अमेरिका के प्रसिद्ध न्यूयार्क शहर में पिछले एक साल से सैकड़ों शव रेफ्रिजरेटर वाले ट्रकों में रखे हैं। या तो उनके परिजन नहीं हैं, या परिजनों के पास मृतक को दफनाने की जगह नहीं है। लेकिन यह अमानवीय और किसी मृतक का अनादर करने जैसा नहीं तो क्या है
9 मई 2021 को एनबीसी न्यूज ने यह खबर चला कर कोविड के खिलाफ अमेरिका की ‘कामयाब लड़ाई’ और भारत में हर चीज पश्चिमी चश्मे से देखने वाले सेकुलर ईकोसिस्टम की धज्जियां उड़ा दीं कि अमेरिका में ‘न्यूयार्क शहर आज भी कोरोना से मरने वालों के मृत शरीर रखने के लिए रेफ्रजरेटर लगे ट्रक इस्तेमाल कर रहा है’। खलबली मच गई ‘सभ्य पश्चिम’ के ‘मानवतावादी सलीके’ के बारे में पढ़कर। यही खबर 10 मई के वाशिंग्टन पोस्ट में छपी। उल्लेखनीय है कि नवम्बर 2020 में इसी ‘मानवतावादी कृत्य’ का खुलासा जब वाल स्ट्रीट जरनल ने किया था तब ज्यादा लोगों का ध्यान इस पर नहीं गया था और इसे कोविड के प्रकोप का तात्कालिक प्रभाव मानकर अनेदखा कर दिया गया था। मान लिया गया था कि यह ‘व्यवस्था’ कुछ ही दिन की है।
लेकिन आज छह महीने से ज्यादा वक्त बीत चुका है लेकिन ब्रुकलिन के समसेट पार्क इलाके में ये ट्रक आज भी चलते—फिरते कब्रिस्तान से खड़े हैं। सूत्रों की मानें तो इन ट्रक में सैकड़ों मृत देह दफनाए जाने का इंतजार कर रही हैं लेकिन उन्हें किसी कब्रिस्तान में जगह नहीं मिल पा रही है या अधिकारियों ने दूसरी लहर के आवेग में इन्हें भुला दिया है। शहर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी की मानें तो ये वे मृत देह हैं जिनके परिवारों का अता—पता नहीं चल पाया है या इतने गरीब हैं कि बाकायदा अंतिम संस्कार नहीं कर सकते।
सवाल उठता है कि फिर सरकार की तरफ से अब तक मृतक को सम्मान के साथ दफनाया क्यों नहीं गया ! क्यों इन्हें ट्रक में रखकर इनका तिरस्कार किया जा रहा है। इस पर न्यूयार्क राज्य में अंतिम संस्कार संबंधी संगठन के अनुसार, मई 2020 में शहर प्रशासन ने अंतिम संस्कार के लिए अनुदान की राशि 900 डालर से बढ़ाकर 1,700 डालर तो कर दी पर ये काफी नहीं है। इसके लिए औसतन 9,000 डालर चाहिए होते हैं। उल्लेखनीय है कि अमेरिका में पिछले साल चायनीज वायरस कोरोना की चपेट में रोजाना हजारों लोग आ रहे थे जिनमें मरने वालों की रोज एक बड़ी तादाद होती थी। कहते हैं, शहर का परंपरागत कब्रिस्तान इतनी तादाद संभालने लायक नहीं बना है इसलिए शवों को दफनाए जाने की जगह कम पड़ रही है।
एसोसिएटिड प्रेस के हवाले से एनबीसी न्यूज में छपी खबर दावा करती है कि शवों को रखने की साल भर पहले की यह ‘अस्थायी व्यवस्था’ आज भी जस की तस है, आज भी शव ट्रकों में रखे जा रहे हैं। दरअसल पिछले हफ्ते एक स्थानीय खबरिया वेबसाइट ट सिटी ने प्रकाशित किया था कि अप्रैल 2020 से ही 500 से 800 शव ऐसे ट्कों में बने हुए हैं। सरकार की तरफ से शहर को ऐसे 85 ट्रक उपलब्ध कराए गए थे जो अस्पतालों के बाहर खड़े कर दिए गए थे। अस्पताल कर्मी मशीन के सहारे शवों को ट्रकों में जमाते गए थे।
ट्रकों में सहेजे कुछ शवों के परिजन तो हैं पर अपने मृत परिजन को दफनाने की उन्हें जगह नहीं मिल रही है। उनका कहना है कि जगह मिलने पर अपने परिजन के शव को बाकायदा दफानाएंगे।
इस खबर पर भारत में तरह—तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं जिनमें ज्यादातर में कहा गया है कि कोई सोच नहीं सकता कि खुद को सभ्य लोकतंत्र कहने वाला अमेरिका अपने मृतकों के साथ ऐसा व्यवहार करेगा। यह अस्थायी व्यवस्था नहीं लगती, क्योंकि साल भर से शवों का यूं रखे रहना ‘अस्थायी’ नहीं कहा जा सकता। पाठकों को याद होगा, यह वही अमेरिका है जिसने भारत की वैक्सीन निर्माता कंपनियों को पिछले दिनों वैक्सीन बनाने के लिए आवश्यक सामग्री देने से इनकार कर दिया था, लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद उसे मानना पड़ा था कि भारत ने पिछले साल कोरोना संकट के समय उसे भरपूर दवाएं दी थीं। उसे मानना पड़ा कि भारत दुनिया भर की मदद में सबसे आगे रहा है। इसीलिए राष्ट्रपति बाइडेन को वैक्सीन कंपनियों को कच्चा माल देने को राजी होना पड़ा है। अमेरिका के इस बर्ताव पर भारत के सेकुलर भी चुप्पी लगा गए थे क्योंकि वहां उपराष्ट्रपति बनीं भारतीय मूल की कमला हैरिस को लेकर सेकुलर मीडिया ने उनकी शान में खूब छापा था और उन्हें भारत हितैषी बताया था। लेकिन अभी तक के कमला हैरिस के बर्ताव से ऐसी कोई बात नहीं झलकी है जो उन्हें भारत की हमदर्द बताती हो। यही सेकुलर मीडिया अब न्यूयार्क में ट्रकों में रखे सैकड़ों शवों के मुद्दे पर भी मुंह सिले हुए है।
आलोक गोस्वामी
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