डॉ. क्षिप्रा माथुर
विकास का ज्यादा हिस्सा गड्ढों में, तालाब कागजों में और प्यास जहां की तहां। पश्चिमी राजस्थान की फलौदी तहसील में भी यही आलम था। मेहनतकश लोगों ने अपनी टैक्सी यूनियन के मार्फत पेड़ रोपने शुरू किए और धीरे-धीरे जब इस काम की छांव महसूस होने लगी तो वृक्ष मित्र बनकर मोक्षधाम में भी सैकड़ों पौधे रोप दिए। पानी और पौधों के बन्धन को मजबूत करने के लिए साल 2016 में इलाके के डॉ. दिनेश शर्मा ने रानीसर तालाब की खुदाई की अगुवाई की। फिर तो सिलसिला चल पड़ा। शिवसर, गुलाब सागर, सभी तालाबों की रंगत लौट आई।
भूख का बड़ा होना किसी समाज के आगे बढ़ने की निशानी कभी नहीं रहा। लेकिन जहां प्यास बड़ी रही है, वहीं जीवन की धारा ने अपना बहाव तेज रखा है। देश के करीब साढ़े छह लाख से ज्यादा गांव इस प्यास के साक्षी हैं जहां तालाबों और कुओं को शामिल कर ही बसावट का खाका खड़े करने की रवायत रही। बहते हुए को बांधने और ठहरे हुए को थामने वाले ये तालाब कहीं सिर्फ स्मृति में बचे हैं तो कहीं जमीन में दबे हुए सिसक रहे हैं। टूटे-फूटे तालाबों वाले गांव भी ये जानते हैं कि पुरखों ने इनके भी नामकरण संस्कार किए ताकि हर घर-परिवार से उनका रिश्ता उतना ही गहरा रहे जितना इन्सानी बस्ती से। वक्त के साथ जो दरारें समाज में पनपीं, उसका दर्द तालाबों ने सहा तो खूब मगर कभी कहा नहीं किसी से। तालाबों की अपनी दास्तां लोक परम्पराओं में रची गईं, गाई जाती रहीं, निभाई जाती रहीं लेकिन स्मृति से छूट गईं क्योंकि ये तालाब अब लबालब होने की बाट जोहते हुए विकास की मिट्टी को पानी की परतों पर जमते हुए देखते रह गए।
परम्पराओं की बराबरी
बोलियों में बसी गांव की संस्कृति और आस्था ने परम्परागत तालाब भी देखे और आधुनिक दौर में बने तालाब भी। जिन्होंने नई खुदाई की, उन्होंने असल में अपनी प्यास को महसूस तो किया लेकिन कुदरत के बनाए पानी के रास्ते वो कहां से खोलते। उन्हें क्या मालूम जहां पानी का ढलान है, जहां सतह के नीचे शिराएं हैं, पेड़ों के झुरमुट से गुजरती हुई मिट्टी की मजबूत पकड़ वाली जमीन है, वहीं से पानी अपना रास्ता खोजते हुए तालाबों में आ जाया करता था। बहता हुआ, छनता हुआ, बारह बरस अपनी तहें टटोलता हुआ। देशज ज्ञान और समझदारी ने पानी के कवच को टूटने नहीं दिया कभी। तालाबों को भी ऐसी यांत्रिकी से खड़ा किया, पत्थरों को ऐसे जड़ा और जल धारा के बारीक रास्तों को इतना ध्यान-पूजन में रखा कि पानी के साथ आई मिट्टी-गाद बाहर ही छूटी रही। इसीलिए परम्परा से पनपे तालाब और उसके पानी की कीमत कायम रही। आधुनिक तालाब कागजों से निकले, थोपे गए और ढलान, बसावट की अड़चनों को नजरअन्दाज कर खोदे गए, इसीलिए वो कभी परम्पराओं की बराबरी नहीं कर पाए। भराव के लिए बरसात की आस लगाए ये आज के तालाब हमारे अतीत की परछाई भर हैं, जिन्हें जिन्दा करना आगे का रास्ता तो है लेकिन भटका हुआ सा। बड़ी जरूरत है उन खोये हुए तालाबों को लौटा लाना, जिनकी सांसें अब उखड़ने लगी हैं।
