मीडिया में नियमन संस्थाओं के कमजोर पड़ने से अराजकता व्याप्त है। पेड न्यूज से लेकर एकाधिकार तक तक के कई रोग मीडिया को लग गए हैं। इस वजह से मीडिया में नीति-नियमन अपरिवहार्य हो गया है। चूंकि ये रोग पूरी मीडिया में लग गये हैं, इसलिए स्वनियमन आंख का धोखा ही है। अब इस बात की प्रबल संभावना है कि सरकार जल्द ही मीडिया काउंसिल का गठन करे।
हमारे यहां पत्रकारिता को आदर्शों की मिसाल के तौर पर जाना जाता है। पत्रकारिता कुछ उच्च आदर्शों की स्थापना के लिए होती है। पहले पत्रकारिता आजादी के लिए होती थी और आजादी के बाद भारतीय मूल्यों की स्थापना के लिए होती है। इस समय पत्रकारिता की जो परंपरा चालू है, उसमें अराजकता के कारण ये आदर्श लुप्त हो गये हैं। जब नियमन की संस्थाएं कमजोर पड़ीं तो अराजकता फैलने लगी। नियंत्रण अलग चीज है और नियंत्रण तानाशाही को जन्म देता है। लेकिन नियमन लोकतंत्र का पर्याय है। इसलिए मैं नियमन की बात कर रहा हूं। यदि नियमन बन जाएगा तो धीरे-धीरे संस्थाएं भी बदलने लगती हैं। आज कोई भी नियमन नहीं है, इसलिए मनमानी है। पत्रकारों के प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है। यह प्रशिक्षण है बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि लंबी गुलामी के बाद आज भी मानसिक गुलामी बनी हुई है। गुलामी का परोक्ष प्रभाव यह है कि आज भाषा के बारे में कोई चेतना नहीं है, संस्कृति की कोई चेतना नहीं है। अभी तो कोई मार्ग ही नहीं है कि कहां जाना है। इस वजह से मीडिया में अराजकता है। नियमन इसलिए जरूरी है कि यह कहां जाना है, उसका मार्ग सुनिश्चित करता है। यही वह समस्या है जो दशकों से बनी हुई है।
नियमन का पहला चरण
स्वाधीन भारत में नीति-नियमन के इतिहास के दो चरण हैं। पहले चरण को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है, जबकि वह न केवल बहुत महत्वपूर्ण है बल्कि अनेक तरह के बने हुए भ्रम निवारण में सहायक भी है। संविधान में नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जितनी दी गई है, उसमें ही प्रेस की स्वतंत्रता का स्थान है। संविधान के अनुच्छेद-19 (1)(ए) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नागरिक को प्राप्त है। संविधान जब लागू हुआ तो इस अधिकार के धुआंधार उपयोग से प्रधनमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की शांति भंग हो गई। उन्होंने संविधान में संशोधित कराए जिससे अभिव्यक्ति पर कुछ अंकुश लगाए गए। अनुच्छेद-19 (2) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकार जिसे तर्कसंगत समझती है, वह रोक लगा सकती है। यह संशोधन नेहरू जी ने ही कराया। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जगदीश शरण वर्मा का कहना है, भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)ए के अंतर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित अधिकार दिए गए हैं। लेकिन साथ ही उप-अनुच्छेद दो में इससे संबंधित व्यवस्था की गई है कि किसी भी सभ्य समाज में किसी को भी असीमित अधिकार नहीं दिए जा सकते। निश्चित रूप से यह तर्कसंगत पाबंदी का विषय हो सकता है। इस तरह अनुच्छेद 19 के अंतर्गत कुछ ऐसी व्यवस्थाएं हैं जो तर्कसंगत पाबंदी से संबंधित हैं। इन पाबंदियों के संदर्भ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता समाहित है।
