पश्चिमी मीडिया को उभरते, प्रगतिशील और नए विकास की ओर अग्रसर शक्तिशाली भारत की तस्वीर अपने रचे हुए मिथ के अनुरूप नहीं लगती। इसलिए, श्मशान घाटों और कोविड हाटस्पॉट्स पर ही ज्यादा खबरें बना रही पश्चिमी मीडिया की नजरें कुछ और खोजती भी हैं तो वे गोबर और मूत्र जैसे अपने पसंदीदा विषय और कोरोना देवी की पूजा करने वाले मुट्ठी भर लोगों और खासकर अरुंधति रॉय और राणा अय्यूब जैसे शासन विरोधी नामों पर जा टिकती हैं। अब वक्त इस छद्म आख्यान के झूठ पर वार करने का है
एक प्रमुख मीडिया हाउस के वरिष्ठ पत्रकार ने हाल ही में एक पैनल चर्चा के दौरान जिक्र किया कि फर्जी खबर का चलन भारत के लिए कोई नई बात नहीं। मिसाल के तौर पर उन्होंने महाभारत युद्ध के दौरान ज्येष्ठ पांडवपुत्र राजकुमार युधिष्ठिर की गुरू द्रोणाचार्य को उनके पुत्र अश्वथामा की मृत्यु के बारे में दी गई झूठी खबर के प्रसंग का हवाला दिया। यह टिप्पणी जहां भारत के महाकाव्यों के दर्शन से अनजान उस लेखक की अधकचरी समझ का प्रतिबिंब है, वहीं कथित उदारवादियों की देश के इतिहास, संस्कृति और धर्म सहित प्राचीन ज्ञान के संबंध में एक नकारात्मक आख्यान स्थापित करने की फूहड़ कोशिश है। वह पत्रकार भी उसी समूह का कर्तव्यनिष्ठ सदस्य है जो वानर राजा बलि को ‘छिप कर’ मारने, या ‘मां सीता को त्यागने’ के प्रसंग पर भगवान राम पर सवाल उठाता है, साथ ही भगवान कृष्ण के कर्ण को मारने के लिए ‘छल’ के इस्तेमाल पर भी प्रहार करता है।
विडंबना यह है कि इन तथाकथित बुद्धिजीवियों में से किसी ने भी हजारों साल पहले मानव जीवन और आचार-विचार को अनुशासित और सुव्यवस्थित संचालित करने के लिए निर्धारित धर्म और अधर्म की अवधारणा या सिद्धांतों के मर्म को समझना जरूरी नहीं समझा। महिलाओं की मुक्ति आदि सहित उनकी परोसी सारी तुलनात्मक व्याख्याएं कथित आधुनिक विचारों से ही पोषित थीं। यह कितना विरोधाभासी है कि फर्जी खबरों की आरंभिक कड़ियों का हवाला देने के लिए वे जिस धर्मग्रन्थ महाभारत का जिक्र करते हैं, उसी महाकाव्य के अन्य किरदारों, जैसे नारद मुनि को पत्रकारिता का प्रणेता और कुरू राजा धृतराष्ट्र के सारथी संजय को टेलिविजन रिपोर्टर बताने वाले अन्य समूह का वे खूब माखौल उड़ाते हैं।
-के जी सुरेश
महाकाव्यों, इतिहास, संस्कृति, परंपराओं, धर्म और कर्मकांडों के प्रसंगों का यह सुविधाजनक चुनाव उनकी अज्ञानता नहीं, बल्कि भारतीयता या उसके सनातन अतीत से संबंधित गहन ज्ञान को जानबूझकर और सुनियोजित तरीके से धूमिल करने के अभियान का हिस्सा है।
कुटिल मंसूबे
उनकी वही ग्रन्थि कोविड 19 की दूसरी लहर के घरेलू और वैश्विक मीडिया कवरेज, दोनों में स्पष्ट दिखाई दे रही है। हाल ही में, सरकार विरोधी, मोदी-विरोधी और संघ परिवार विरोधी पूर्वाग्रह के लिए मशहूर प्रमुख टीवी चैनलों में से एक ने उत्तर प्रदेश में कोविड 19 की स्थिति पर एक ‘ग्राउंड रिपोर्ट’ पेश करते समय राज्य सरकार की विफलता दशार्ने के लिए उस गांव के लोगों की दुश्वारियों की तस्वीरें पूरी नाटकीयता से प्रस्तुत कीं जहां पूर्व सरसंघचालक दिवंगत रज्जू भैया का जन्म हुआ था।
