भारत में पत्रकारिता पुरस्कारों का प्रयोग उत्कृष्टता को प्रोत्साहन देने के लिए नहीं, बल्कि एक एजेंडे के अंतर्गत हो रहा है। यह संयोग मात्र नहीं है कि जो पत्रकार जितने अधिक फेक न्यूज फैलाता है, भारतीय संस्कृति के विरुद्ध जितना ज्यादा अभियान चलाता है, उस पर एक विशेष तरह के पत्रकारिता पुरस्कारों की बरसात हो जाती है। पत्रकारिता का सबसे प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका पुरस्कार भी इस श्रेणी में सम्मिलित हो चुका है
वर्ष 2017 की बात है। नासिक के देवलाली आर्मी कैंप में एक महिला चोरी-छिपे घुस गई। वह महिला एक ‘खोजी पत्रकार’ थी। अंदर जाकर उसने जवानों से पूछताछ शुरू कर दी। इस दौरान उसका गुप्त कैमरा अपना काम कर रहा था। सेना के इस अतिसुरक्षित इलाके में घूम-घूमकर उसने देर तक अलग-अलग हिस्सों के चित्र लिये। फरवरी 2017 में ‘द क्विंट’ नाम की वेबसाइट ने इसे ‘स्टिंग आॅपरेशन’ बताते हुए प्रकाशित किया। इसे दिखाने के बाद रॉय मैथ्यू नामक सैनिक ने आत्महत्या कर ली। स्टिंग आॅपरेशन में उसे भी दिखाया गया था। मैथ्यू डर गया कि उस पर अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकती है। सेना के अधिकारियों की शिकायत पर रिपोर्टर के विरुद्ध प्रतिबंधित क्षेत्र में शूटिंग करने, जासूसी और एक सैनिक को आत्महत्या के लिए उकसाने का केस दर्ज किया गया। न्यायालय में अभी सुनवाई चल ही रही थी कि 2018 में उक्त रिपोर्टर का नाम प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका पत्रकारिता पुरस्कार के लिए घोषित कर दिया गया। पुरस्कार देने के लिए राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को बुलाया गया। राष्ट्रपति सेना के सर्वोच्च कमांडर होते हैं। उनके हाथों उस पत्रकार को सम्मानित कराया गया, जिस पर सेना के एक अतिसंवेदनशील ठिकाने पर जासूसी करने और एक जवान की आत्महत्या का मुकदमा चल रहा है।
किसी को पुरस्कृत कब किया जाता है? जब वो कोई ऐसा काम करे जो अपने क्षेत्र में उत्कृष्ट हो। ‘द क्विंट’ की इस पत्रकार ने उस स्टिंग आॅपरेशन के अलावा ऐसा कोई उत्कृष्ट कार्य नहीं किया। स्वाभाविक रूप से पुरस्कार मिलने से एक तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव बन गया। 2019 में बांबे उच्च न्यायालय ने उक्त पत्रकार को दोषमुक्त कर दिया। वैसे भी सामान्य तौर पर जासूसी को सिद्ध करना इतना आसान नहीं होता। जासूसों को भी पता होता है कि किस आवरण में काम करना अधिक सुरक्षित होगा। नासिक का देवलाली आर्मी कैंप देश के सबसे संवेदनशील सैनिक ठिकानों में एक है। इस कथित स्टिंग आॅपरेशन के लिए रिपोर्टर दिल्ली से नासिक गई थी। यह मात्र संयोग नहीं है कि तब से लेकर अब तक देवलाली कैंप के आसपास पाकिस्तान के कई जासूस पकड़े जा चुके हैं।
उत्कृष्टता के बजाय एजेंडा को तरजीह
