दुनिया के प्राचीन मंदिरों, पिरामिडों और पुरास्मारकों की दिशाओं का नियोजन चुंबकीय कम्पास से न होकर पृथ्वी की धुरी वैदिक परम्परा के अनुरूप है। इस कारण भौगोलिक उत्तर सभी स्थानों पर सदैव एक सा रहता है।
विश्व के प्राचीन मंदिरों, पिरामिडों और पुरास्मारकों की दिशाओं का नियोजन चुंबकीय कम्पास के अनुसार न होकर, भू-अक्ष अर्थात पृथ्वी के घूमने की धुरी की वैदिक परम्परा के अनुरूप है। दक्षिण-पूर्व एशिया से भारत, चीन, ईरान, सीरिया, लेबनान, मिस्र, यूरोप और अमेरिका तक ईसा पूर्व काल के स्मारकों का दिशा विन्यास एक समान आधार पर भू-अक्ष अर्थात वैदिक भौगोलिक उत्तर दिशा आधारित होना आश्यचर्यजनक है। इन स्मारकों के स्थापत्य में उपग्रह चित्रों से भी भी ट्रू नॉर्थ से कोई विचलन नहीं आता है।
भौगोलिक और चुंबकीय उत्तर में भेद
चुंबकीय कम्पास की उत्तर दिशा वास्तविक भौगोलिक उत्तर दिशा से भिन्न होती है जो स्थान व समय भेद से बदलती रहती है। भौगोलिक उत्तर पृथ्वी के घूमने की धुरी या अक्ष पर आधारित होने से सभी स्थानों पर सदैव एक सा रहता है। भौगोलिक उत्तर अर्थात भू-अक्ष या पृथ्वी की धुरी आधारित ट्रू नार्थ व तदनुरूप कार्डिनल दिशाओं के निर्धारण की पुराणों एवं वैदिक साहित्य की परम्परा का चलन आधुनिक जगत में 1860 के बाद प्रारम्भ हुआ है। उसके पूर्व चुंबकीय उत्तर दिशा से नौवहन में भी भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। आधुनिक नौवहन में इसी वैदिक ट्रू नॉर्थ का उपयोग किया जाता है। पृथ्वी की धुरी या अक्ष को अंतरिक्ष में बढ़ाने पर वह पृथ्वी से 434 प्रकाश वर्ष दूर स्थित ध्रुव तारे पर पहुंचती है। इस धुरी में 50 विकला के वार्षिक विचलन की 25,771 वर्षों में पूरी होने वाली चक्राकार आवृत्ति को दृष्टिगत रख कर वैदिक साहित्य में इसे अयन चलन या अयनांश कहा गया है।
वैदिक भू-अक्ष आधारित दिशाएं व विश्व के प्रमुख पुरास्मारक
उपरोक्त वैदिक पुरा-खगोलीय दिशा विन्यास युक्त हजारों स्मारकों में से कुछ की चर्चा यहां पर की जाएगी।
सूर्य की प्रथम किरण का प्रवेश
इच्छित दिवस यथा अयन संक्रातियों, विषुव संक्रांतियों या सक्रान्तियों, विषुव संक्रांतियों या अन्य महत्वपूर्ण दिवस के सूर्योदय की दिशा से अभिमुखित करने की यह परम्परा पूरे विश्व में रही है। इसी वैदिक परम्परानुसार दिशा साधन के कारण ही कोणार्क, झांसी, ग्वालियर, श्रीकाकुलम व कश्मीर के सूर्य मंदिरों, कंबोडिया स्थित अंकोरवाट, मिस्र के फराओ/फरोह मंदिरों, लेबनान के बालबेक स्थित मंदिरों, यूरोपीय ग्रीको-रोमन मंदिरों, संक्रांति उत्सव स्थलों एवं प्राचीन माया आदि अमेरिकी सभ्यताओं के मंदिरों के गर्भ गृह में पूर्व निर्धारित दिवस पर सूर्योदय की पहली किरण निर्बाध पहुंचती है। अयन संक्रांतियों से आशय उत्तरायण व दक्षिणायन संक्रांतियों से है और दिन व रात्रि एक समान होने पर वह विषुव सक्रांति कहलाती है। विश्व के पिरामिडों में कैलाश पर्वत एक प्राकृतिक पिरामिड है, उससे लेकर विश्व की शताधिक पिरामिडों का दिशा विन्यास पूर्णत: ट्रू नॉर्थ आधारित है। पौराणिक व वेदांग ज्योतिष आधारित दिशा विन्यास से ही मकर संक्रांति, कर्क संक्रांति या विषुव दिवस पर सूर्य की प्रथम किरण इन मंदिरों की मुख्य प्रतिमा तक अबाधित पहुंचती है। विश्व के लगभग 40 देशों में प्राचीन मंदिरों, पूजा स्थलों, पिरामिडों, महापाषाण स्मारकों और अन्य स्मारकों का दिशा विन्यास चुंबकीय उत्तर से भिन्न भू-अक्ष आधारित कार्डिनल दिशाओं पर केंद्रित
होने से इन्हें पुरा खगोलीय या आर्किओ-एस्ट्रोनॉमिकल स्थल कहते हैं।
मिस्र-सीरिया के मंदिर व पिरामिड