गोचर,ओरण, तालाब
गांवों की बसावट में गोचर और ओरण, तालाब, खेत बहुरंग जीवन की निशानियां हैं और घर-घर पहुंच रहा नल खुशहाली की पहचान। जहां झीलें और नहरें भी हैं प्यास बुझाने के लिए वहां जब नहरें अपना पानी रोक लेती हैं, जब पाइपलाइन में झोंका जाता पानी अपने नखरे दिखाने लगता है तब गांव इन खुले खजानों में झांकने को निकलता है। अफसोस करता है, तकलीफ सहता है लेकिन हौसला नहीं कर पाता। तालाब की ओर ही लौटने की चाह जहां जागी है तो वजह यही कि ये मन से भरे रहते हैं हमेशा क्योंकि इनका बेहद करीबी नाता आस-पास बिछी हरियाली से है। ये गोवंश के लिए चारा उपजाने के लिए बेताब रहते हैं, ये देवी-देवताओं के नाम पर इन्सानों की दखल से दूर रखी गई जमीनों को आबाद करते हैं और खेतों की नमी का जिम्मा भी उठाए रहते हैं। लंबे, सूखे, तीखे दिनों में जीवन की आस बचाए रखते हैं। फिक्र वहां भी बड़ी है जो इलाके नगर बन चुके हैं लेकिन वहां की जल-विरासत की परवाह वाली बस्तियां बिखरी-बिखरी हैं। सार संभाल कौन करे, किसकी देखरेख हो और किस विभाग का दखल हो, इसका अपना दर्द है। मनरेगा की खुदाई में बेमन से खोदे और साफ किए तालाब के सारे काम सबको मिट्टी होते दिख रहे हैं। विकास का ज्यादा हिस्सा गड्ढों में, तालाब कागजों में और प्यास जहां की तहां।
किल्लत की तहसील
पश्चिमी राजस्थान की फलौदी तहसील में भी यही आलम था। अपनी जल-विरासत की अनदेखी ने उस मुहाने पर धकेल दिया जहां कार-टैक्सी स्टैंड पर एक अदद पेड़ की छाया भी मुहैया नहीं थी। मेहनतकश लोगों ने अपनी टैक्सी यूनियन के मार्फत पेड़ रोपने शुरू किए और धीरे-धीरे जब इस काम की छांव महसूस होने लगी तो वृक्ष मित्र बनकर अपने इलाके से निकलकर मोक्षधाम में भी सैकड़ों पौधे रोप दिए। दशक भर पहले शुरू हुए इस काम की महक सबको आने लगी तो डेढ़ सौ लोगों की इस युवा मित्र टीम का ध्यान पानी की तरफ भी गया। सात-आठ साल पहले तालाबों को मिलाकर झील बनाने, तालाबों की मरम्मत और घर-घर पानी पहुंचाने का जो सरकारी काम शुरू हुआ, उसने जागरूक नागरिकों को पानी की दिक्कत महसूस करने की वजह भी दी। पानी और पौधों के बन्धन को मजबूत करने के लिए साल 2016 में इलाके के डॉ. दिनेश शर्मा ने रानीसर तालाब की खुदाई की अगुवाई की। फिर तो सिलसिला चल पड़ा, 2019 में शिवसर तालाब की पेड़ से घेराबन्दी और चिखलिया तालाब की खुदाई की। अगला काम गुलाब सागर की खुदाई का था। ये खूबसूरत तालाब कभी इलाके भर को तर रखने का दम रखता था। पिछले 60 साल में इसकी साफ सफाई, खुदाई और रखवाली की परवाह किसी ने नहीं की। इलाके के किशन गोपाल ने पहला कदम उठाया और उसके बाद जन-जन की मदद से मैदानी हो चुके गुलाब सागर की रंगत बदल गई। तालाब के रास्ते के अतिक्रमण हटाए, जेसीबी मशीनें, ट्रेक्टर, डम्पर लगाकर इसे अपनी असल हालत में लौटाने का बीड़ा उठाया। फोन पर समूह बनाए, बात फैलाई, लोगों को जोड़ा और एक बार 45 दिनों तक लगातार और दूसरी बार 35 दिनों तक खुदाई जारी रहने के बाद तालाब की जान में जान आई। असल सूरत नजर आने लगी।