उपरोक्त घटना का सच चाहे जो हो, किंतु यह स्पष्ट है कि भारत में पत्रकारिता पुरस्कारों का प्रयोग उत्कृष्टता को प्रोत्साहन देने के लिए नहीं, बल्कि एजेंडे के अंतर्गत हो रहा है। यह संयोग मात्र नहीं है कि जो पत्रकार जितने अधिक फेक न्यूज फैलाता है, उस पर एक विशेष तरह के पत्रकारिता पुरस्कारों की बरसात हो जाती है। पत्रकारिता का सबसे प्रतिष्ठित रामनाथ गोयनका पुरस्कार भी इस श्रेणी में सम्मिलित हो चुका है। यह पुरस्कार इंडियन एक्सप्रेस समूह की ओर से अपने संस्थापक रामनाथ गोयनका की स्मृति में दिया जाता है। रामनाथ गोयनका भारतीय पत्रकारिता के शिखर पुरुषों में से एक थे। वे पक्के राष्ट्रवादी थे और उन्होंने पत्रकारिता के उन आदर्शों की स्थापना की, जिनकी आज भी दुहाई दी जाती है। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आपातकाल में अपनी निर्भीक पत्रकारिता के लिए गोयनका का नाम हमेशा सम्मान से लिया जाता है। लेकिन उनके नाम पर स्थापित पुरस्कार उस पुस्तक को भी मिल गया जिसमें आपातकाल का पूरा दोष इंदिरा गांधी से हटाकर अन्य लोगों पर डालने का प्रयास किया गया है। गोयनका आज होते तो ऐसा अनर्थ कैसे होने देते? (देखें बॉक्स)
रामनाथ गोयनका पुरस्कार की वेबसाइट पर लिखा है कि ‘ये उन पत्रकारों-लेखकों को दिया जाता है, जो राजनीतिक और आर्थिक दबावों के आगे नहीं झुकते हैं और पत्रकारिता के उच्चतम मानदंडों को स्थापित करते हैं।’ लेकिन इसके अपवादों की सूची बहुत लंबी है। बीते वर्षों में जिस तरह के लोगों को यह पुरस्कार मिला और जिस तरह के लोगों ने विजेताओं को चुना, वह बहुत कुछ संकेत करता है। आप पाएंगे कि साल दर साल कुछ विशेष मीडिया संस्थानों के पत्रकारों को अधिक वरीयता दी जाती है। ये सभी वो संस्थान हैं जो कांग्रेसी और वामपंथी इकोसिस्टम का हिस्सा हैं। उन विदेशी पत्रकारों को पुरस्कार दिए गए जो विदेशों में भारत की छवि खराब करने के लिए झूठे समाचार फैलाते हैं। उन लेखकों को पुरस्कृत किया गया जिनका पूरा लेखन भारतीय संस्कृति और धर्म के प्रति घृणा से सना
हुआ है।
10 वर्ष में एक ही संस्थान के 21 पत्रकार पुरस्कृत
पिछले 10 वर्ष में कम से कम 21 रामनाथ गोयनका पुरस्कार एनडीटीवी के पत्रकारों को मिले हैं। एनडीटीवी ने इन 10 वर्ष में कोई एक भी बड़ा रहस्योद्घाटन या ऐसी खबर नहीं दिखाई जो उसके पत्रकारों ने ढूंढकर निकाली हो। यह चैनल पूरी तरह से राजनीतिक रूप से प्रायोजित और प्रोपेगेंडा समाचारों का वाहक है। जज लोया, राफेल से लेकर कोरोना टीकाकरण तक पर इस चैनल ने झूठी खबरों की बाढ़ लगा दी। रामनाथ गोयनका पुरस्कार की सूची में उन वेबसाइटों के भी नाम हैं जिनकी पहचान ही उनके झूठे और दुराग्रही समाचारों के कारण होती है। इनमें द वायर, कारवां, न्यूजलाउंड्री, स्क्रॉल और तहलका जैसे नाम हैं। इनके जिन लोगों को पुरस्कृत किया गया है, वो पत्रकार से अधिक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। ऐसे लोग भी हैं जो न्यायालयों द्वारा झूठ फैलाने के दोषी ठहराए जा चुके हैं।
ऐसा लगता है मानो रामनाथ गोयनका पुरस्कार दो परिस्थितियों में दिए जाते हैं। पहला तब, जब किसी पत्रकार को यह पुरस्कार देकर उसकी विश्वसनीयता स्थापित करनी हो और बाद में उससे झूठ फैलवाना हो। और दूसरा तब, जब कोई पत्रकार बार-बार झूठ फैलाकर बदनाम हो चुका हो। जब उसे रामनाथ गोयनका जैसा प्रतिष्ठित पुरस्कार मिलता है तो उसका सम्मान बहाल हो जाता है। अपवादस्वरूप कुछ ऐसे लोगों को भी सूची में रखा जाता है ताकि निष्पक्षता का भ्रम बना रहे।