इसका प्रभाव और परिणाम जो हुआ, उसे याद रखने की जरूरत है। अंग्रेजी जमाने की भारतीय दंड संहिता की धारा 124(ए) पुन: अस्तित्व में आ गई। इसमें राजद्रोह को परिभाषित किया गया है। इस पर विवाद है और वह बना रहने वाला है कि सरकार की स्वस्थ आलोचना करना और सही बातें लोगों के बीच लाना राजद्रोह है या नहीं। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने नियंत्रण करने के लिए संविधान का संशोधन न कराया होता तो पराधीन भारत में जो राजद्र्रोह कानून अंग्रेजों का अस्त्र था, वह विलुप्त हो जाता। स्वाधीन भारत में उसे पुनर्जीवन मिला। यह था पहला चरण।
नियमन का दूसरा चरण
दूसरे चरण में प्रेस के नियमन की भारत सरकार ने एक व्यवस्था की जो मीडिया के बदलते स्वरूप और विस्तार से धीरे-धीरे अप्रासंगिक और अप्रभावी होती गई है। यहां आशय प्रेस परिषद से है। जब पेड न्यूज पर संसद में चिंता प्रकट की जा रही थी, उस समय राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली ने प्रेस परिषद को एक परिभाषा दी। कहा कि ‘यह संस्था तो टूथलेस टाइगर है।’ इसके मर्म यह है कि प्रेस परिषद में समय के अनुरूप परिवर्तन अपरिहार्य हो गया है। कोई नियामक संस्था अगर अप्रभावी है तो उसको सुधारने की जिम्मेदारी सरकार की ही होती है। नीति और नियमन लोकतंत्र का अभिभाज्य अंग है। किसी भी लोकतंत्र को सुचारु रूप से चलाने के लिए संवैधानिक व्यवस्था में कानून और नियम बनाए जाते हैं। सरकार का यह दायित्व है। नियंत्रण दूसरी बात होती है। वह नियमन का विलोम होता है। नीति-नियमन लोकतांत्रिक व्यवस्था में आधारभूत तत्व है। कानून और उसके नियम का दूसरा नाम ही लोकतंत्र है। नियमन लोकतांत्रिक है और नियंत्रण अंकुश का पयार्य है। अंकुश जब निरंकुश होता जाता है तो तानाशाही जन्म लेती है। इमरजेंसी (1975-1977) की भयानक निरंकुशता की याद सभी को है।
दूसरी तरफ नियमन की उचित व्यवस्था के अभाव में अराजकता पैदा होती है जो आज मीडिया के संदर्भ में दिख रही है। नीति और नियमन के लिए ही संसद है। सरकार है और अदालतें हैं। लेकिन पहल तो भारत सरकार को ही करनी चाहिए। भारत में लोकतंत्र की बहाली के बाद मोरारजी देसाई सरकार ने 1978 में दूसरे प्रेस आयोग का गठन किया। वह आयोग अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया था कि जनता सरकार गिर गई। 1980 में इंदिरा गांधी पुन: सत्ता में आर्इं। उन्होंने उस आयोग को भंग नहीं किया, पुनर्गठित कर दिया। इस तरह दूसरे प्रेस आयोग ने चार साल में अपनी रिपोर्ट दी। उस आयोग ने एक बड़ी सिफारिश की। वह यह कि मीडिया घराने अपने को दूसरे उद्योग का अंग न बनाएँ। उससे नाता तोड़ लें।
इस समय मीडिया में नीति-नियमन के लिए चार संस्थाएँ हैं। पहली प्रेस परिषद है। जिसे प्रेस की स्वतंत्रता की रक्षा और उसमें मानक के निर्धारण और निगरानी का दायित्व प्राप्त है। इसके दायरे में समाचार पत्र, पत्रिकाएं और न्यूज एजेंसियां आती हैं। दूसरी नियामक संस्था है-न्यूज ब्राडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथारिटी। इसे न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोसिएशन (एनबीए) ने बनाया है। तीसरी संस्था है-ब्राडकास्टिंग कंटेंट कंप्लेंट काउंसिल। चौथी संस्था है-न्यूज ब्राडकास्टर्स फेडरेशन।
