प्रवीण सिन्हा
मिल्खा सिंह अपनी माटी से बिछुड़े, भटके, ठोकरें खाईं, मगर अपनी मेहनत, लगन और जज्बे से इस देश की माटी के लिए एक मिसाल बन गये। जीते-जी किंवदंति बन गए, ख्याति मिली मगर एक टीस थी जो आखिर तक रह गई… एक भारतीय एथलीट के हाथों में ओलंपिक पदक। मिल्खा सिंह अपने पीछे छोड़ गए हैं आंसू, साथ ही नई पीढ़ी पर जिम्मेदारी भी कि वह अपने इस नायक के सपने को पूरा करे।
बीते 18 जून की रात भारतीय खेल जगत को गहरे तक झकझोर देने वाली खबर आई कि उड़न सिख मिल्खा सिंह नहीं रहे। 91 वर्षीय मिल्खा सिंह कोरोना से एक योद्धा की तरह लड़ते-लड़ते अंतत: हार गए। कभी हार न मानने वाले और हर समय उत्साह से भरे रहने वाले मिल्खा सिंह की छवि ही ऐसी थी कि सहसा यह विश्वास कर पाना मुश्किल था कि वे चिरनिद्रा में सो गए। लेकिन वह पीड़ादायी सच था। इसके बावजूद एक बड़ी सच्चाई यह भी है कि दशकों से भारतीय एथलीटों को ऊंची उड़ान भरने को प्रेरित करने वाले मिल्खा सिंह भारतीय खेल जगत और युवा एथलीटों के दिलों में हमेशा-हमेशा के लिए जिंदा रहेंगे।
मिल्खा सिंह ने पिछले छह दशक में कई पीढ़ियों को ओलंपिक पदक जीतने के लिए प्रेरित किया, उन्हें सपना दिखाया। उनके दमदार प्रदर्शन से आने वाली कई-कई पीढ़ियां खेल जगत में शिखर को छूने के लिए प्रेरित होती रहेंगी। मिल्खा एक ऐसे एथलीट थे जिन्होंने अपने करिअर में कभी भी आसानी से हार स्वीकार नहीं की। वे अथक परिश्रम और जीत की अदम्य इच्छाशक्ति के बल पर हर कठिन चुनौती का सामना करते हुए लक्ष्य हासिल करते रहे। असंभव को संभव बनाने की इसी जिद ने मिल्खा सिंह को एक महान एथलीट बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने नित नए आयाम स्थापित करते हुए भारतीय खेल जगत में अपना कद काफी ऊंचा कर लिया था। इतना ऊंचा कि आज भी कई ऐसे कीर्तिमान या उपलब्धियां हैं जिन्हें हासिल नहीं किया जा सका है। यही कारण है कि ओलंपिक पदक न जीत पाने के बावजूद मिल्खा सिंह देश के महानतम एथलीट माने जाते हैं।
टीस लेकर चले गए मिल्खा
एक खिलाड़ी की सफलता और असफलता के बीच कितनी महीन रेखा होती है, इसे मिल्खा से बेहतर कोई नहीं समझ सका। समय के सबसे छोटे अंतराल यानी सेकेंड के सौवें हिस्से से मिल्खा 1960 के रोम ओलंपिक में पदक जीतने से वंचित रह गए थे। महान एथलीट मिल्खा उस समय एशिया के सर्वश्रेष्ठ धावक थे और रोम ओलंपिक में पदक के प्रबल दावेदार के रूप में भाग ले रहे थे। उनका हौसला इतना बुलंद था कि विदेश में उन्हें कई अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया जाता था और वे बार-बार विश्व के शीर्षस्थ एथलीटों को कड़ी टक्कर दे रहे थे। रोम ओलंपिक में 400 मीटर की दौड़ जैसे ही शुरू हुई, मिल्खा ने शुरुआती 200 मीटर की दूरी तय करते-करते विश्व के तमाम धुरंधर धावकों पर बढ़त हासिल कर ली थी। लेकिन फिनिश लाइन से कुछ मीटर पहले मिल्खा सिंह ने अपने प्रतिद्वंद्वियों की स्थिति आंकने के लिए पीछे मुड़कर क्या देखा, उनके हाथ में आता निश्चित पदक महज आधे सेकेंड के अंतर से छिटक गया।
यह मिल्खा के करिअर की सबसे बड़ी चूक साबित हुई क्योंकि विश्व रिकॉर्डधारी दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम स्पेन्स (45.5 सेकेंड) ने मिल्खा (45.6 सेकेंड) को सेकेंड के सौवें हिस्से के अंतर से चौथे नंबर पर पछाड़कर उन्हें खाली हाथ ट्रैक से लौटने पर मजबूर कर दिया। यही नहीं, अमेरिका के ओटिस डेविस ने 44.9 सेकेंड का नया विश्व रिकॉर्ड निकालते हुए यह रेस जीती। यानी मिल्खा और स्वर्ण पदक विजेता ओटिस डेविस के बीच समय का अंतर महज 0.7 सेकेंड था। इस दुर्भाग्यपूर्ण क्षण का उल्लेख करते हुए मिल्खा सिंह ने मीडिया के सामने अनेक बार कहा— ‘‘यह मेरे खेल जीवन की सबसे गहरी टीस है और यह मेरे जीवन के अंत के साथ ही समाप्त होगी।’’ वास्तव में उस एक क्षण के लिए मिल्खा का पीछे देखना, उनसे काफी कुछ छीन ले गया। मिल्खा को अमेरिका के ओटिस और दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम स्पेन्स से पिछड़ना इसलिए ज्यादा सालता रहा क्योंकि ओलंपिक की तैयारियों के दौरान अलग-अलग आमंत्रण मीट में उन्होंने इन दोनों ही पदक विजेताओं को पछाड़ा था।
मिल्खा सिंह की इस टीस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 400 मीटर दौड़ में चौथे स्थान पर रहने के बावजूद 45.6 सेकेंड का जो समय निकाला था, वह पिछले ओलंपिक कीर्तिमान (45.9 सेकेंड) से कहीं बेहतर समय था। यही नहीं, मिल्खा सिंह का राष्ट्रीय रिकॉर्ड तोड़ने में परमजीत सिंह को 38 साल लग गए। मिल्खा के रोम ओलंपिक में पदक चूकने के दौरान उन्होंने एक और बड़ी उपलब्धि हासिल की। मिल्खा उस समय ओलंपिक ट्रैक स्पर्धा के फाइनल में प्रवेश पाने वाले पहले भारतीय एथलीट थे और यह उपलब्धि हासिल करने वाले अब तक वही एकमात्र भारतीय एथलीट हैं।
धमाकेदार प्रदर्शन
मिल्खा सिंह के लिए वर्ष 1958 धमाकेदार प्रदर्शन वाला रहा। उन्होंने 1958 कार्डिफ राष्ट्रमंडल खेलों में धमाकेदार प्रदर्शन करते हुए 400 मीटर दौड़ के फाइनल में जगह बनाते हुए इतिहास रचा। वे फाइनल में प्रवेश पाने वाले पहले भारतीय एथलीट थे। इसके बाद फाइनल में उन्हें सबसे कड़ी चुनौती दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम स्पेन्स से मिलने वाली थी। मिल्खा हालांकि मानसिक तौर पर काफी सुदृढ़ एथलीट थे, लेकिन रणनीति बनाने में माहिर नहीं थे। मिल्खा के अमेरिकी प्रशिक्षक ने मिल्खा को विश्वास दिलाया कि उनका स्टेमिना ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है और उन्हें 400 मीटर की दूरी को अंतिम 300 मीटर की दूरी की तरह फरार्टेदार अंदाज में पूरा करना है। मिल्खा ने ठीक ऐसा ही किया और मानसिक दृढ़ता के बल पर स्पेन्स को पछाड़कर ट्रैक एंड फील्ड स्पर्धा में देश के लिए राष्ट्रमंडल खेलों का पहला स्वर्ण पदक जीता। मिल्खा की उस ऐतिहासिक सफलता को दोहराने में भारत को 52 वर्ष तक लंबा इंतजार करना पड़ा जब कृष्णा पूनिया ने 2010 दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों की चक्का फेंक स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता।
इसके अलावा 1958 के टोक्यो एशियाई खेलों में मिल्खा ने पाकिस्तान के अंतरराष्ट्रीय स्तर के धावक अब्दुल खालिक को पीछे छोड़ते हुए 200 मीटर और 400 मीटर दौड़ में स्वर्ण पदक जीत तहलका मचा दिया। उस समय खालिक को परास्त करना असंभव माना जाता था, लेकिन मिल्खा ने एशियाई खेलों में दोहरा स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया। 400 मीटर की दौड़ में मिल्खा सिंह ने उस वर्ष ऐसा आयाम स्थापित किया कि आज भी भारत की ओर से कोई दूसरा पुरुष एथलीट एशियाई खेलों व राष्ट्रमंडल खेलों की इस स्पर्धा का स्वर्ण पदक नहीं जीत सका है।
अधूरा रह गया सपना
