देशविरोधी टूलकिट के स्वामी के निधन पर जिन लोगों को बेहद अफसोस हो रहा है, वो ये समझ गए हैं कि भारत में अराजकता, अशांति फैलाकर उसे कमज़ोर करने का कॉमरेड का जो अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र है, उसे इस दौर में फिलहाल तो दफन करना ही पड़ेगा। नया भारत ये भी देख रहा है, और समझ रहा है और कॉमरेड के निधन के बहाने भारत पर प्रहार करने वाले चेहरों को भी पहचान रहा है
स्4 साल के पादरी स्टैन स्वामी के मुंबई में होली फैमिली अस्पताल में निधन पर वहां के डॉक्टर एस डिसूज़ा का कहना था ‘हम निधन की वजहों को जानते हैं, वो काफी समय से यहां थे, इसीलिए उनके नाम डेथ सर्टिफिकेट जारी किया जा सकता है।‘ चर्चा ये चली थी कि निधन की वजह क्या है और क्या पोस्टमॉर्टम की जरूरत है ? हालांकि विचाराधीन कैदियों के लिए प्रोटोकॉल में निधन पर पोस्टमॉर्टम का प्रावधान है। ऐसे में निधन के कारण भी स्पष्ट हो जाएँगे। मगर यह सच है कि पादरी स्वामी काफी समय से बीमार था। छोटी-मोटी बीमारियों के अलावा उसे पार्किंसन का रोग था, जिस कारण वो अपने वकालतनामे पर हस्ताक्षर तक नहीं कर पाए थे। स्टैन स्वामी के अंगूठे के निशान से वकालतनामा दाखिल किया गया। पिछले साल 23 अक्तूबर को उसके वकील शरीफ शेख ने अदालत में इसका जिक्र किया था। फिर जब स्टैन को मुंबई में होली फैमिली अस्पताल में भर्ती कराया गया तो कोरोना प्रोटोकॉल के तहत बाकी टेस्ट के अलावा उसका कोरोना टेस्ट भी हुआ। वह रिपोर्ट पॉजिटिव आई, यानी बुजुर्ग स्टैन स्वामी को कोरोना भी हो गया था। और कोमोर्बिडिटीज़ शब्द का मतलब सब जानते ही हैं।
स्टैन स्वामी की कुल मिलाकर हालत क्या थी, जरा इससे अंदाजा लगाइए कि बीते साल अक्तूबर की शुरुआत में जब उसे एनआईए ने गिरफ्तार किया और कोर्ट ने न्यायिक हिरासत में भेजा तब से तलोजा सेंट्रल जेल में मेडिकल अफसर की सलाह पर उसे अलग सेल में ही रखा गया, दो अटेंडेंट साथ लगाए गए। व्हील चेयर, वॉकर, वॉकिंग स्टिक (छड़ी), कोमोड चेयर, सुनने की मशीन के लिए बैटरी सेल, दांतों का इलाज और बहुत कुछ। यहां तक कि उसे देखने साईकैट्रिस्ट यानी मनोचिकित्सक भी आया करते थे।
मीडिया में इन सबकी चर्चा कम ही हुई होगी, मगर जिन दो चीज़ों की चर्चा सबसे ज्यादा हुई वो थे स्ट्रॉ और सिपर। तमाम मीडिया में उलाहनों भरी हेडलाइन कुछ इस तरह चली जैसे भारतीय न्यायिक और प्रशासनिक व्यवस्था एक बजुर्ग विचाराधीन कैदी को लेकर बेहद क्रूर रवैया अपनाती रही। बहरहाल, बाद में वो स्ट्रॉ और सिपर भी उन्हें मुहैया करा दिया गया था। यानी जेल में बुजुर्ग विचाराधीन बंदी के लिए जो सुविधाएं स्टेट को देनी चाहिए, वो सब दी गई। इलाज की जरूरत हुई तो वो भी मिला, उसकी मर्जी के प्राइवेट अस्पताल तक भेजा गया। मगर शरीर तो शरीर है, बीमारियां अपना काम करती ही हैं और दवाएं भी जिनकी एक सीमा भी होती है। आखिर स्टैन को दिल का दौरा पड़ा, डॉक्टरों की पूरी नजर थी, लिहाजा अस्पताल में कई घंटों तक स्टैन को बचाने की पूरी कोशिश की गई और 5 जुलाई की दोपहर उसके निधन को सार्वजनिक किया गया।