सूचना प्रौद्योगिकी की संसदीय समिति ने सोलहवीं लोकसभा में सिफारिश की थी कि जहां न किसी कानून को बदलना है और न ही नीति निर्धारण का विषय है, ऐसे मामलों पर सैंतालीसवीं रिपोर्ट को पूरी तरह लागू करना चाहिए। लेकिन इसके अभाव में इन संस्थाओं की साख पर सवाल है। जो लोग इन संस्थाओं के कामकाज पर नजर रखते हैं, उनका कहना है कि ये अपने मूल दायित्व का निर्वाह नहीं करती। इनका मूल दायित्व है- प्रेस की स्वाधीनता, उसकी नैतिकता का पालन और पत्रकारिता का स्तर ऊंचा रखना।
हिंदू अखबार के पाठक संपादक ए.एस. पन्नीरसेलवन का यह मत है। इनसे शायद ही कोई असहमत होगा, जो आज की मीडिया से परिचित है। इन कथित नियामक संस्थाओं के बावजूद मीडिया में पेड न्यूज का धंधा खूब जोर से चल रहा है। तहलका जैसी अनैतिक और कथित खोजी पत्रकारिता पर विराम नहीं लगा है। राडिया टेप कांड के धंधेबाज पत्रकारों पर कोई आंच नहीं आई। फेक न्यूज का चलन मीडिया में छाया हुआ है। ये वे घटनाएं हैं जिनसे मीडिया की साख सिर के बल खड़ी हो गई है।
मीडिया आयोग की जरूरत
मीडिया आयोग की जरूरत है या नहीं, इसका किसी को प्रमाण चाहिए तो वह तीन अध्ययनों में उपलब्ध है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने पहला अध्ययन ट्राई (टेलीकाम रेगुलेटरी अथारिटी) से कराया। उस समय मंत्रालय को यह तय करना था कि विभिन्न कानूनों, नियमों और प्रावधानों के तहत किसे लाइसेंस दे और किसको रजिस्ट्रेशन दे। वह ट्राई से इस बारे में नीति-नियमन की सलाह चाहता था। ट्राई ने स्पष्ट सलाह दी कि हर बात के लिए नीति और नियम निर्धरित होने चाहिए। उसके मापदंड भी सुझाए। उस रिपोर्ट में चिंता प्रकट की गई थी कि तदर्थवाद के कारण मीडिया में एकाधिकारी घराने उभर रहे हैं जो लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं।
जिस समय ट्राई इन बातों का अध्ययन कर रहा था उसी समय सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कॉलेज आॅफ इंडिया, हैदराबाद से एक अध्ययन कराने का फैसला किया। उसे यह काम सौंपा गया कि वह देखे कि मीडिया में मालिकाना हक का ढांचा क्या है। अंतरराष्ट्रीय अनुभव क्या हैं और भारत में इस बारे में क्या किया जाना चाहिए। वह रिपोर्ट भी आई। उम्मीद थी कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय इन दोनों रपटों के आधर पर एक कार्ययोजना बनाएगी और उस पर व्यापक विचार विमर्श होगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। संदेह है कि मीडिया घरानों के दबाव में राजनीतिक हस्तक्षेप से उस प्रक्रिया को रोक दिया गया। लेकिन इस अध्ययन से एक चेतावनी निकली जिसका संबंध सत्ता-संपत्ति और राजनीति के त्रिकोण से है। जो लोकतंत्र को खोखला बना सकता है। चेतावनी यह है कि मीडिया में एकाधिकारी घराने अस्तित्व में आ गए हैं। वे ही मीडिया को संचालित कर रहे हैं। इससे मीडिया में विविधता और बहुलता का दायरा घट रहा है।
सवाल है कि मीडिया में एकाधिकारी प्रवृत्ति की होड़ क्यों लगी है? इसका जवाब कौन नहीं जानता! इसमें दो प्रवृत्तियाँ काम कर रही हैं। पहली का संबंध मुनाफे से है। दूसरी का लक्ष्य है, सत्ता का संरक्षण प्राप्त कर प्रतिद्वंदी को रास्ते से हटा देना। यहीं पर भारत की मीडिया की परंपरा का सवाल राह रोककर खड़ा हो जाता है। ट्राई ने बताया कि कुछ ही घराने हैं जो टीवी चैनल, रेडियो, अखबार और आॅनलाइन में अपना पसारा फैलाए हुए हैं। इसे ही एकाधिकार कहते हैं। जहां एकाधिकार होगा वहाँ प्रतिस्पर्धा नहीं रहेगी। तो लोकतंत्र का क्या होगा? ट्राई की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि मीडिया में मुनाफा का अनुपात 17 प्रतिशत रहेगा। कोरोना की महामारी से पहले यही रफ्तार थी। इस दौरान कोई अध्ययन नहीं हुआ है। लेकिन जहाँ पूरी अर्थव्यवस्था में भारी भूकंप है वहां मीडिया में उसका दुष्प्रभाव उस स्तर पर नहीं है। एक अनुमान है कि इस समय भी मीडिया में मुनापफा और खासकर प्रिंट में 7 प्रतिशत बना हुआ है।