यहां बहस का मुद्दा यह नहीं है कि राज्य सरकार की गलती है या नहीं, बल्कि सवाल यह है कि रिपोर्टर की प्रशासन की विफलता दशार्ने के लिए एक ऐसे गांव के खराब हालात दिखाना जहां एक पूर्व स्वयंसेवक संघ प्रमुख का जन्म हुआ हो, वास्तव में क्या साबित करने की कवायद थी? संघ ने राज्य सरकार से कभी इस गांव को बहुत महत्वपूर्ण दर्जा देने की अपेक्षा नहीं की। यह गांव अपनी उपलब्धियों और विफलताओं सहित देश के अन्य हजारों गांवों की तरह ही है। इस महामारी में खास और आम, अमीर और प्रभुतासंपन्न सभी समान रूप से मुश्किलों का सामना कर रहे हैं। ऐसे में कोई कैसे उम्मीद कर सकता है कि एक गांव कोविड के प्रभाव से बच जाएगा, क्योंकि वहां आरएसएस के एक पूर्व प्रमुख का जन्म हुआ था? इस तरह से गढ़ी गई खबरों से उनके कुटिल मंसूबे साफ दिखाई दे रहे हैं।
बंगाल में चुनाव के बाद की हिंसा का कवरेज भी इससे अलहदा नहीं था। सीताराम येचुरी और सुभाषिनी अली जैसे वामपंथी नेताओं सहित शशि थरूर जैसे कांग्रेस नेता भी अपने ट्वीट्स के जरिए उनकी पार्टी के कार्यकतार्ओं के साथ टीएमसी के लोगों के हिंसापूर्ण और उग्र व्यवहार के बारे में खुलकर बताया लेकिन खबरों को सूंघ कर सुर्खियां बनाने वाले टीवी चैनलों पर इस घटना के बारे में सन्नाटा पसरा रहा।
एक अलग ही पटकथा गढ़ी जा चुकी थी- निराश भाजपा अपनी हार पचा नहीं पाई और दीदी की ‘ऐतिहासिक’ जीत से ध्यान भटकाना चाहती है। आज की नेता ममता हैं जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्थान लेने की काबिलियत है। जिस देश में देवी दुर्गा की पूजा की जाती है, वहां बच्चों को मार दिया जाता है, महिलाओं के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार किए जाते हैं फिर भी कहानी को बदला नहीं जाता, क्योंकि भारत जो कल सोचेगा, वह बंगाल आज सोचता है।
अलबत्ता, एक बदलाव दिखा कि इस बार दोषारोपण चुनाव आयोग पर हुआ न कि गरीब-वंचित वर्गों और सबके अजीज बलि के बकरे -इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम पर।
पूर्वाग्रहग्रस्त रिपोर्टिंग
भारत में कोविड-19 की स्थिति संबंधी पश्चिमी रिपोर्टिंग में भी इसी तर्ज पर पटकथा लिखी गई, क्योंकि यह उनकी भारत संबंधी अपनी व्याख्या पर बड़ा सही बैठता है जिसमें वे भारत को सपेरों, अंधविश्वासों और बैलगाड़ियों के देश के रूप में पेश कर खूब दर्शक बटोरते हैं। एक उभरते, प्रगतिशील और नए विकास की ओर अग्रसर शक्तिशाली भारत की तस्वीर उनके निहित स्वार्थों और मंसूबों पर पानी फेरती है।
इसलिए, श्मशान घाटों और कोविड हाटस्पॉट्स पर ही ज्यादा से ज्यादा खबरें बना रही पश्चिमी मीडिया की नजरें अगर कुछ और खोजती भी हैं तो वे गोबर और मूत्र जैसे अपने पसंदीदा विषय और कोरोना देवी की पूजा करने वाले मुट्ठी भर लोगों और खासकर अरुंधति रॉय और राणा अय्यूब जैसे शासन विरोधी नामों पर जा टिकती हैं जो कश्मीर की स्वतंत्रता की मांग सहित अन्य कई मुद़दों पर देश के विरुद्ध आवाज उठाते रहे हैं। यही लोग भारत की स्थिति पर कॉलम लिखने वालों की उनकी फेहरिस्त में भी शामिल हैं।
