दिनेश मानसेरा
उत्तराखंड जैसे सीमावर्ती राज्य में लिंगानुपात देश के सबसे निचले पायदान में पहुंच गया है। नीति आयोग की सर्वे रिपोर्ट कहती है कि साल, 2020 में राज्य में 1000 बालकों की तुलना में 840 बालिकाओं ने जन्म लिया है। भारत के रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना कमीशन ने 2016 में राज्य सरकार को चेतावनी दे दी थी कि 2021 समाप्त होने तक लिंगानुपात 800 तक चला जाएगा।
उत्तराखंड जैसे सीमावर्ती राज्य में लिंगानुपात देश के सबसे निचले पायदान में पहुंच गया है। नीति आयोग की सर्वे रिपोर्ट कहती है कि साल, 2020 में राज्य में 1000 बालकों की तुलना में 840 बालिकाओं ने जन्म लिया है। भारत के रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना कमीशन ने 2016 में राज्य सरकार को चेतावनी दे दी थी कि 2021 समाप्त होने तक लिंगानुपात 800 तक चला जाएगा।
उत्तराखंड में आबादी की दृष्टि से नज़र डालें तो चमोली, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग में महिलाओं की जनसंख्या पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा दिखाई देती है। लेकिन राज्य में नवजात शिशु जब जन्म ले रहे है तो उनमें लड़कियों की संख्या बहुत कम है, जो कि बेहद चिंताजनक है। 2020 में देश में औसत लिंगानुपात 1000 बालकों की तुलना में 899 बालिकाओं का आया है। ये रिपोर्ट भी चिंता पैदा करती है। हालांकि कभी बालिकाओं के जन्म के मामले में पिछड़े हरियाणा का अब लिंगानुपात 930 पहुंच गया है। आंकड़ों की दृष्टि में उत्तराखंड में 2005 में लिंगानुपात 1000 बालकों की तुलना में 914 था। 2005 में 888, 2018 में 850 और 2020 में और भी घटकर 840 रह गया। ये रिपोर्ट चिंताजनक है। बार—बार चेतावनियों के बावजूद बालिकाओं के संरक्षण के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किए। जो योजनाएं बालिकाओं के लिए सरकार ने शुरू कीं वे लालफीता शाही की शिकार होती रहीं।
नीति आयोग की सर्वे सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स रिपोर्ट कहती है कि उत्तराखंड के पौड़ी जिले में 2020 में 1000 बालकों की तुलना में कुल 705 बालिकाओं ने जन्म लिया। यह वह जिला है, जहां से उत्तराखंड की राजनीतिक दिशा तय होती है। पांच—पांच मुख्यमंत्री जिस जिले से बनें फिर भी वहां की योजनाएं बालिकाओं के जन्म के मामले में उदासीन रुख अपनाती हैं। इसी वर्ष अल्मोड़ा जिले में 1000 बालकों की तुलना में 986 कन्याओं ने जन्म लिया।
2019 में एक खबर मीडिया की सुर्खियों में रही थी कि उत्तरकाशी जिले के 132 गांवों में तीन महीनों में 216 बालकों ने जन्म लिया, जबकि कोई बालिका यहां नही जन्मी। ये खबर चिंताजनक थी। किंतु इस पर कोई चिंता संबंधित विभाग द्वारा नहीं की गई।
उत्तराखंड जैसे सीमावर्ती राज्य में बालिकाओं का जन्म न लेना, इसके पीछे वजह क्या है ? पुत्र मोह की लालसा ? पहाड़ों से होता लोगों का पलायन ? हालांकि इस जैसे गंभीर सामाजिक— आर्थिक विषयों पर चिंतन करने की जरूरत है। जिस पर लंबे समय से कार्ययोजना बनाने जरूरत तो महसूस की जाती रही है, समय—समय पर वर्कशॉप, सेमिनार भी होते हैं, लेकिन वह सफेद हाथी ही साबित होत। असल में जमीन पर कोई कार्ययोजना नहीं दिखाई देती।
पहाड़ों में बहुत से गांव कस्बे ऐसे हैं, जहां स्वास्थ्य सुविधाओं का आभाव है। गर्भवती महिलाओं को अस्पताल पहुंचने में समय लगता है। पिछले कुछ सालों में कई ऐसी घटनाएं भी हुई हैं, जब गर्भवती महिलाओं ने पहाड़ों की पगडंडियों में बच्चे जन्मे। कई बार ऐसे प्रसवकाल में मौते भी हुईं। बावजूद इसके संबंधित विभाग ने स्वास्थ्य सुविधाओं को बढ़ाने में किसी ठोस योजना पर काम नहीं किया।
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