प्रवीण गुगनानी
बिरसा भगवान की मूल कार्यशैली जनजातीय समाज को ईसाइयों के कन्वर्जन से बचाने, अत्याचारों से समाज को बचाने, समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने व शोषक वर्ग से समाज को बचाने की रही|बिरसा मुंडा महान क्रांतिकारी थे। जनजातीय समाज को साथ लेकर उलगुलान किया था उन्होंने। उलगुलान अर्थात हल्ला बोल, क्रांति का ही एक देशज नाम। वे एक महान संस्कृतिनिष्ठ, समाज सुधारक, संगीतज्ञ भी थे। जिन्होंने सूखे कद्दू से एक वाद्ध्ययंत्र का भी अविष्कार किया था जो अब भी बड़ा लोकप्रिय है। इसी वाद्ध्ययंत्र को बजाकर वे आत्मिक सुख प्राप्त करते थे और दलित, पीड़ित समाज को संगठित करने का कार्य करते थे। ठीक वैसे ही जैसे भगवान श्रीकृष्ण अपनी बांसुरी से स्वांतः सुख व समाज सुख दोनों ही साध लेते थे।
सूखे कद्दू से बना यह वाद्ध्ययंत्र अब भी भारतीय संगीत जगत में वनक्षेत्रों से लेकर बॉलीवुड तक में बड़ी प्रमुखता से बनाया व बजाया जाता है। वस्तुतः बिरसा भगवान की मूल कार्यशैली जनजातीय समाज को ईसाइयों के कन्वर्जन से बचाने, अत्याचारों से समाज को बचाने, समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने व शोषक वर्ग से समाज को बचाने की रही। भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण व अविभाज्य अंग रहा है जनजातीय समाज। मूलतः प्रकृति पूजक यह समाज सदा से भौतिकता, आधुनिकता व धनसंचय से दूर ही रहा है। बिरसा भगवान भी मूलतः इसी जनजातीय समाज के थे। “अबुआ दिशोम रे अबुआ राज” अर्थात अपनी धरती अपना राज का नारा दिया था वीर बिरसा मुंडा जी ने।
वीर शिरोमणि बिरसा भगवान की पुण्यतिथि पर उनके राष्ट्र हेतु प्राणोत्सर्ग करने की कहानी पढ़ने के साथ साथ यह भी स्मरण करने का अवसर है कि अब स्वतंत्र भारत में अर्थात अबुआ दिशोम में जनजातीय व वनवासी बंधुओं के साथ, उनकी संस्कृति के साथ क्या क्या षड्यंत्र हो रहे हैं ?
वस्तुतः जनजातीय समाज के समक्ष अब भी बड़ी चुनौतियां वैचारिक व सांस्कृतिक स्तर पर लगातार रखी जा रही हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है समूचे भारत मे फैलाया जा रहा आर्य व अनार्य का विघटनकारी वितंडा।
तथ्य यह है कि भारत में जनजातीय समाज व अन्य जातियों की आकर्षक विविधता को विघ्नसंतोषी विघटनकारियों ने आर्य–अनार्य का वितंडा बना दिया। कथित तौर पर आर्य कहे जाने वाले लोग भी भारत में उतने ही प्राचीन हैं, जितने कि अनार्य का दर्जा दे दिये गए जनजातीय समाज के लोग। वस्तुतः वनवासी समाज को अनार्य कहना ही एक अपशब्द की भांति है, क्योंकि आर्य का अर्थ होता है सभ्य व अनार्य का अर्थ होता है असभ्य। सचाई यह है कि भारत का यह वनवासी समाज पुरातन काल से ही सभ्यता, संस्कृति, कला, निर्माण, राजनीति, शासन व्यवस्था, उत्पादकता और सबसे बड़ी बात राष्ट्र व समाज को उपादेयता के विषय में किसी भी शेष समाज के संग कदम से कदम मिलाकर चलता रहा है व अब भी चल रहा है।
यह तो अब सर्वविदित ही है कि इस्लाम व ईसाइयत दोनों ही विस्तारवादी हैं। इन मत—पंथों ने अपने विस्तार हेतु अपने परिष्कार, परिशोधन के स्थान पर षडयंत्र, कुतर्क, कुचक्र व हिंसा का ही उपयोग किया है। अपने इसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय जातियों में विभेद उत्पन्न किया। द्रविड़ों को भारत का मूलनिवासी व आर्यों को बाहरी आक्रमणकारी कहना प्रारंभ किया। ईसाइयों ने अपने मत की श्रेष्ठता सिद्ध करने हेतु इस प्रकार के षडयंत्र रचना सतत चालू रखे।