गुलाबी रंगत
गुलाब सागर पर बने खण्डहर की मरम्मत करने के लिए भी कन्हैया लाल जैसे समाज सेवी आगे आए। मगर जब बड़े पैमाने पर जारी अंधी दौड़ में धरती की कोख खाली हो रही है तो उसे भरने का जिम्मा सिर्फ नागरिकों का नहीं, सरकारी महकमों का भी होना चाहिए। उनके पास न सोच है, न मन और ना ही नीतियों का दमखम। करीब पांच सौ परिवारों की आबादी वाले इस इलाके में घर-घर खुदे हजारों बोरवैल अब खतरे की दस्तक दे चुके हैं। पानी सात सौ फुट नीचे पहुंच चुका है। जिस इलाके में बूंद-बूंद की बचत के लिए घर-घर में टांका बना हो, वहां इतनी बेपरवाही पसर चुकी है कि बारिश के पानी को संभालने के लिए पहले से कायम तालाबों की तरफ किसी ने देखा तक नहीं। यहां पूरब दिशा में गोचर की जमीन है और पश्चिम की ओर की पथरीली आगोर यानी कुदरत के बनाए पानी के रास्तों वाली जमीन। इस इलाके में सात-आठ छोटे-बड़े तालाब थे।
चार-पांच तालाबों को मिलाकर झील बना दी गई जिसमें पश्चिमी राजस्थान की नहर का पानी रिजर्व में रहता है। यही पानी फिल्टर होकर घर-घर बिछी पाइपलाइन से नलों में आता है। लेकिन जब नहर का पानी रोका जाता है तो यहां दो-तीन महीने पानी की भारी किल्लत रहती है। इसीलिए जो तालाब झील में मिल चुके, उनके अलावा बचे तीन तालाबों को आबाद करने की जरूरत महसूस हुई। तालाबों के आसपास जमीन पर हो चुके कब्जों की वजह से पानी की आवक नहीं थी। चिखलिया, रानीसर और गुलाब सागर आसपास ही थे। इन सबकी खुदाई का जिम्मा रमेश थानवी, दिलीप व्यास, राजेश बोहरा, मोहन बोहरा, जगदीश गज्जा, रामदयाल थानवी, देवकिशन जैसे नागरिकों ने हाथ में लिया और इसे जन-जन का अभियान बना दिया।
लबालब तालाब
तालाबों को आबाद करने के इन कामों में नगर निकाय की मदद बूंद-बूंद रही मगर फलौदी की महिला शक्ति समूह, आम नागरिक और समाज के रखवालों ने भरपूर मदद की। इलाके में आई कोविड की आफत के दौरान भी ये संगठित नागरिक और सेवा भारती की टीम खाना, दवाई, ठहरना, आॅक्सीजन के इन्तजाम में लगे रहे और सेवा के काम को पेड़-पानी के साथ निभाई ईमानदारी की तरह ही करते रहे। पेड़, पौधे रोपने का काम को तो जनम, परण, मरण से जोड़कर आगे बढ़ रहा है और अब गोचर की करीब डेढ़ हजार बीघा जमीन का काम भी कुछ महीनों से हाथ में लिया है।
मगर समतल जमीन को गहरा करना और तालाब को जिंदा कर देना आज के दौर के करिश्मे हैं जिनकी पूछ तो होनी चाहिए। जिन परम्पराओं से हमारी पहचान है, जिनमें भींग कर हमें धरती की तरंग का अन्दाज होता रहा है, आज उन्हें तस्वीरों से बाहर निकालने का वक्त है। बूंद-बूंद की बांधनी से सजे तालाबों की सजावट में लगे साथियों को हौसला देना भी समाज के हिस्से का बड़ा काम है। खुले मन और सालों तक बूंद-बूंद के लिए खुली अंजुरी से ही सदियों की परम्परा का मान रह पाएगा।
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