होली फैमिली अस्पताल के डॉक्टर की राय और स्वामी की शारिरिक अवस्था की चर्चा इसलिए क्योंकि सोमवार दोपहर बाद जब से स्टैन स्वामी के निधन की खबरें चलीं, तब से पूरा सोशल मीडिया और यहां तक कि मेनस्ट्रीम मीडिया का एक हिस्सा भी स्वामी के निधन को कुछ इस तरह परोसने की कोशिश करता रहा कि स्वामी की हत्या कर दी गई, उन्हें जानबूझकर मारा गया या मरने दिया गया। स्टेट मर्डर जैसे शब्द इस्तेमाल किए गए। कांग्रेस की बड़ी नेता प्रियंका गांधी ने ट्वीट में लिखा- ‘उन्हें मृत्यु की घड़ी में भी न्याय और मानव अधिकारों से वंचित रखा गया।‘ राहुल गांधी ने लिखा- ‘He deserved justice and humaneness.’ केरल के मुख्यमंत्री ने ट्विटर पर लिखा- 'Such travesty of justice should have no place in our democracy.' तृणमूल की सांसद महुआ मोइत्रा के ट्वीट का हिस्सा था- Ashamed & saddened at how justice is on a ventilator in this country. जिग्नेश मेवानी तो ट्वीटर में यहां तक लिखते हैं- 'Modi & Shah have Fr. Stan Swamy's blood on their hands. The country will never forgive them.' कथित पत्रकार राजदीप सरदेसाई ने ट्वीट किया – 'An 84 year old arrested under UAPA by a mighty Indian state that saw him a ‘terrorist’ because he had spent a lifetime working amongst tribals.' ऐसे ही कई नाम और गिनाए जा सकते हैं, जिनका सुर और सार लगभग यही था कि फादर स्टेन स्वामी का निधन बीमारियों से नहीं हुआ, बल्कि एक गहरे षडयंत्र के तहत हत्या कराई गई। हवा में ये भी तैर रहा है कि स्टैन को बिना किसी आधार के गिरफ्तार किया गया, फिर उन्हें सारी सुविधाओं से वंचित रखा गया, वो बिल्कुल बेगुनाह थे, आदिवासियों के बीच काम करते थे, उनकी जमानत ना होने के षडयंत्र में न्यायपालिका भी शामिल है, आदि आदि।
केंद्र की मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करने का अधिकार राजनीतिक प्रतिद्वंदियों के नाते तो बनता ही है, लेकिन किन विषयों पर ऐसा करना तर्कसंगत है, इस पर गंभीरता से विचार की जरूरत इसलिए नहीं है, क्योंकि शोर मचाकर किसी को चोर साबित करने की परंपरा पुरानी है, और दुर्भाग्य से हमारे समाज में ये चाल अक्सर कामयाब होती है और फिर भीड़ उस चोर की कैसी पिटाई करती है, इसके वीडियो आजकल मेनस्ट्रीम मीडिया पर अक्सर दिखते ही हैं। भारत के कुछ तथाकथित राजनीतिक दल इसी फिल्मी फॉर्मूले पर आज भी काम करते दिखते हैं।
स्टैन स्वामी के निधन के बाद जैसा शोर मचाया जा रहा है, उससे लोकतंत्र की संस्थाओं पर संदेह की अवस्था उत्पन्न हो सकती है, इसीलिए इसका स्पष्टीकरण भी लोकतंत्र के हित में ही आवश्यक है। आखिर सत्ता प्रतिष्ठान पर सवाल उठाने के क्रम में न्यायपालिका और संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा और मर्यादा तक ताक पर रख देना कहां तक उचित है।
महाराष्ट्र का भीमा-कोरेगांव और झारखंड का पादरी
