आलोक गोस्वामी
अमेरिकी सेना से जाने के बाद अफगानिस्तान को लेकर गोटियां बिठाने में जुटा बीजिंग कर रहा तालिबान से गुपचुप वार्ता
अफगानिस्तान में अमेरिकी और नाटो सेनाओं के लौटने से बनती जा रहीं परिस्थितियां भूराजनीतिक समीकरणों में विस्मयकारी बदलावों के चलते चिंताएं बढ़ा रही हैं। मध्य एशिया में नए सामरिक—रणनीतिक गठजोड़ों के खाके बनने लगे हैं। ऐसे में भारत के कूटनीतिक और सैन्य विशेषज्ञों के लिए नए सिरे से हालात पर नजर डालना आवश्यक हो गया है।
खबर है कि अफगानिस्तान में 'मैदान' खाली होता देख चीन ने उस तालिबान से गुपचुप वार्ताएं की हैं जो, पता चला है, अफगानिस्तान के एक बड़े हिस्से पर कब्जा करता जा रहा है। चीन का ऐसा करना उसकी साम्राज्यवादी और साजिशी सोच को देखते हुए हैरान नहीं करता। वह बिल्कुल नहीं चाहेगा कि अफगानिस्तान के विकास से सदा नजदीक से जुड़ा रहा भारत, अब आगे वहां ज्यादा दखल दे। इस इलाके में तालिबान के जरिए अपना दबदबा बनाने में जुटा चीन, बताते हैं, भविष्य की योजनाओं में अकूत पैसा झोंकने को तैयार है। चीन यह रणनीति अफ्रीकी और अन्य पिछड़े देशों में बखूबी अपना चुका है और उसके दम पर उन्हें अपना कर्जदार बना अपने हुक्म चलाता है। इसके जरिए वह अपना खेमा बड़ा कर रहा है। इस सूची में पाकिस्तान, हांगकांग, मकाउ, नेपाल के बाद श्रीलंका भी जुड़ता दिखाई दे रहा है। 'तालिबान के सहयोग' के नाम पर चीन काबुल को भी अपने हुक्म के तले लेने की मंशा पाले है तो इसमें आश्चर्य कैसा!
ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाले दैनिक 'द फाइनेंशियल टाइम्स' में इस संबंध में एक रिपोर्ट छपी है। इसके अनुसार, चीन के प्रतिनिधियों ने तालिबान के साथ गुपचुप चर्चाएं की हैं। चीन ने इस बारे में अपने पत्ते नहीं खोले हैं। उसने कोई वक्तव्य नहीं दिया है कि उसकी तालिबान प्रतिनिधियों से कोई बात हुई है। लेकिन आधिकारिक सूत्रों के हवाले से आई जानकारी के अनुसार, इन चर्चाओं की बुनियाद पर ही चीन अपनी अफगान नीति को तय करने जा रहा है।
ब्रिटेन के उक्त दैनिक से बात करते हुए, दक्षिण एशिया के जानकार अधिकारी ने बताया कि चीन 'अफगानिस्तान में पुनर्निर्माण' करके वहां अपना प्रभाव बढ़ाने की कोशिश में है। इसमें पाकिस्तान की भी भूमिका देखी जा रही है। पाकिस्तान चीन का फरमाबरदार है, वह कट्टर मजहबी तुर्की के कंधे पर सवार है। अल कायदा सरगना लादेन की ही तरह, अब अफगान तानिबानियों को उसने अपनी धरती पर पनाह दे रखी है। हाफिज सईद जैसे कट्टर मजहबी उन्मादी तत्व उसके आंगन में खुलेआम अपनी गतिविधियां चलाते हैं। हालांकि 'द फाइनेंशियल टाइम्स' में लिखा है कि ‘चीन पाकिस्तान के अनुरोध पर तालिबान की हर तरह से मदद करेगा’ बशर्ते तालिबान सिंक्यांग में आतंकवादी गतिविधियां चला रहे और उइगर आतंकवादियों की मदद कर रहे गुटों से नाता तोड़े।
चीन की शर्त
विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन की जानकारी में ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ईटीआईएम) के लगभग साढ़े तीन हजार उग्रवादी जुड़े हुए हैं। उनमें से कुछ ने अफगानिस्तान में अपने अड्डे बना रखे हैं। अफगानिस्तान की सरहद सिंक्यांग से सटी है। ईटीआईएम संयुक्त राष्ट्र और अमेरिका की आतंकी गुटों की सूची में है। हालांकि अमेरिका ने गत वर्ष इसका नाम इस सूची से हटा दिया। इस साल के शुरुआत की बात है जब चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने मध्य एशियाई देशों, कजाकिस्तान, उज्बेकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान और तुर्कमीनिस्तान के विदेश मंत्रियों से बात की थी और इस संगठन को खत्म करने में सहायता मांगी थी। जानकारों का मानना है कि अगर इसमें तालिबान मदद करता है, तो चीन उसकी हर तरह से मदद कर सकता है।
चीन की एक और चिंता है, बेल्ट एंड रोड परियोजना की कामयाबी और इसके लिए अफगानिस्तान में अमन होना जरूरी है। अगर अफगानिस्तान में शांति और स्थिरता रहेगी तो चीन से यूरेशिया तक सामान बेखटके पहुंचेगा। सूत्रों के अनुसार, अपनी रणनीति के विरुद्ध जाकर ड्रेगन जरूरत पड़ने पर अपनी फौज अफगानिस्तान भेजने तक को तैयार है।
इस पूरे मुद्दे का एक आयाम और है—पाकिस्तान और तुर्की की नजदीकी। इस नजदीकी की चीन की मंशाओं के पूरे होने में भूमिका। पाकिस्तान और तुर्की की नजदीकी के निशाने पर बेशक, अफगानिस्तान के विकास में भारत की भूमिका भी रही है जिसके प्रयासों की काबुल और अमेरिका ने अनेक बार सराहना की है।
अफगानिस्तान पर तुर्की—पाकिस्तान योजना
द इकोनॉमिक टाइम्स में एक रिपोर्ट आई थी, जिसके अनुसार ऐसी अटकलों को बल मिला है कि अफ़ग़ानिस्तान में तुर्की—पाकिस्तान की जोड़ी काम करेगी। संभवत: चीन के इशारे पर, इन दोनों की मंशा भूमध्यसागर और दक्षिण एशिया में भारत की मुश्किलें बढ़ाना है। तुर्की अधिकृत रूप से तो कहता है कि उसका मकसद लड़ाई में उलझे अफ़ग़ानिस्तान में आर्थिक विकास करना है, लेकिन परोक्ष रूप से तुर्की भी एशिया के इस हिस्से में पाकिस्तान के रास्ते अपनी धमक बढ़ाने में लगा है। बताते हैं, तुर्की बरास्ते ईरान रेलमार्ग तैयार करने के काम में लगा है।
ऐसे होगी तुर्की की काट
तुर्की का ग्रीस से छत्तीस का आंकड़ा है। ग्रीस की पश्चिमी सरहद के एक बड़े इलाके को तुर्की कब्जाने को आतुर है। भारत-ग्रीस गठबंधन को मज़ूबत करने की दोनों देशों की अपील के बाद तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन की मंशा स्पष्ट रूप से सामने आई है। उल्लेखनीय है कि गत दिनों भारत के विदेश मंत्री जयशंकर दो दिन के लिए ग्रीस गए और वहां के नेतृत्व से आतंकवाद के विरुद्ध मिलकर लड़ने की बात की थी। उसके बाद भारत और ग्रीस ने भूमध्यसागर में संयुक्त युद्धाभ्यास भी किया है। तुर्की को यह नजदीकी निश्चित ही रास नहीं आ रही है। जानकारों का मानना है कि उसने पाकिस्तान पर दबाव डालकर उससे चीन को अफगानिस्तान में तालिबान से नजदीकी बढ़ाने की सलाह दी हो ताकि भारत और ग्रीस के गठजोड़ पर एक 'लिवरेज' हासिल हो सके। ऐसे में ग्रीक के रक्षा विश्लेषकों के अनुसार, राष्ट्रपति एर्दोगन को टक्कर देने के लिए जरूरी है कि भारत और ग्रीस रणनीतिक साझेदारी को और बढ़ाएं। उनका यह भी कहना है कि एर्दोगन पाकिस्तान को परमाणु मिसाइल तकनीक उपलब्ध करा रहे हैं, ऐसे में भारत और ग्रीस को संयुक्त रूप से हथियारों के उत्पादन की दिशा में सोचना होगा।
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