चलिए माना, श्री शेखर गुप्ता, जब आप कहते हैं कि विदेशी मीडिया भारत में हो रही घटनाओं पर आंखें बंद कर के नहीं बैठा, लेकिन क्या विदेशी मीडिया को पता नहीं है कि जिन लोगों को वे कॉलम और लेख लिखने का काम सौंप रहे हैं, वे निष्पक्ष पत्रकार नहीं? हकीकत तो यह है कि वे अपने पूर्वाग्रह और पक्षपातपूर्ण रवैये के लिए ही ज्यादा मशहूर हैं। यहां पेश उदाहरणों से उनकी नीयत बिल्कुल साफ उजागर होती है।
एक किताब से प्रसिद्धि हासिल करने वाली अरुंधति रॉय ने वाशिंगटन पोस्ट में एक लेख में कहा है कि भारत में जो दिख रहा है वह सिर्फ एक ‘आपराधिक लापरवाही’ नहीं, बल्कि ‘पूरी मानवता के खिलाफ एक अपराध’ है।
‘शासन व्यवस्था ध्वस्त नहीं हुई, दरअसल कोई ‘व्यवस्था’ थी ही नहीं। मौजूदा सरकार ही नहीं, इसके पहले सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार ने भी जानबूझकर कर चिकित्सा संबंधी जो एक साधारण बुनियादी ढांचा था, उसे भी मटियामेट कर दिया था। ऐसी जर्जर सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं वैसे हालात में लोगों की सहायता करने में बुरी तरह विफल होती हैं तब देश पर किसी महामारी का प्रकोप हो जाए। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1.25 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करता है, जो दुनिया के अधिकांश देशों, यहां तक कि सबसे गरीब देशों के मुकाबले भी बहुत कम है।
टाइम मैगजीन में अपने लेख में राणा अय्यूब लिखती हैं, भारत में महामारी की दूसरी लहर जितना भयावह मंजर ‘देश में कभी नहीं दिखा था’, इसकी जिम्मेदार मुख्य रूप से वही ‘बहुमत वाली सशक्त सरकार है जिसने सभी चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया।’
अरुंधती लिखती हैं, ‘जनवरी के बाद से ही मोदी विभिन्न राज्यों में बड़े पैमाने पर राजनीतिक रैलियों का आयोजन करते रहे हैं और कुंभ मेले जैसे धार्मिक आयोजनों को भी मंजूरी दी है, उधर उनकी पार्टी ने भारत के अल्पसंख्यकों को हाशिए पर डालते हुए अपने लिए एक खास जनमत तैयार करने का अभियान जारी रखा। पश्चिम बंगाल में मोदी चुनाव अभियानों में हिंदुओं को पड़ोसी राज्यों के मुस्लिम प्रवासियों से खतरे के प्रति आगाह किया गया। अमित शाह ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री पर मुस्लिम हितों को खुश करने का आरोप लगाया है।’
उन्होंने आरोप लगाया कि वैक्सीन रोलआउट मोदी के लिए एक वैश्विक प्रचार अभियान बन गया, जबकि कई भारतीयों के मन में उनके असर और दुष्प्रभावों को लेकर आशंकाएं थीं।
इसके अलावा, वाशिंगटन पोस्ट में लिखते हुए सुमित गांगुली ने मोदी सरकार पर सावधानी न बरतने और बेहद गैरजिम्मेदाराना फैसलों के परिणामस्वरूप महामारी की दूसरी लहर को न्योता देने का आरोप लगाया जिससे देशभर में तबाही का माहौल है। वह आगे सरकार पर आरोप लगाते हुए लिखते हैं, ‘नीतियों के निर्धारण में हुई विफलता के पीछे कई अहम कारक थे जो पिछले कुछ समय से संकेत दे रहे थे-लापरवाहीपूर्ण रवैया, चुनाव कराने का बेमानी विचार और अविवेकी योजनाएं। एक सरकार जो 2014 में पहली बार एक मजबूत, प्रौद्योगिकी आधारित शासन के आश्वासन और निष्क्रिय राजनीति में जीवन का संचार करने के वादे के साथ कुर्सी पर विराजमान हुई, वह दूसरी पारी में उन सभी वादों के प्रति उदासीन नजर आई।’