मिस्र के 4,500 से 10,000 वर्ष पूर्व बने मंदिरों जैसे रामसेस द्वितीय की अबु सिम्बेल की प्रतिमा, काटंक स्थित सूर्य मंदिर जिसे प्राचीन मिस्र की भाषा में ह्यराह्ण पुकारा जाता है। लक्सर के डीर अल-बाहरी मंदिर, क्वासर क्वरून मंदिर की कुड्स अल अक्दस प्रतिमा, डान्दरा मंदिर, हिबिस मंदिर व स्फिंक्स के महान मंदिर आदि का दिशा विन्यास ऐसा है कि सूर्य के उत्तरायण के अवसर पर या विषुव दिवसों (मार्च 21 व सितंबर 23) अथवा अन्य खगोलीय महत्व के दिवस पर सूर्योदय की प्रथम किरण सीधे प्रधान देवता की प्रतिमा पर पहुंचती है। सीरिया के रूज्म अल-हीरी के महापाषाण स्मारकों के दो पाषण वृत्तों से सायन अयन संक्रांतियों व विषुव संक्रांतियों पर सूर्य की पहली किरण के दर्शन व पूजन की परम्परा रही है। वहां भारतीय खगोल आधारित वेधशाला भी है।
लेबनान के विशाल व महापाषाण मंदिर
लेबनान में विद्यमान 5,000 वर्ष प्राचीन सूर्यनगरी ‘बालबेक या हीलियोपालिस’ में सूर्य, इंद्र, बृहस्पति, शुक्र और बुध आदि के मंदिर और बलि, परशुराम जैसी अनेक सनातन हिंदू प्रतिमाएं और विश्व के सर्वाधिक विशाल व कलापूर्ण मंदिर अदभुत आश्चर्य हैं। इन मंदिरों का कार्डिनल दिशा विन्यास होने के साथ ही इनके निर्माण के वर्ष की अक्षय तृतीया और रक्षा बंधन की तिथियों मई 1 व 12 अगस्त के सूर्योदय से अभिमुखित यह नगर भी विश्व के आर्कियो-एस्ट्रानामिकल स्थलों में है। लेबनान में स्कूली पुस्तकों में इन मंदिरों का निर्माण प्राचीन भारतीयों द्वारा किए जाने का भी वर्णन है। वहां उपलब्ध षोडष कोणीय गुरुपूजन शिला और छत पर कमल पुष्पों (जहां दूर-दूर हजारों किलोमीटर की परिधि में भी कमल नहीं होते हैं) का उत्कीर्णन आदि भारतीय संस्कृति के प्रभाव के द्योतक हैं। वहां 800-800 टन की महापाषाण कलाकृतियां और 1,50,080 वर्ग फीट तक के कीर्तन मंडप हैं।
यूरोपीय पुराखगोलीय स्थलों का दिशा विन्यास
यूरोप में पुर्तगाल, रोमानिया, रूस, स्पेन, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, आयरलैंड, इग्लैंड में 50 से अधिक ऐसे आर्कियो-एस्ट्रोलॉजिकल स्थल हैं, जिनका वास्तविक उत्तर या वास्ताविक पूर्व आधारित दिशा का निर्धारण किया गया है। कार्डिनल दिशाओं से उनके दिशा विन्यास से 0.01 डिग्री का भी अंतर नहीं है। आयरलैंड स्थित न्यूग्रेज, नोडथ, बोयन घाटी स्थित डोथ, ओल्ड केसल के निकट लॉफक्रू आदि कुछ स्थल ईसा पूर्व 3-4 हजार वर्ष प्राचीन हैं। बीधमोर शिला वृत्त, ड्रोमबेग शिलावृत आदि तो शुद्घ कार्डिनल दिशाओं से समन्वित पूरी वेधशालाएं प्रतीत होते हैं। जहां अयनान्त विषुव संक्रांतियों पर सूर्य साधना के साथ चन्द्र रहित सभी ग्रहों के अध्ययन के भी अवशेष विद्यमान हैं। आयरलैंड में 9 और इंग्लैंड में ऐसे 11 स्थल हैं।
अमेरिकी पुरा खगोलीय स्थल
यूरोपीय अप्रवासियों के आने से पहले के संयुक्त राज्य अमेरिका में 17 एवं शेष अमेरिकी देशों की माया, एजटेक आदि सभ्यताओं के 50 से अधिक ऐसे पिरामिड व मंदिर आदि हैं, जो वास्तविक पूर्व दिशा अर्थात ट्रू ईस्ट व कार्डिनल दिशाओं से बिना विचलन के अभिमुखित हैं। अकेले मेक्सिको में टिओटिहुआकान, चिचेन इजा कोबा ईस्टर द्वीप, ईजामल इकिल सहित 20 ऐसे स्थल हैं। कैलाश पर्वत से 17,000 किमी़ दूर टिओटिहुआकान उसी देशांतर रेखा पर स्थित है और वहां के सूर्य व चन्द्र्र के पिरामिडों आदि का दिशा विन्यास सर्वथा कैलाश पर्व के अनुरूप है। वहां के नाग और शक्ति मंदिर भी वास्तविक उत्तर से अभिमुखित हैं। नाग मंदिर की सीढ़ियों पर उत्कीर्णित प्रत्येक नाग का भी सूर्य की किरणों से प्रत्येक सीढ़ी पर समान आकार की छाया बनती है।
पिरामिडों का दिक्विन्यास
चीन, मिस्र, बेलिज, मेक्सिको, इजरायल, ईरान, इराक, ग्वाटेमाला आदि अनेक स्थानों के अधिकांश पिरामिडों में भी भौगोलिक ध्रुव आधारित शुद्धतम दिशा विन्यास है। ईसा पूर्व काल के इन अनगिनत स्थानों का दिक्विन्यास वैदिक संहिताओं व वेदांग ज्योतिष प्रणीत भू-अक्ष आधारित होना एक विलक्षण संयोग ही है।
-प्रो. भगवती प्रकाश
(लेखक गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के कुलपति हैं)
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