अगर आपको ये समझाया जा रहा है कि स्टैन बिल्कुल बेगुनाह है, तो फिर आप 2018 से लेकर 2021 तक के बीच महाराष्ट्र पुलिस और राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए की जांच को जान नहीं पाए या फिर मान नहीं पाए। दूसरा अगर आपको ये समझाया जा रहा है कि स्टैन की जमानत ना होने में न्याय व्यवस्था भी शामिल है, तो फिर अदालतों में क्या हुआ, जजों ने क्या कहा, ये आप जान नहीं पाए या मान नहीं पाए। तो अब आपको इन दोनों बातों को जानना-समझना बेहद जरूरी है, मानना या ना मानना आपकी तर्क क्षमता पर निर्भर करता है।
31 दिसंबर 2017 को भीमा-कोरेगांव में एल्गार परिषद का एक बड़ा कार्यक्रम हुआ, वहां मंच से ऐसे ऐसे भड़काऊ बयान दिए गए कि वहां के एक पुराने युद्ध स्मारक के पास हिंसा का तांडव शुरू हो गया। जान गई औऱ जो नुकसान हुआ वो अलग,। मगर इस घटना ने समाज के दो समुदायों के बीच द्वेष को भड़काने का काम किया, जिसका असर अरसे तक दिख सकता है। ये मामला ‘ब्लीडिंग इंडिया थ्रू थाउजेंड कट्स’ की पाकिस्तान की पुरानी थ्योरी का एक हिस्सा भी है, क्योंकि भारतीय समाज में दरारें पैदा करने की रणनीति पाकिस्तानी सेना और आईएसआई की ग्रीन बुक का हिस्सा है। भारत में इसके मोहरे बनते हैं नक्सली, आतंकवादी, पर्यावरण और मानवाधिकार के नाम पर चलने वाले चंद विदेशी एनजीओ और कुछ राजनीतिक नकाब ओढ़े संगठन और नेता। ये सब तथ्यों पर आधारित और सिद्ध थ्योरी है। बस आपको समझने और मानने की जरूरत है।
भीमा-कोरेगांव हिंसा की जांच शुरू की महाराष्ट्र पुलिस ने और आठवें महीने यानी अगस्त में पुणे पुलिस ने पादरी स्टैन स्वामी का नाम बतौर अभियुक्त अपनी एफआईआर में शामिल कर लिया। अब इन 8 महीनों में पुणे पुलिस ने कुछ तो जांच की होगी, जिसके बाद वो रांची में बैठे पादरी स्टैन स्वामी तक तार जोड़ पाई। पुणे पुलिस ने रांची में स्टैन के ठिकानों पर रेड मारी तो स्टैन स्वामी ने बॉम्बे हाईकोर्ट से एफआईआर रद्द करने की अर्जी दाखिल की। कुछेक सुनवाईयों में कोर्ट ने गिरफ्तारी पर तो रोक लगाये रखी मगर एफआईआर रद्द करने की बात नहीं मानी। उल्टे मामले के रिकॉर्ड पुलिस से तलब कर लिए। पुलिस की सारी जांच देखने के बाद 14 दिसंबर 2018 को बॉम्बे हाईकोर्ट की बेंच का ऑब्जर्वेशन था- ‘कोर्ट को अधिकारियों के काम में कोई कमी नहीं दिखती।‘ यानी अब तक की जो कार्रवाई या जांच की गई, उसमें स्टैन के खाते में कई ऐसी गैरकानूनी बातें जाती हैं, जो कोर्ट के संज्ञान में आ गई थीं, जिसकी बिनाह पर एफआईआर रद्द करने की स्टैन की अर्जी नामंजूर कर दी गई। इसके बावजूद भीमा कोरेगांव की घटना के एक साल बाद तक भी स्टैन की गिरफ्तारी नहीं हुई थी।
पुलिस की जांच चलती रही, साल भर से ज्यादा समय बीतने के बाद जनवरी 2020 में एनआईए को भीमा-कोरेगांव मामले की जांच सौंपी गई। एनआईए ने भी जांच में नौ महीने लगाए, जिसके बाद पादरी स्टैन स्वामी के खिलाफ इतने सुबूत इकट्ठे हो चुके थे कि उसे गिरफ्तार किया जा सकता था। कुल मिलाकर भीमा-कोरेगांव हिंसा के पौने तीन साल बाद पादरी स्टैन स्वामी को एनआईए ने गिरफ्तार किया और अगले ही दिन स्पेशल एनआईए कोर्ट में सप्लीमेंट्री चार्जशीट दाखिल की, जिसमें स्टैन स्वामी का पूरा कच्चा चिट्ठा लिखा गया था।
कस्टडी पर ‘कौन मचाए शोर ?