दोहरे मानदंड
हमें उस आॅस्ट्रेलियाई खबर को नहीं भूलना चाहिए जिसमें भारत में हुई मौतों को ‘तबाही’ और ‘प्रलयंकारी’ बताया गया और जिसने ‘इंडियंस आर डाइंगङ्घ.डाइंग..डाइंग’ जैसी सनसनीखेज सुर्खियां परोसीं। यूरोप और अन्य विकसित देशों के तमाम अखबारों ने भी यही किया। वे अपने देश में हो रही मौत का मंजर दशार्ने के बजाय हमारे देश के शमशान गृहों में जल रही चिताओं के मार्मिक दृश्य दिखाने में ज्यादा दिलचस्पी लेते रहे।
पर जरा उस घटना को भी याद करें जब महामारी की पहली लहर चरम पर थी तो आस्ट्रेलिया में कैसे हजारों की संख्या में लोग सभी मानदंडों का उल्लंघन करते हुए बौंडी समुद्र तट पर इकट्ठा हो गए थे। हैरानी की बात है उन पर कोई हो-हल्ला नहीं हुआ और सुर्खियों में किन दृश्यों को तरजीह दी गई? कुंभ के दौरान हरिद्वार में स्नान करने वाले नग्न हिंदू साधुओं की तस्वीरों को, क्योंकि यही उनकी पटकथा के लिए फायदेमंद है। अपने देश के कब्रिस्तानों या ताबूतों की कमी की खबर पेश करने के लिए शायद ही उनके अंदर का रिपोर्टर जागता होगा। एक मजबूत स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का दावा करने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका में जब हजारों लोग मर रहे थे और भारत दुनिया भर के देशों में हाइड्रोक्सीक्लोरोक्विन भेज रहा था तब ‘अमेरिकंस आर डाइंगङ्घ.डाइंग..डाइंग’ जैसे किसी शीर्षक ने सनसनी नहीं फैलाई।
हम सभी जानते हैं कि बीबीसी ने फॉकलैंड युद्ध की रिपोर्ट करने में किस तरह की भूल की थी। वैसे ही अमेरिकी मीडिया ने अफगानिस्तान में अमेरिकी सैन्य कार्रवाई को ‘आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक लड़ाई’ के तौर पर रिपोर्ट किया। यहां तक कि 1976 में जब सूरीनाम को आजादी मिली, तो एक प्रमुख अमेरिकी अखबार का शीर्षक था ‘सूरीनाम इंडिपेंडेंस नॉट टू इम्पैक्ट यूएस बॉक्साइट सप्लाई’। पिछले दशकों में दोहरे मानदंडों के ऐसे कई उदाहरण दिए जा सकते हैं, लेकिन अफसोस इस बात का है कि भारतीय मीडिया का एक उत्साही वर्ग इन खबरों को भारत और उसकी सरकार पर वैश्विक मंच से लगाए जा रहे अभियोग के रूप में पेश कर फूला नहीं समा रहा।
पूर्वाग्रहों और पक्षपातपूर्ण विचारों को परे धकेल सही और निष्पक्ष रूप से वास्तविक खबरों की रिपोर्ट करें। किसी को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि दांव पर सरकार की छवि नहीं जिसे कोई पसंद या नापसंद करे, बल्कि यह नीले पासपोर्ट की विश्वसनीयता और सम्मान का मुद्दा है और यह तभी संभव है जब हम ऋषि नारद के ‘लोक कल्याण’ के सिद्धान्त का पालन करें और नफरत के एजेंडे और फर्जी कहानियों पर आंखे बंदकर विश्वास न करें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, कुलपति, माखनलाल चतुवेर्दी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल; पूर्व महानिदेशक, भारतीय जनसंचार संस्थान,
और पत्रकारिता में उत्कृष्ट योगदान के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार से सम्मानित हैं।)
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