मिल्खा सिंह ने कुल 80 रेस के अपने करिअर के दौरान करीबन सारी अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताएं जीतीं, लेकिन इस दौरान एक भी ओलंपिक पदक न जीत पाने से वह काफी व्यथित थे। उनका दुखी होना जायज था क्योंकि वे स्वतंत्र भारत की ओर से एशियाई खेलों, राष्ट्रमंडल खेलों और ओलंपिक के फाइनल में प्रवेश करने या पदक जीतने वाले पहले और अब तक के एकमात्र पुरुष एथलीट हैं। उन्होंने दुनिया के कोने-कोने में भारतीय परचम लहराया। लेकिन अपनी अनुभवहीनता या सुविधाओं के अभाव में हुई चूक के कारण ओलंपिक में पदक न जीत पाना उन्हें हर समय टीस पहुंचाता था। इसके बाद उनके मन में एक ही सपना था कि अपने जीते-जी वे किसी एक भारतीय एथलीट को ओलंपिक पदक जीतते देखना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने देश भर के युवा एथलीटों को खूब प्रेरित किया और उन्हें बताया कि कड़ी मेहनत और लगन के बल पर किसी भी लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। लेकिन रोम ओलंपिक के बाद 60 वर्ष से ज्यादा का समय बीत चुका है, आज भी कोई भारतीय एथलीट ओलंपिक पदक तो क्या, पीटी ऊषा को छोड़ कोई भी फाइनल तक में प्रवेश नहीं कर सका है। मिल्खा बार-बार युवा एथलीटों को ओलंपिक पदक जीत लाने की दुहाई देते थे, लेकिन अंतत: उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका और मिल्खा ने एक ऐसी ऊंची उड़ान भरी कि अपने अधूरे सपने को कभी भी पूरा होते नहीं देख पाए।
फिल्म के लिए शगुन के 1 रुपये लिये
दंगों के दौरान मौत का भयानक तांडव, अनजान देश व अनजान नगर (दिल्ली) में तंगहाली का दौर और फिर अथक प्रयासों के बाद नौकरी पाते-पाते मिल्खा बुरी तरह से टूट चुके थे। लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। हर समय बस सफलता हासिल करने के लिए प्रयासरत रहे। एथलेटिक्स की दुनिया में शानदार प्रदर्शन करते हुए उन्होंने एक तरह से शिखर तक की राह तय की। इस दौरान उन्हें खूब प्रसिद्धि और धन-दौलत कमाने के मौके मिले। एक अनजान से युवा ने भारत के गौरव की ख्याति पा ली थी। लेकिन घमंड उनके सिर चढ़कर कभी नहीं बोला। इसका एक उदाहरण उनकी जीवनी पर बनी फिल्म – भाग मिल्खा भाग है। माना जाता है कि सचिन तेंदुलकर या महेंद्र सिंह धोनी पर जब फिल्में बनीं तो उन्होंने करोड़ों रुपये (लगभग 40-45 करोड़ रुपये) लिए। लेकिन जब भाग मिल्खा भाग फिल्म बनी तो मिल्खा सिंह ने प्रोड्यूशर से शगुन के तौर पर मात्र एक रुपया लिया।
मिल्खा यूं बने उड़न सिख
1958 के टोक्यो एशियाई खेलों की 200 मी. दौड़ में मिल्खा ने पाकिस्तान के अब्दुल खालिक को पछाड़कर स्वर्ण पदक जीता तो खालिक बुरी तरह से बौखला गया था। इसके बाद 1960 के रोम ओलंपिक में मिल्खा के करिश्माई प्रदर्शन के आगे खालिक का कहीं नामोनिशान नहीं था। इस बीच, पाकिस्तान ने 200 मीटर दौड़ की एक अंतरराष्ट्रीय मीट में मिल्खा को आमंत्रण भेज दिया। आजादी के बाद विभाजन के दौरान पाकिस्तान में अपनी आंखों के सामने माता-पिता की हत्या होते देख मिल्खा बुरी तरह से विचलित हो गए थे। पाकिस्तान का घृणित चेहरा मिल्खा के दिलोदिमाग पर छाया हुआ था इसलिए उन्होंने पाक दौरा करने से इनकार कर दिया। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने मिल्खा को किसी तरह पाक दौरे पर जाने को मनाया और पड़ोसी देश के साथ दोस्ती बढ़ाने की दुहाई दी। अंतत: मिल्खा को लाहौर में हुई प्रतियोगिता में भाग लेने जाना पड़ा। वहां उन्होंने खालिक को एक बार फिर बड़ी आसानी से मात दे दी। इसके बाद पुरस्कार वितरण समारोह के दौरान पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने कहा – मिल्खा आप पाकिस्तान आए और दौड़े नहीं, आप पाकिस्तान में उड़ रहे थे। हम आपको उड़न सिख का खिताब देते हैं। पाक का घमंड चूर करने वाले मिल्खा सिंह इसके बाद उड़न सिख के नाम से पुकारे जाने लगे।
https://www.panchjanya.com/Encyc/2021/6/29/A-story-of-dreams-struggles-and-struggles.html
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