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हमास पर भारी पड़ता इजरायल, बौखलाए तुर्की और पाकिस्तान

by WEB DESK
May 19, 2021, 05:14 pm IST
in विश्व, दिल्ली
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इजरायल और फिलिस्तीन के बीच घमासान लड़ाई चल रही है। इसमें अब तक दोनों देशों के लगभग 300 लोग मारे जा चुके हैं। इनमें ज्यादातर हमास के आतंकवादी और फिलिस्तीन के नागरिक हैं। इजरायल के रवैए से लग रहा है कि वह इस बार हमास जैसे संगठन को खत्म करके ही मानेगा

इन दिनों इजरायल और फिलिस्तीन के बीच हो रहे युद्ध को लेकर पूरी दुनिया मुख्य रूप से दो खेमों में बंट गई है। अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन और यूरोपीय देश हैं, जो खुलकर इजरायल के साथ खड़े हैं, वहीं इस्लामी देश फिलिस्तीन के लिए आवाज बुलंद कर रहे हैं। एक दिलचस्प बात यह भी देखने को मिल रही है इस मामले में इस्लामी देश बंटे हुए दिख रहे हैं। तुर्की, पाकिस्तान जैसे देश कुछ आक्रामक हैं, तो सउदी अरब, कतर, बहरीन जैसे देश मध्य मार्ग अपना रहे हैं, जो फिलिस्तीन के लिए एक झटका है। वहीं भारत जैसे कुछ देश नपी—तुली प्रतिक्रिया देकर मामले को खत्म करने की सलाह दे रहे हैं। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टी.एस. तिरुमूर्ति ने कहा, “भारत इस संघर्ष के द्विपक्षीय समाधान के प्रति अपनी अटूट प्रतिबद्धता दोहराता है।” लेकिन मानो इन सबसे बेखर इजरायल पूरी ताकत से आतंकवादी संगठन हमास को खत्म करने के लिए जुटा है।

ऐसे हुई शुरुआत
संकट का मौजूदा दौर 6 मई, 2021 को तब शुरू हुआ जब फिलिस्तीनियों ने पूर्वी यरुशलम के पड़ोस की बस्ती शेख जर्राह से छह फिलिस्तीनी परिवारों को बेदखल करने के इज़रायली सर्वोच्च न्यायालय के एक संभावित फैसले के विरोध में यरुशलम में प्रदर्शन शुरू किया। मुद्दा था, अल अक्सा मस्जिद के पास आठ यहूदी परिवारों का अपने घरों पर अधिकार पाने का। इन परिवारों के पास 1875 से पहले के कागजात हैं, जिनके मुताबिक फिलिस्तीन पर ब्रिटिश कब्जे के दौरान बाहर निकाले जाने से पहले वे उन घरों के मालिक थे। बाद में वे घर फ़िलिस्तीनी मुसलमानों के कब्जे में चले गए थे और वे इन घरों पर दावा करते हुए इनका ‘उचित’ किराया देने से भी इनकार कर रहे थे। अयोध्या की तरह, जहां हिंदू भगवान राम के पवित्र जन्म स्थल पर अपना अधिकार साबित करने के लिए संघर्ष करते रहे थे, यहूदी इस बात पर जोर देते रहे कि उनके पास स्वामित्व के कागजात हैं। इस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के पहले ही फिलिस्तीनियों ने अल अक्सा मस्जिद के पास पथराव किया। इससे आगे का घटनाक्रम अपने गलत अनुमानों के आधार पर हमास की ओर से इज़रायल पर दागे गए रॉकेटों के कारण संघर्ष बढ़ने का परिणाम है।

यह भी ध्यान रखना दिलचस्प है कि जिस बात की शुरुआत यरूशलम में हुई थी वह गाजा पट्टी से पड़ोसी इज़रायली शहरों अशकलोन, अशदोद और बीर्शेबा पर हमास के रॉकेट हमलों के साथ आगे बढ़ी। अमेरिका द्वारा आतंकवादी करार दिए गए संगठन हमास ने 10-16 मई के बीच गाजा पट्टी से इजरायल पर 2,800 रॉकेट दागे। यद्यपि यह यहूदियों और इज़रायलियों के लिए कोई नई बात नहीं है, लेकिन हमास की ओर से संघर्ष तेज किए जाने के समय का फिलिस्तीन में आगामी राष्ट्रपति चुनावों के साथ बहुत करीबी रिश्ता है। हमास अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है और आतंकवादी संगठन के इस दुस्साहस को उसकी घटती साख पुनर्स्थापित करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है।