उत्तर प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले एबीपी न्यूज चैनल के अभिसार शर्मा ने रिपोर्टिंग के नाम पर समाजवादी पार्टी का प्रचार किया था। इस दौरान उन्होंने बताया था कि धान के खेतों से गेहूं निकलता है, जिससे रोटी बनती है। अभिसार शर्मा के साथी रह चुके एक पत्रकार बताते हैं कि ‘उनका सामान्य ज्ञान ऐसा ही है। आज भी उन्हें नहीं पता होगा कि आलू पेड़ पर उगता है या धरती के नीचे।’ चूंकि इस घटना के बाद वे हंसी के पात्र बन गए, इसलिए 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले उन्हें तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह के हाथों गोयनका पुरस्कार दिलवाया गया ताकि उनकी विश्वसनीयता बहाल हो जाए और वे लोकसभा चुनाव में अपने दल के लिए प्रचार कार्य कर सकें। वे अब भी अपना ये काम पूरी निष्ठा के साथ कर रहे हैं।
फर्जी रपटों पर मुहर
वर्ष 2019 में ही राजनाथ सिंह के हाथों उस थॉमसन रॉयटर्स संस्था को भी पुरस्कृत कराया गया, जिसने कुछ दिन पहले ही रिपोर्ट दी थी कि भारत विश्व में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक स्थान है। वह रिपोर्ट वास्तव में एक दुष्प्रचार अभियान का हिस्सा था, जिसका उद्देश्य भारत में आने वाले विदेशी निवेश को रोकना और पर्यटन उद्योग को क्षति पहुंचाना था। मात्र 500 वामपंथी महिलाओं से बातचीत के आधार पर भारत को सीरिया, पाकिस्तान और सोमालिया से भी गया-गुजरा बता दिया गया। ऐसी संदिग्ध एजेंसी को देश के गृहमंत्री के हाथों पुरस्कृत कराना, उसकी रिपोर्ट पर मुहर लगवाना ही माना जाएगा।
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद इंडिया टुडे ने भाजपा के सदस्यता अभियान पर एक फर्ज़ी रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इसमें दावा किया गया था कि पार्टी के सदस्यता के सारे दावे झूठ हैं। इतने बड़े अभियान में अवश्य ही कुछ प्रतिशत गलती की आशंका रहती है। बाद में रिपोर्ट की सच्चाई सामने आ गई, लेकिन यह झूठ फैलाने वाले पत्रकार को उसका उचित इनाम मिला। 2015 में उस फर्ज़ी रिपोर्ट के लिए इंडिया टुडे के पत्रकार को रामनाथ गोयनका पुरस्कार दिलाया गया। वह भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों। 2015 में ही अक्षय मुकुल नाम के वामपंथी पत्रकार की गीता प्रेस को बदनाम करने के लिए लिखी गई तथ्यहीन और मूर्खतापूर्ण पुस्तक को भी पुरस्कृत किया गया। आयोजकों को पहले से पता था कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों पुरस्कार नहीं लेने की घोषणा करने वाले हैं और कार्यक्रम का बहिष्कार करेंगे। इसके बाद भी उन्हें पुरस्कार के लिए बुलाया गया ताकि प्रधानमंत्री के लिए विचित्र स्थिति पैदा की जा सके।
हिंदू विरोधी दुष्प्रचार के लिए आरक्षित पुस्तक श्रेणी
