पनपने देने का वक्त हमारे पास बचा भी नहीं है। जमीन से खींचकर पानी निकालने की योजनाओं ने इतना पानी निकाल लिया कि अब कई इलाकों की प्यास बुझाने को पानी भी उधार लेना और खरीदना पड़ रहा है। एक राज्य को दूसरे से, एक शहर को अगले से और एक गांव को बगल से, नहरों से। दूसरी तरफ कई इलाके असल किल्लत नहीं होते हुए भी इसलिए भुगत रहे हैं कि उन्होंने पानी को बांधने के पारम्परिक तरीकों की कद्र नहीं की और आज ही के दौर में मुहैया समाधान भी उन तक पहुंचने में नाकाम रहे।
समुदाय की साझेदारी
फसलों की प्यास बुझाने में जमीन के भीतर का करीब 60 फीसद पानी इस्तेमाल होता है। दुनिया की 16 फीसद आबादी और केवल चार फीसद पानी की हिस्सेदारी वाले देश में ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को पानी लाने, ले जाने के लिए औसतन ढाई किलोमीटर दूर जाना होता है। सरकारी आंकड़े ही देखें तो देश के करीब आधे जिलों के गहरे तले भी सूख चुके हैं। तरसती उम्मीद के बीच मानसून बरसता भी है लेकिन न उसे सहेजने वाले तालाब-बावड़ियों की अंजुरी अपनी पूरी नाप में होती है, न ही सड़कों की बनावट ऐसी कि बहता पानी जमा होकर कीचड़ करने की बजाय जमीन में पैर जाए। जहां नदी, ताल, बावड़ियां हैं, वहां उनकी देखरेख की योजनाएं अगर बनती भी हैं तो कागजों पर ही बहती रह जाती हैं। गांवों तक सड़कें बिछाकर और पूरे देश को हाईवे से जोड़कर हमने सफर तो आसान कर लिया है मगर कच्ची जमीनों की सांसें रोककर पानी के पैरने का रास्ता भी रोक दिया है। हमने जल-आन्दोलन की कड़ियों के आलेखों में इसके तकनीकी समाधान की भी बात की है।
आज समुदाय, संस्थाएं, सरकार और अकादमिक दुनिया की साझेदारी के गिने-चुने नमूने ही नजर में हैं हमारे पास। इनमें से एक कारगर काम हुआ है महाराष्ट्र के मराठवाड़ा इलाके में नाना पाटेकर और मकरन्द अनासपुरे की अगुआई में काम कर रही संस्था ‘नाम’ के जरिए।
चार सौ गांव भरे-पूरे
परदे के अभिनय के रोमांच से बाहर असल जीवन में लोगों के लिए ठोस काम करना आसान रास्ता नहीं होता। नाना पाटेकर ने जीवन में कड़ा संघर्ष किया और अपनी कशमकश को परदे पर उतारने के साथ ही जीवन के एक पड़ाव पर आकर समाज की सजल संवेदनाओं के साथ जुड़ना भी तय किया। 2015 में किसानों की खुदकुशी के बढ़ते मामलों की कचोट ने उन्हें खेती की दुश्वारियों की तह में जाने का मौका दिया। लोगों के बीच काम करने के अनुभव को साझा करते हुए वे कहते हैं कि गांव में खेती-बाड़ी और कुदरत की देखरेख करने में सब माहिर हैं, उन्हें कोई बाहर से आकर क्या सिखा सकता है। तकलीफ से घिरे परिवारों को करीब से समझा तो जाना कि यदि पानी का प्रबन्ध ठीक हो जाए तो वे लोग खेती के संकट से खुद निबटने में सक्षम हैं। और इस तरह नदी-तालाब-बावड़ियों को संभालने का काम मराठवाड़ा के 40-50 गांवों से शुरू हुआ। समुदाय की समझ, जल के असल जानकारों, और पहले से मौजूद जल-प्रबन्धन के कारगर मॉडल की जानकारी जुटाकर गांव वालों की भागीदारी से