पुराना है संघर्ष
यरुशलम लंबे समय से चले आ रहे इजरायल-फिलिस्तीनी संघर्ष के केंद्र में रहा है। 1948 में, पश्चिमी यरुशलम इज़राइल द्वारा कब्जा कर अपने में मिला ली गई भूमि का हिस्सा था, जबकि पूर्वी यरुशलम, जिसमें पुराने शहरी क्षेत्र शामिल हैं, पर जॉर्डन ने कब्जा कर लिया था। 1967 के युद्ध के दौरान, इज़राइल ने पूर्वी यरुशलम पर भी कब्जा करके इसे अपने इलाके में मिला लिया।

फ़िलिस्तीनियों का कहना है कि पूर्वी यरुशलम को फ़िलिस्तीनी राज्य की राजधानी होना चाहिए। दूसरी ओर, इज़राइली सरकार पूरे शहर को अपने देश की “अविभाज्य राजधानी” के रूप में देखती है। हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने 1997 की एक रिपोर्ट में यरुशलम को एक ऐसे क्षेत्र के रूप में इंगित किया है जो “दुनियाभर में तीन एकेश्वरवादी पंथों के लाखों श्रद्धालुओं के लिए अत्यधिक धार्मिक महत्व रखता है।” इस प्रकार वर्तमान विवाद भी इस क्षेत्र में लंबे समय से चल रहे संघर्ष की श्रृंखला की एक और कड़ी भर है। यरुशलम की स्थिति के अलावा, वेस्ट बैंक में यहूदी बस्तियां भी इज़रायल और फिलिस्तीन के बीच विवाद की जड़ हैं।

भले ही आप इजरायल के साथ हैं या नहीं, लेकिन उससे बहुत सारी बातें सीखने की बात पर आप सहमत होंगे। इजरायलियों की राष्ट्रभक्ति गजब की है। वे अपने देश के लिए वह सब कुछ करते हैं, जो उन्हें करना चाहिए। इसे समझने के लिए दो उदाहरण ही काफी हैं। उल्लेखनीय है कि कुछ दिन पहले फ़िलिस्तीनी की एक अभिनेत्री माइसा अब्द एल्हादी फ़िलिस्तीन के पक्ष में हाइफ़ा में विरोध प्रदर्शन कर रही थी। बताया जाता है कि इस पर इजरायली पुलिस ने उसके पैर में गोली मार दी। संदेश साफ है। केवल भारत में ही आप लोकप्रिय व्यक्तित्व होते हुए भी जहर उगलते हुए अपने देश की बुराई कर सकते हैं। एक अन्य घटना में, अल जज़ीरा और एसोसिएटेड प्रेस को एक घंटे में गाज़ा पट्टी में अपने कार्यालय खाली करने को कहा गया, क्योंकि गाजा मीडिया टावर पर बमबारी की जानी थी। गाजा मीडिया टावर में फिलिस्तीनी संचार माध्यमों का गढ़ था, जो फर्जी खबरें फैला रहा था। मतलब कि, जब बात राष्ट्रीय सुरक्षा की हो, तो वहां प्रेस तक को नहीं बख्शा जाता।