रामनाथ गोयनका पुरस्कार की पुस्तक श्रेणी, मानो हिंदू विरोधी दुष्प्रचार के लिए ही आरक्षित है। वर्ष 2009 में अमेरिकी लेखिका वेंडी डोनिगर को उनकी पुस्तक ‘द हिंदूज: एन आॅल्टरनेटिव हिस्ट्री’ के लिए पुरस्कृत किया गया। ऐसी पुस्तक यदि इस्लाम के लिए लिखी गई होती तो डोनिगर को पुरस्कार मिलना तो दूर, उन्हें जान बचाकर यहां-वहां भागना पड़ता। प्रश्न है कि रामनाथ गोयनका पुरस्कार देने वाले किस एजेंडे के तहत वेंडी डोनिगर जैसे लोगों को चुनते हैं? क्यों न माना जाए कि ऐसा करने के पीछे उनकी हिंदू विरोधी मानसिकता और चर्च का दबाव भी काम करता है। 2017 में वॉशिंगटन पोस्ट की एनी गोवेन को रामनाथ गोयनका पुरस्कार दिया गया। जबकि विदेशी मीडिया में भारत विरोधी दुष्प्रचार में उनका सबसे बड़ा योगदान है। उनकी पूर्वाग्रहग्स्त रिपोर्टिंग किसी पैमाने पर पत्रकारिता नहीं मानी जा सकती। इस पुरस्कार ने गोवेन को चर्चा में ला दिया। आज वे जो कुछ भी उल्टा-सीधा लिखती हैं, भारत में कई लोग उसे बहुत गंभीरता से लेते हैं।
गोयनका पुरस्कारों की लिस्ट देखें तो पाएंगे कि इनमें कुछ ऐसे नाम भी हैं जो वास्तव में पत्रकार नहीं हैं। एनडीटीवी ने अपने एक व्यक्ति को पुरस्कार दिलवाया जो गेस्ट कोआॅर्डिनेशन का काम करता था। उसे व्यापारिक और आर्थिक पत्रकारिता का पुरस्कार मिला। इसी तरह एक कैमरामैन को 2-2 बार सम्मानित किया जा चुका है। ये दोनों ही उदाहरण ऐसे हैं जो अपने मन से हिंदी की दो लाइन नहीं लिख सकते। लेकिन हिंदी पत्रकारिता के सम्मानित लोगों में अब उनका नाम है। कुछ ऐसे नाम भी हैं जिनके बारे में सबको पता है कि वो सिफारिशी हैं। अलग-अलग श्रेणियों में उन्हें 2 से 3 बार तक पुरस्कार दिया जा चुका है।
एक ओर दागी और संदिग्ध किस्म के नाम हैं, दूसरी ओर ऐसे ढेरों पत्रकार हैं जो अपनी जान का जोखिम लेकर सच्चाई लोगों तक पहुंचाते रहते हैं। लेकिन उनका नाम इसलिए रामनाथ गोयनका पुरस्कार के लिए नहीं जाता क्योंकि वो किसी खेमे के सदस्य नहीं हैं। छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले में बलिदान देने वाले दूरदर्शन के पत्रकार अच्युतानंद साहू और उनके दो साथियों का नाम 2018 के पुरस्कारों की लिस्ट में बहुत दबाव के बाद शामिल हो पाया था। तब कई वामपंथियों ने सरकारी मीडिया का पत्रकार होने के बहाने उनके नाम का विरोध किया था।
असली विरोध इसलिए था क्योंकि वे नक्सलियों के हमले का शिकार हुए थे।
आपातकाल समर्थक को पुरस्कार
2020 में रामनाथ गोयनका पुरस्कार पाने वालों की सूची में ज्ञान प्रकाश का भी नाम है। उन्होंने ‘इमर्जेंसी क्रॉनिकल्स’ नाम से पुस्तक लिखी है। जेएनयू के छात्र रहे ज्ञान प्रकाश अमेरिकी की प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफेसर हैं। उनका पूरा प्रयास है कि किसी तरह आपातकाल का दोष इंदिरा गांधी के सिर से हटाकर अन्य लोगों पर डाला जाए। यह पुस्तक बौद्धिक कपट का आदर्श उदाहरण है। पुस्तक में दलील दी गई है कि इंदिरा गांधी ने महिला होते हुए आपातकाल लगाया था, इससे भारतीयों के पुरुषोचित अहंकार को ठेस पहुंची। एक्सप्रेस समूह को स्पष्ट करना चाहिए कि क्या इसी पुरुषोचित अहंकार के कारण रामनाथ गोयनका ने आपातकाल में इंदिरा गांधी के विरुद्ध संघर्ष किया था?
क्या रामनाथ गोयनका पुरुषोचित अहंकार से ग्रस्त थे?
-पाञ्चजन्य ब्यूरो
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