मीडिया के 11 रोग
ट्राई की रिपोर्ट में छिपा सत्य यह है कि मीडिया में इन दिनों एक सामाजिक बुराई आ गई है। मीडिया इन दिनों कारपोरेट घरानों का खंभा हो गया है। हम जानते हैं कि कारपोरेट घराने एक ही लक्ष्य से प्रेरित होते हैं। वह मुनाफा होता है। उनकी कार्यशैली में तटस्थता, निष्पक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों का अभाव होता है। इसीलिए हमारी मीडिया में कम से कम ये ग्यारह रोग लग गए हैं। एक-पेड न्यूज। दो-पेड चैनल। तीन-कारपोरेट और पॉलिटिकल लॉबिंग। चार-खबरों में राजनीतिक भेदभाव। पांच-गैर जिम्मेदाराना रिपोर्टिंग और सनसनी पर जोर। छ:-गैर बराबरी को बढ़ावा। सात-विदेशी पूंजी का दुष्प्रभाव। आठ-खबरों को दबाना। नौ-मानवाधिकार की उपेक्षा। दस-एकाधिकारी घरानों की मनमर्जी और सरकार पर धौंस। ग्यारह-फेक न्यूज। इससे मीडिया की साख पर विपदा के बादल छा गए हैं। मीडिया इन रोगों के कारण अमावस की रात काट रहा है। उसे पूर्णिमा के चाँद की प्रतीक्षा है। ट्राई की रिपोर्ट और दूसरी रिर्पोटें इन रोगों की पहचान करती हैं। मीडिया आयोग की जरूरत निदान और समाधन के लिए है, अगर उसका गठन हो और उसे ये संदर्भ जाँच के लिए दे दिए जाएं।
पेड न्यूज और मीडिया की साख
‘पेड न्यूज’ पर सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी संसद की स्थाई समिति की 47वीं रिपोर्ट मीडिया को आइना दिखाने वाली है। इस रिपोर्ट की कई विशेषताएं हैं। पूरी रिपोर्ट पढ़ने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ‘पेड न्यूज’ के बारे में जानकारी जितनी है, उससे कहीं ज्यादा इसका फैलाव हो गया है। इसे रोकने के लिए सरकार को जो कदम उठाने चाहिए, उससे वह बच रही है। क्या सरकार का ढुलमुल रवैया मीडिया के एकाधिकारी घरानों के दबाव के कारण है? इसका भी जवाब ‘हां’ में रिपोर्ट में जगह-जगह मिल जाता है। समिति ने पाया है कि पिछले दो दशकों के दौरान मीडिया में कारपोरेट घराने बने हैं और बढ़े हैं। वे सिर्फ मुनाफे से प्रेरित हैं मीडिया की स्वतंत्रता, स्वायत्तता और साख में इसलिए कमी आई है, क्योंकि संपादक की संस्था नगण्य हो गई है। ‘पेड न्यूज’ एक रोग है। भ्रष्टाचार तो है ही। ‘पेड न्यूज’ के अनेक प्रकार हैं। समाचार और विज्ञापन के बीच अंतर जैसे-जैसे कम हुआ है वैसे-वैसे ‘पेड न्यूज’ बढ़ा है। समिति की सलाह मानकर सरकार यह प्रबंध कर सकती है कि विज्ञापन का जो अंतर कम हो गया है, वह दूर किया जा सके और उसके लिए एक तंत्र बने। पहली जरूरत यह है कि ‘पेड न्यूज’ की एक व्यापक परिभाषा हो। यह काम कौन करे? जब मीडिया पूरी तरह ‘पेड न्यूज’ के धंधे में लिप्त हो तो यह काम सरकार का है कि वह पहल करे। यह एक कानून से संभव है। समिति ने सरकार को इसके लिए कदम उठाने की सलाह दी है और कहा है कि वह अपनी कार्रवाई से अवगत कराए।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि ‘पेड न्यूज’ को प्रमाणित कैसे किया जाए? इस बारे में समिति का सुझाव है कि ‘मंत्रालय एक नियामक निकाय बनाए।’ यह निकाय शिकायतों पर विचार करे। समिति ने इस पहलू पर भी ध्यान दिया है और तथ्य एकत्र किए हैं कि ‘पेड न्यूज’ के कारण क्या हैं। वह इस नतीजे पर पहुँची है कि मीडिया के संपादकों की भूमिका का क्षय हुआ है। इस अर्थ में संसद की यह पहली रिपोर्ट है जो संपादक संस्था के क्षरण पर चिंता प्रकट कर रही है। आजादी के बाद पहले और दूसरे मीडिया आयोग की सिफारिशों पर मीडिया के लिए आंतरिक मयार्दाएँ बनी थीं। वे टूट गई हैं। पहली बार उनकी ओर संसद की इस समिति ने स्पष्ट शब्दों में ध्यान खींचा है। यह बताया है कि बाजारवाद के इस दौर में पत्रकारों की आजादी छिन गई है। समिति ने भी ‘मीडिया आयोग’ की आवश्यकता बताई है। ‘मीडिया कंपनियों और कारपोरेट एंटिटीज के बीच निजी संधियां ‘पेड न्यूज’ की सर्वाधिक खतरनाक अभिव्यक्ति है। यह परिदृश्य पत्रकारिता की नैतिकता का सरेआम उल्लंघन करता है।’ समिति ने अपनी जांच में क्रास मीडिया होल्डिंग को भी बड़ा कारण माना है। इससे एकाधिकार बढ़ता है। सूचना के मुक्त प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है। एक बड़ी विचित्र-सी बात है कि ‘पेड न्यूज’ को रोकने के लिए जब भी कानूनी प्रावधान करने के सुझाव आते हैं, तब सरकार और मीडिया घरानों का एक ही तर्क होता है। यह कि प्रेस की स्वतंत्रता बनी रहनी चाहिए। इसलिए स्वनियमन को रामबाण बताया जाता है। समिति ने भी अपनी जांच में पाया कि स्वनियमन आंख का धोखा है।
प्रौद्योगिकी मंत्रालय की जो बारहवीं रिपोर्ट अगस्त 2015 में आई, वह बताती है कि 47वीं रिपोर्ट पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने क्या-क्या कदम उठाए। इस स्थाई समिति के अध्यक्ष अनुराग सिंह ठाकुर थे। समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस बात पर अप्रसन्नता प्रकट की है कि सूचना प्रसारण मंत्रालय ने मीडिया आयोग के गठन की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया है। लेकिन मीडिया की साख तभी कायम होगी जब इन प्रश्नों पर नीति और नियमन का निर्णय होगा।
मीडिया से संबंधित तीन बहसें इस समय केंद्र में हैं। पहला सुदर्शन टीवी के कार्यक्रम बिंदास बोल से जुड़ा है, दूसरा रिपब्लिक टीवी के टीआरपी मामले से। तीसरी बहस इस समय जो है, उसका संबंध ‘प्रेस और पत्रिका पंजीकरण विधेयक, 2019’ से है। इस प्रस्तावित विधेयक में डिजिटल मीडिया को भी शामिल किया गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार अपने निर्णयों के लिए जानी जाती है, न कि समस्याओं को टालने के लिए। जो विधेयक प्रस्तावित है, उस पर सुझाव सूचना प्रसारण मंत्रालय को बड़े पैमाने पर मिल गए हैं। अगर यह विधेयक संसद में आता है और पारित होता है तो पहली बार पीआरबी कानून, 1867 में परिवर्तन होगा। मेरी जानकारी अगर सही है तो कह सकता हूँ कि भारत सरकार जल्दी ही मीडिया काउंसिल बनाने का निर्णय करने जा रही है। अगर ऐसा हुआ तो मीडिया में नीति और नियमन की पुरानी मांग काफी हद तक पूरी हो सकती है। एक ही छतरी के तहत पूरी मीडिया रहेगी। उसके अनुरूप संस्थाओं, नियमों और नियमन के नए दौर को देश देख सकेगा जिसका लंबे समय से इंतजार किया जा रहा है। इससे छपे शब्दों का जादू लौटेगा और पत्रकारों के बोले कथन की साख बेहतर बनेगी। फिर भी मीडिया की वस्तुस्थिति का समग्रता में अध्ययन का प्रश्न बना ही रहेगा जब तक भारत सरकार मीडिया आयोग का गठन जाँच आयोग कानून के तहत नहीं करती।
-रामबहादुर राय
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