तालाबों की खुदाई, मरम्मत, पानी के कुदरती रास्तों की रुकावटें हटाने के तमाम काम किए। आखिरकार तो गांववासियों को ही तय करना होता है कि उनके यहां किस काम की प्राथमिकता है, फिर वही योजना बनाते हैं और नाम के जरिए खुदाई की मशीनों का इन्तजाम हो जाता है। इस तरह बड़े पैमाने पर सबके जुटने से बारिश के मौसम में पानी की भरपूर आवक को साफ और दुरुस्त हुए नदी-नाले सहेज लेते हैं। आज यह काम 350 गांवों में फैला है तो सरकारी महकमे और कॉर्पोरेट जगत, दोनों के जुड़ने से कोविड महामारी के बावजूद कहीं काम नहीं रुका।
अपनी मिट्टी में जमे पांव
पानी का काम लगातार जारी रहने से उन इलाकों में उम्मीद तो बंधी ही, खुदकुशी के बजाय लोग जीवन को चुनने लगे। नाम का कामकाज संभाल रहे गणेश थोराट से जब तब्दीलियों के बारे में जाना तो लगा कि एक-एक परिवार का संभलना, खेती की ओर लौटना, युवाओं की रुचि फिर से खेती की तरफ होना, साल में तीन उपज ले पाना, डेयरी और दूध उत्पादन बढ़ना, ये छोटी तब्दीलियां नहीं हैं। और सबसे अहम बात यह कि अब रोजगार की तलाश में पानी से आबाद गांवों से कोई घर-बार छोड़कर पलायन नहीं करता। घर का छूटना जीवन भर की दुखती रग होता है। 2016 से 2019 के बीच का राज्य का आंकड़ा भी जाहिर कर रहा है कि जिन इलाकों में पानी की कलकल सुनाई देने लगी है, वहां अब जीवन की हलचल है। हालांकि कोविड महामारी के दौरान करोड़ों किसान और श्रमिकों की हिम्मत टूटी तो नाना पाटेकर ने अपने सोशल पेज के जरिये लोगों से प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री कोष में धन जमा कराने और इस मुश्किल दौर में सरकार का साथ देने की अपील भी की। असल काम यही है कि हम अपनी जड़ों से न उखड़ जाएं और लौटने का ही नहीं बल्कि पूरे तालमेल के साथ कुदरत को सहेजने के तमाम रास्तों की मरम्मत भी करते जाएं। जीवन और आजीविका की धुरी तो पानी ही रहेगा, इसलिए ऐसे कामों की बात पुरजोर होनी चाहिए ताकि देश में ऐसे काम एक राज्य में नहीं, बल्कि उन तमाम जगह दिखाई देने लगें जहां खेती पर आश्रित आबादी बसी है।
ओढा जीवंत और समरस
महाराष्ट्र की करीब चार सौ छोटी नदियां, जिन्हें मराठी में ओढा कहते हैं, उनका जीवन लौट आया है। यह धरती का ऋण है जो नाम संस्था की पूरी टीम ने मिलकर चुकाया है। कहीं सफाई हुई, कहीं मुहानों की मरम्मत, कहीं बांध बने तो कहीं तल में जमी मिट्टी और गन्दगी को हटाने का काम हुआ। समुदाय का भरोसा, उनका श्रम और उनकी भागीदारी ने जो तस्वीर इस प्रदेश के कैनवस पर उतारी है, उससे पानी को तरस रहे और राज्य को अपने यहां के रंग भरकर नए कैनवस तैयार करना आसान हो सकता है। परनेर के जामगांव, रत्नागिरी की साखरपा, बीड के पांढरी और टाकरवन, देवडे की उमरद, रत्नागिरी के संगमेश्वर, सतारा का कलेढोण, गारळेवाडी, मालवण के नांदरूख, जामखेड के पिंपळगांव, विंचरणा और फक्राबाद, धुळे के रानमळा, चाळीसगांव कुंर, कुंजर, बोढरे, पारनेर के वडगांव आमली, आंधळी का विट्ठल गंगा प्रोजक्ट, जालना