6 जुलाई 2021 की सुबह मीडिया के बड़े हिस्से में एक जैसे संदेश वाली हेडलाइन दिखीं। इनमें स्पष्ट लिखा गया – एनआईए ने स्टैन स्वामी की एक भी दिन की कस्टडी नहीं मांगी, गिरफ्तार करने के बाद से सीधे न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया, और जमानत का विरोध करती रही। यानी जनता में जो भाव प्रसारित किया गया वो ये कि एनआईए का इरादा सिर्फ स्टैन को जेल में डालने का था, और कोर्ट भी इस षडयंत्र में शामिल रहा। मीडिया के बहुत कम हिस्से में ये बताया गया कि जांच हाथ में लेने से गिरफ्तारी के लगभग साढ़े आठ महीने के बीच एनआईए स्टैन से कुछेक घंटे की पूछताछ कर चुकी थी, पुणे पुलिस की पुरानी इन्वेस्टिगेशन सामने थी। स्टैन के अलावा गौतम नवलखा, आनंत तेलतुंबडे, वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण परेरा, वर्नन गोन्ज़ॉल्वेज़ जैसे तमाम अर्बन नक्सलियों के शिकंजे में आने के बाद इतने पुख्ता सुबूत हाथ में थे कि एक बुजुर्ग और बीमार अभियुक्त स्टैन को कस्टडी में लेकर किसी और पूछताछ की जरूरत नहीं समझी गई। क्योंकि ऐसी हालत में कस्टडी में ही कुछ हो जाता तो फिर मीडिया का एक वर्ग और सोशल मीडिया का बड़ा हिस्सा किस तरह शोर मचाता, अंदाजा लगाया जा सकता है।
कॉमरेड पादरी का माओवादी सच
अब पादरी की दयालुता और महानता तो आपने भारतीय फिल्मों में कई बार देखी ही होगी। मगर स्टैन का कैरेक्टर उन फिल्मी पादरियों से कुछ अलग था। चेहरे पर मत जाइए, जो असल है, उसे देखिए और समझिए। 23 मार्च 2021 को एनआईए की विशेष अदालत के जज डी ई कोथलिकर ने स्टैन स्वामी की जमानत अर्जी खारिज की। जस्टिस डी ई कोथलिकर ने अपने आदेश में कहा- ‘प्रथम दृष्टया स्पष्ट है कि भारत में अशांति फैलाने और सरकार को उखाड़ फेंकने के इरादे से स्टैन स्वामी ने प्रतिबंधित माओवादी संगठन के सदस्यों के साथ मिलकर गंभीर षडयंत्र रचा।‘ दूसरी बात- बार बार स्टैन स्वामी की उम्र और सेहत का हवाला दिया जाता रहा, उनके लिए समाज में हमदर्दी जुटाने का भरपूर प्रयास हुआ। मगर जस्टिस कोथलिकर ने उम्र की इस दलील को भी नहीं माना। उन्होंने कहा- ‘समुदाय के सामूहिक हित आवेदक (स्टैन स्वामी) के व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार पर भारी पड़ते हैं। आवेदक की कथित बीमारी और उम्र उनके पक्ष में नहीं मानी जा सकती।‘ आदेश में कहा गया कि ‘जितनी भी सामग्री कोर्ट के रिकॉर्ड में आई है, उससे लगता है कि स्वामी प्रतिबंधित माओवादी संगठन का सदस्य है।‘
प्रश्न ये है कि एनआईए या उससे पहले पुणे पुलिस ने ऐसी क्या सामग्री जुटाई थी, जिसने एनआईए कोर्ट को एक बुजुर्ग आदमी को जमानत देने से भी रोक दिया। क्या स्टैन स्वामी वाकेई इतना खतरनाक आदमी था, जो देश विरोधी षडयंत्र का स्वामी बन बैठा था। आइए उस सामग्री के बारे में भी जान लें-