भारत और इजरायल के बीच राजनयिक संबंध
भारत और इज़राइल के स्वतंत्र होने के बाद के इतिहास में कई समानताएं होने के बावजूद दोनों के बीच पूर्ण राजनयिक संबंध नहीं थे। दोनों देश पूर्व ब्रिटिश उपनिवेश थे, दोनों ही अलोकतांत्रिक क्षेत्रों में एकमात्र लोकतंत्र थे, दोनों इस्लामी आतंकवाद के स्थायी शिकार थे और शत्रुता रखने वाले पड़ोसी-इस्लामी राष्ट्रों के साथ सीमाएं साझा करते थे। फिर भी, भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त करने के तुरंत बाद यहूदी राज्य के प्रति यदि शत्रुतापूर्ण नहीं, तो असंवेदनशील रुख अपनाया था। हालांकि भारत ने 1950 में इज़राइल को आधिकारिक रूप से मान्यता दी, लेकिन दोनों देशों के बीच पूर्ण राजनयिक संबंध 29 जनवरी, 1992 को ही स्थापित हुए थे। इस राजनीतिक भेदभाव के पीछे शीतयुद्ध की राजनीति में भारत का अमेरिका-विरोधी खेमे में होना और इजरायल-अमेरिका के बीच प्रगाढ़ संबंधों के अलावा भारत की बड़ी मुस्लिम आबादी के अलग-थलग होने के डर को दो प्रमुख कारणों के रूप में देखा जा सकता है। इसके अलावा, नेहरू और बाद में इंदिरा गांधी की भी इच्छा थी कि वे अरब जगत के साथ मजबूत संबंध बनाए रखें।
दुर्भाग्यवश भारत के अधिकांश सेकुलर नेताओं के विचार यहूदी-विरोधी थे जिसके कारण वे फ़िलिस्तीन में यहूदी राज्य के निर्माण की आकांक्षाओं की निंदा करते हुए फिलिस्तीन के विभाजन की तुलना पाकिस्तान के निर्माण से करते थे।

सकरी बस्तियों की उलझी कहानी
बाहरी दृष्टिकोण से बस्तियों का मसला पूरे गतिरोध में सबसे जटिल और उलझाऊ है। ये बस्तियां 1967 के मध्य पूर्व युद्ध में इज़रायल के कब्जे में आए इलाकों में उसके द्वारा स्थापित सामुदायिक बस्तियां हैं। ऐसी बस्तियों में वेस्ट बैंक, पूर्वी यरूशलम और गोलन पहाड़ियों पर बसाई बस्तियां शामिल हैं। 1948-49 के अरब-इज़रायल युद्ध के बाद से वेस्ट बैंक और पूर्वी यरुशलम पर पहले जॉर्डन का कब्जा था। इज़राइल ने 1967 के युद्ध में मिस्र से जब्त की गई गाज़ा पट्टी में बस्तियां भी स्थापित कीं, लेकिन 2005 में इस क्षेत्र से हटने पर उसने उन्हें नष्ट कर दिया। इसने 1967 में मिस्र से जीते सिनाई प्रायद्वीप में भी बस्तियां बनाईं, लेकिन 1982 में काहिरा के साथ हुए शांति समझौते के तहत इन बस्तियों को हटा दिया। 1967 के युद्ध में सीरिया से छीनी गई गोलन पहाड़ियों पर भी कई बस्तियां हैं।

भारत से इजरालियों के संबंध
ऐतिहासिक दृष्टि से भारत सभी सभ्यताओं और संस्कृतियों का आश्रय स्थल रहा है। जब 597 ईसा पूर्व में बेबीलोन ने इज़राइल पर हमला किया, जिसे ‘यरूशलम की घेराबंदी’ भी कहा जाता है, तो यहूदी दुनिया के विभिन्न हिस्सों में चले गए। बहुत से यहूदियों ने भारत के पश्चिमी तट पर शरण ली। इन 2000 वर्षों में, यहूदी भारत में बहुत सौहार्द और शांति से रहते आए हैं। जब टीपू सुल्तान ने कोचीन में यहूदी आराधनालय (साइनागॉग) को अपवित्र करना चाहा था, तो केरल के चेरा राजा ने अपना जीवन गंवा कर भी भारत में यहूदियों और उनके मंदिरों की रक्षा की। दिलचस्प बात यह है कि किसी भी भारतीय भाषा में यहूदी-विरोधी के लिए कोई शब्द नहीं है, जिससे पता चलता है कि यहूदी भारत में कितने सौहार्द से रहते थे। दुनिया के ज्यादातर दूसरे हिस्सों में यहूदी मूल के लोगों को मुश्किल स्थितियों और भेदभाव का सामना करना पड़ा। इज़राइल में रहने वाले भारतीय यहूदी इस बात पर गर्व करते हैं कि भारत में कभी यहूदी-विरोधी माहौल नहीं था। भारत में यहूदियों का यह सकारात्मक अनुभव दोनों देशों के बीच विश्वास बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
बहुत कम लोग जानते होंगे कि कैसे नवानगर (अब जामनगर) के महाराजा दिग्विजयसिंहजी ने सताए जाने के डर से पोलैंड से भागे 1,000 से अधिक यहूदी बच्चों की जान बचाई थी।
इजरायल में रहने वाले भारतीय मूल के 80,000 से अधिक यहूदियों को बेने इजरायल के नाम से जाना जाता है। ये लोग इजरायल को अपनी पितृभूमि कहते हैं, लेकिन भारत को अपनी “मातृभूमि” मानते हैं। वे कहते हैं, हम भले खून से यहूदी हैं, लेकिन हमारे दिल अभी भी भारतीय हैं। यह सर्वविदित है कि भारत में रहने वाले यहूदी लोगों को किसी भी भेदभाव या असहिष्णुता का सामना नहीं करना पड़ा।