का भराडखेडा, अहमदनगर का जामगांव और पारनेर, कोल्हापुर का सावंतवाडी, बटकनंगले, सोलापुर का माळशीरस, जालना का धनसावंगी, झुरखेडा, जळगांव जैसे सैंकड़ों नदी-नाले हैं जिन्होंने बारिश से आए और जमीन में जमा पानी की संभाल के लिए खुद को पूरी तरह तैयार कर लिया है। आजीविका की आस भी साथ-साथ जगाने वाली इस मुहिम से जुड़ने के लिए महाराष्ट्र ही नहीं, देश के कई इलाकों से लोग आने लगे हैं। पानी के ऐसे काम यदि देश के हर उस इलाके में होने लगें जहां कुदरत की मनमानियोंं का असर खेती-किसानी पर सबसे ज्यादा आता है तो सिर्फ जलवायु के संकट से ही नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता और आर्थिक मजबूती के निशान भी दिखाई देने लगें।
बड़े पैमाने, नए ठिकाने
नाना पाटेकर इस काम का श्रेय उस पूरी टीम को देते हैं जो बिना थके, दिन-रात की परवाह किए बगैर इस काम में जुटी है। आज बीड इलाके की रिद्धी-सिद्धी नदी और सोलापुर के माड़ा तालुक की बींद ओढा 34 किलोमीटर तक फैलकर अपने पूरी तरंग में है। मगर सिर्फ असल हासिल तब है जब बदलाव पर लगातार नजर रखकर हर काम को वैज्ञानिक मानकों पर जांचे-परखे जाने के बाद उन्हें दोहराया भी जा सके। इसके लिए साढ़े तीन सौ गांवों में हुए पानी के काम पर तीन साल तक ‘नाम’ की पैनी नजर रहती है। जिसमें पर्यावरण, सामाजिक, आर्थिक और मनौवैज्ञानिक हर पैमाने का पानी से ताल्लुक को दर्ज किया जाता है। इन तजुर्बों को अपनी भाषा, अपनी लोक समझ और लोक-मन के साथ दुनिया से साझा करने की जितनी दरकार है, उतनी ही इस बात की भी कि शोधार्थी और अकादमिक जगत इन कामों के दस्तावेज तैयार करें और पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाएं। विश्व गुरु की परिकल्पना को साकार होता देखने की चाह वाली नई शिक्षा नीति देशज ज्ञान और हुनर से नई पीढ़ी को जोड़ने के हक में है। लेकिन गुरु बनकर सिखाने और बेहतर साबित करने के गुरूर की बजाय नदियों ने सखा भाव के साथ ही बहना जाना है। नाम की टीम इसी भाव के साथ पूरे भारत को ही अपना दायरा मानकर चल रही है। इसलिए देश के दूसरे हिस्सों से जल-स्रोतों को जीवित करने में रुचि दिखाने वाले और जानकारी चाहने वाले लोगों के साथ बातचीत का सिलसिला जारी है। पानी के बेहतरीन कामों के दोहराव के मानस के साथ देश को जल-संकट से निजात मिले यह हम सबकी साझी जीत होगी। जीवित होती, फिर से सांस लेती नदियां हमारी पाठशालाएं बनें, अपनी कहानियां कहें और संस्कृति के बहाव को आने वाली पीढ़ी तक लेकर चलें तो हम पानी के इर्द-गिर्द फिर नई शक्ल लेती इन्सानी बसावट की बारीकियां भी समझ पाएं। नदियों को लेकर साहित्य लेखन के लिए भी जन-साधारण को तैयार करना होगा जिनके पास अपने गीत हैं, अपनी बोलियां, अपनी कला और अपनी खास गढ़ाई है जो पानी को अपने तरीके से पिरोने और पेश करने की काबिलियत रखती हैं। तलाश छूट जाए, सिर्फ यह बहाव बचा रहे, तो ही संस्कृति की थिरकन महसूस होगी।
Follow Us on Telegram
टिप्पणियाँ