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स्टैन स्वामी ने देश विरोधी साजिशों के बारे में जितने भी अर्बन नक्सलियों और दूरदराज के इलाकों में सुरक्षा बलों पर हमला करने वाले नक्सली समूहों से संवाद किया, उनमें एक शब्द का जिक्र बारम्बार आया। वो शब्द है- कॉमरेड। ऐसे 140 ईमेल अदालत के रिकॉर्ड पर हैं, जहां कॉमरेड का संबोधन हुआ। इन्हीं में से एक कॉमरेड मोहन से स्टैन स्वामी को 8 लाख रुपये भी मिले।
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2018 और 2020 में दो बार स्टैन स्वामी के ठिकानों पर छापे मारे गए, जिनमें 40 से भी ज्यादा महत्वपूर्ण मगर खतरनाक दस्तावेज मिले, जो स्पष्ट बताते हैं कि स्टैन स्वामी माओवादियों के ग्रुप का उच्च स्तरीय सदस्य था। इनमें थे- नक्सबाड़ी के 50 साल से जुड़ा साहित्य, सीपीआई(माओवादी) की प्रेस विज्ञप्तियां, सेंट्रल कमेटी के सर्कुलर, कुछ चिट्ठियां और अन्य साहित्य।
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सीपीआई(माओवादी) की 13वीं वर्षगांठ पर उत्सव के संदेश, उसका संविधान, अति महत्वपूर्ण अंडरग्राउंड हैंडबुक, अर्बन गुरिल्ला की मिनी मैन्युअल, भारत में क्रांति की रणनीति का दस्तावेज और जीएसएम नेटवर्क के एन्क्रिप्टेड डेटा कम्यूनिकेशन की गाइड जैसी सामग्री भी स्टैन स्वामी के ठिकानों से मिली।
एनआईए की चार्जशीट साफ कहती है कि स्टैन स्वामी प्रतिबंधित सीपीआई(माओवादी) का एक्टिव कैडर था, वो दूसरे कैडर के लगातार सम्पर्क में था, वो उन्हें बता रहा था कि देश भर में उनके कैडर की गिरफ्तारी से विशेषकर महाराष्ट्र में भारी नुकसान हुआ है। दूसरे माओवादियों से उसे फंडिंग हो रही थी। वो सीपीआई(माओवादी) की प्रताड़ित बंदी कमेटी यानी (Persecuted Prisoners Solidarity Committee) का समन्वयक भी था।
सवाल ये कि स्टैन स्वामी अगर देशद्रोही ताकतों के साथ मिलकर देशविरोधी गतिविधियों में जुटा हुआ था, तो फिर उसके निधन पर अब, या उससे पहले उसकी गिरफ्तारी के विरोध में, उसकी जमानत के पक्ष में, उसकी स्ट्रॉ-सिपर की मांग को लेकर हल्ला मचाने वाले कौन हैं ? अगर आपको देश की अदालतों या देश की सुरक्षा में लगी केंद्रीय जांच एजेंसी एनआईए की जांच पर विश्वास नहीं, तो फिर आपको भारत की किस संस्था पर भरोसा हो सकता है। संविधान अनुसार निर्धारित प्रक्रिया से अस्तित्व में आने वाली एनआईए की जांच और अदालतों के रुख पर आपको विश्वास क्यों नहीं होना चाहिए ? आप जो भी निर्णय लें, सच यही है कि देशविरोधी टूलकिट के स्वामी के निधन पर जिन लोगों को बेहद अफसोस हो रहा है, वो ये समझ गए हैं कि भारत में अराजकता, अशांति फैलाकर उसे कमज़ोर करने का कॉमरेड का जो अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र है, उसे इस दौर में फिलहाल तो दफन करना ही पड़ेगा। नया भारत ये भी देख रहा है, और समझ रहा है और कॉमरेड के निधन के बहाने भारत पर प्रहार करने वाले चेहरों को भी पहचान रहा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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