इसी के परिणामस्वरूप भारतीय विदेश नीति फिलीस्तीन समर्थक थी, जिसमें इजरायल-फिलिस्तीनी संघर्ष को दोनों पक्षों के हितों से जोड़ कर देखा जाता था। इसी के चलते भारत ने इज़राइल को पूर्ण राजनयिक मान्यता देने से न केवल इनकार कर दिया था, बल्कि वह संयुक्त राष्ट्र में इसके सबसे नियमित आलोचकों में से एक था। अफसोस की बात है कि भारत का यह राजनयिक मनमुटाव लगभग 40 वर्ष तक चला। इन सभी बाधाओं के बावजूद, पोखरण में ‘ऑपरेशन स्माइलिंग बुद्धा’ के बाद 1998 में भारत के साथ खड़ा होने वाला एकमात्र राष्ट्र इज़रायल था।

वर्तमान में, दोनों देशों के बीच व्यापक आर्थिक, सैन्य और सामरिक संबंध हैं। इजरायल ने भारत के साथ रक्षा, साइबर सुरक्षा, तेल और गैस, कृषि और अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में साझेदारी की है। भारत इजरायल से सैन्य उपकरणों का सबसे बड़ा खरीदार है, और रूस के बाद इज़रायल भारत का दूसरा सबसे बड़ा रक्षा आपूर्तिकर्ता है। भारत इज़रायल का दसवां सबसे बड़ा व्यापार भागीदार और तीसरा सबसे बड़ा एशियाई व्यापारिक भागीदार है।

हाइफा को आजाद कराया भारतीयों नेहाइफ़ा की लड़ाई भी इतिहास का एक और महत्वपूर्ण बिंदु है जो दोनों देशों के लोगों को जोड़ता है। 1918 में हाइफ़ा को आज़ाद कराने में भारतीय सैनिकों की भूमिका भारतीय और इज़रायली स्मृतियों का हिस्सा है। उस समय इज़रायल ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा था। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सैनिक ब्रिटिश सेना के हिस्से के रूप में संयुक्त सेनाओं की ओर से केंद्रीय सेनाओं के विरुद्ध लड़ रहे थे। बंदरगाह शहर हाइफा को आजाद कराने में भारतीय सैनिकों ने अहम भूमिका निभाई। ब्रिटिश शाही सेना की 15वीं घुड़सवार ब्रिगेड तीन रेजिमेंटों से बनी थीं – भारतीय रियासतों की जोधपुर रेजिमेंट, मैसूर रेजिमेंट और हैदराबाद रेजिमेंट। भारतीय अधिकारियों की कमान में जोधपुर रेजिमेंट और मैसूर रेजिमेंट के 400 सैनिकों ने हाइफा शहर को रौंद रहे जर्मन, तुर्क और ऑस्ट्रियाई संयुक्त सेना के 1,500 से अधिक सैनिकों पर हमला करके वहां माउंट कार्मेल पर कब्जा कर लिया और बहाइयों के आध्यात्मिक नेता को मुक्त करा कर 23 सितंबर, 1918 को हाइफ़ा को स्वतंत्र करा दिया। भाले और तलवारों से लैस भारतीय घुड़सवार रेजीमेंटों ने मशीनगनों और तोपों से लैस ऑटोमन सेना का बहादुरी से सामना करते हुए उन्हें हाइफ़ा से सफलतापूर्वक बाहर निकालने में कामयाबी हासिल की थी।
-सिद्धार्थ दवे
(लेखक इजरायल मामलों के जानकार हैं)

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