गत 18 जून को चंडीगढ़ में 91 वर्षीय मिल्खा सिंह का निधन हो गया। 20 नवंबर, 1929 को गोविन्दपुरा (अब पाकिस्तान) में जन्मे मिल्खा सिंह का जीवन जीवटता का बहुत बड़ा उदाहरण है। बचपन में एक गिलास दूध के लिए सेना की दौड़ में दौड़ने वाले मिल्खा सिंह ने अपनी जीवटता से सिद्ध कर दिया था कि व्यक्ति चाहे तो कुछ भी कर सकता है
हजारों धावकों के प्रेरणास्रोत सरदार मिल्खा सिंह नहीं रहे। उन्होंने चंडीगढ़ स्थित पीजीआईएमईआर में 18 जून की रात में 11 बजकर 30 मिनट पर अंतिम सांस ली। कोरोना से पीड़ित होने पर उन्हें 20 मई को वहां भर्ती कराया गया था। वे 13 जून तक आईसीयू में भर्ती रहे और इस दौरान वे ठीक भी हो गए थे, लेकिन एक दिन बाद ही उनकी तबीयत फिर से बिगड़ गई। डॉक्टरों ने उन्हें लाख बचाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें बचाया नहीं जा सका।
पांच दिन पहले मिल्खा सिंह की पत्नी निर्मल मिल्खा सिंह का निधन भी कोरोना संक्रमण से हो गया था।
मिल्खा सिंह भारत विभाजन के समय दंगाइयों से बाल—बाल बचे थे। उनके परिवार के कई सदस्यों को दंगाइयों ने मार दिया था। इसके बावजूद वे निराश नहीं हुए और उन्होंने पूरी दुनिया में अपनी एक अलग छाप छोड़ी थी।
मिल्खा सिंह 'फ़्लाइंग सिख' के नाम से पूरी दुनिया में जाने जाते थे। वे एक मात्र ऐसे धावक थे, जिन्होंने 400 मीटर की दौड़ में एशियाई खेलों के साथ—साथ राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण पदक जीता था। उन्होंने 1958 के टोक्यो एशियाई खेलों में 200 मीटर और 400 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीता था। 1962 के जकार्ता एशियाई खेलों में मिल्खा सिंह ने 400 मीटर और चार गुना 400 मीटर रिले दौड़ में स्वर्ण पदक प्राप्त किया था।
मिल्खा सिंह को सबसे ज़्यादा प्रसिद्धि 1960 में रोम ओलंपिक ने दिलाई, जिसमें वे 400 मीटर दौड़ में कांस्य पदक मामूली अंतर से चूक गए थे। मिल्खा सिंह को श्रद्धांजलि देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है,''श्री मिल्खा सिंह जी के निधन से भारत ने एक महान खिलाड़ी खो दिया है। उनका असंख्य लोगों के दिलों में विशेष स्थान था। उनके प्रेरक व्यक्तित्व ने लाखों लोगों को प्रेरित किया। उनके निधन से दु:खी हूं।''
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