आज सबसे महती आवश्यकता इस बात की है कि वनवासी समाज में घुसपैठ कर रहे इस कालनेमि वर्ग को पहचानना और उनके देशविरोधी, समाज विरोधी चरित्र पर ढके हुए छदृम आवरण को हटाना। इस विघ्नसंतोषी वर्ग की बातों को अलग कर यदि हम भारत के जनजातीय समाज व अन्य समाजों में परस्पर एकरूपता की बात करें तो कई—कई अकाट्य तथ्य सामने आते हैं। कथित तौर पर जिन्हें आर्य व द्रविड़ अलग अलग बताया गया, उन दोनों का डीएनए परस्पर समान पाया गया है। दोनों ही शिव के उपासक हैं। प्रसिद्ध एन्थ्रोपोलाजिस्ट वारियर एलविन, जो कि अंग्रेजों के एडवाइजर थे, ने जनजातीय समाज पर किए अध्ययन में बताया था कि ये कथित आर्य और द्रविड़ शैविज़्म के ही एक भाग हैं और गोंडवाना के आराध्य शंभूशेक भगवान शंकर का ही रूप हैं। माता शबरी, निषादराज, सुग्रीव, अंगद, सुमेधा, जाम्बवंत, जटायु आदि आदि सभी जनजातीय बंधु भारत के शेष समाज के संग वैसे ही समरस थे जैसे दूध में शक्कर समरस होती है। प्रमुख जनजाति गोंड व कोरकू भाषा का शब्द जोहारी रामचरितमानस के दोहा संख्या 320 में भी प्रयोग हुआ है। मेवाड़ में किया जाने वाला लोक नृत्य गवरी व वोरी भगवान शिव की देन हैं, जो कि समूचे मेवाड़ी हिंदू समाज व जनजातीय समाज दोनों के द्वारा किया जाता है।
बिरसा मुंडा, टंट्या भील, रानी दुर्गावती, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, अमर बलिदानी बुधू भगत, जतरा भगत, लाखो बोदरा, तेलंगा खड़िया, सरदार विष्णु गोंड आदि कितने ही ऐसे वीर जनजातीय बंधुओं के नाम हैं, जिन्होंने अपना सर्वस्व भारत देश की संस्कृति व हिंदुत्व की रक्षा के लिए अर्पण कर दिया।
जब विदेशी आक्रांता गजनी आराध्य सोमनाथ पर आक्रमण कर रहा था, तब अजमेर, नाडोल, सिद्धपुर पाटन और सोमनाथ के समूचे प्रभास क्षेत्र में हिंदू धर्म रक्षार्थ जनजातीय समाज ने एक व्यापक संघर्ष खड़ा कर दिया था। गोपालन व गोसरंक्षण का संदेश बिरसा मुंडा जी ने भी समान रूप से दिया है। और तो और क्रांतिसूर्य बिरसा मुंडा का “उलगुलान” संपूर्णतः हिंदुत्व आधारित ही है। ईश्वर यानी सिंगबोंगा एक है। गो की सेवा करो एवं समस्त प्राणियों के प्रति दया भाव रखो। अपने घर में तुलसी का पौधा लगाओ। ईसाइयों के मोह जाल में मत फंसो। परधर्म से अच्छा स्वधर्म है। अपनी संस्कृति, धर्म और पूर्वजों के प्रति अटूट श्रद्धा रखो। गुरुवार को भगवान सिंगबोंगा की आराधना करो व इस दिन हल मत चलाओ, यह सब संदेश भगवान बिरसा मुंडा ने दिए हैं।
भारतीय समाज खासकर वनवासी समाज वन, नदी, पेड़, पहाड़, भूमि, गाय, बैल, नाग, सूर्य, अग्नि आदि की पूजा हजारों वर्षों से करते चले आ रहें हैं। भारत के सभी जनजातीय समुदाय जैसे गोंड, मुंडा, खड़िया, हो, किरात, बोडो, भील, कोरकू, डामोर, ख़ासी, सहरिया, संथाल, बैगा, हलबा, कोलाम, मीणा, उरांव, लोहरा, परधान, बिरहोर, पारधी, आंध, टाकणकार, रेड्डी, टोडा, बडागा, कोंडा, कुरुम्बा, काडर, कन्निकर, कोया, किरात आदि के जीवन यापन, संस्कृति, दैनंदिन जीवन, खानपान, पहनावे, परम्पराओं, प्रथाओं का मूलाधार हिंदुत्व ही है। ऐसी स्थिति में हम समस्त भारतीयों का यह कर्तव्य बनता है की आर्य विरुद्ध अनार्य के इस विघटनकारी विमर्श से इस देश को मुक्ति दिलाएं व एकरस, एकरूप व एकात्म होकर राष्ट्रनिर्माण में अपना अपना योगदान दें।
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