गत 5 मई को कोरोना के टीकों को पेटेंट-मुक्त कर सर्व-सुलभ कराने के प्रस्ताव पर विश्व व्यापार संगठन में भारत को अभूतपूर्व विजय मिली। इसको देखते हुए 6 मई को ‘पाञ्चजन्य’ द्वारा ‘मानव जीवन बनाम पेटेंट और विश्व व्यापार संगठन’ पर एक वेबिनार का आयोजन किया गया। इसका संचालन लोकसभा टी.वी. के वरिष्ठ एंकर अनुराग पुनेठा ने किया। इसके मुख्य वक्ता थे गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा के कुलपति प्रो. भगवती प्रकाश। उनके उसी भाषण के प्रमुख अंश यहां प्रकाशित किए जा रहे हैं-
यह बहुत प्रसन्नता की बात है कि टीकों को पेटेंट-मुक्त कराने के प्रस्ताव पर विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में भारत को बड़ी सफलता मिली। उल्लेखनीय है कि अक्तूबर, 2020 में भारत और दक्षिण अफ्रीका के संयुक्त प्रस्ताव पर 100 से अधिक देशों के भारत के साथ होने के बाद भी अमेरिका, यूरोप व आॅस्ट्रेलिया आदि देश बड़ी दवा कंपनियों के दबाव में इसके विरुद्ध अड़े हुए थे। लेकिन अमेरिकी राष्टÑपति जो बिडेन की डेमोक्रेटिक पार्टी के 110 सांसद, 60 पूर्व राष्ट्राध्यक्ष और 100 नोबल पुरस्कार विजेताओं सहित 25,00,000 आॅनलाइन हस्ताक्षरकर्ताओं ने भी भारत के प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए राष्टपति बिडेन पर दबाव डाले हुए थे। अंतत: विश्व मानवता के पक्ष में भारत को विजय मिली और अमेरिका ने भारत के प्रस्ताव का समर्थन किया।
पेटेंट से मुनाफाखोरी
आज विश्व में 15 करोड़ और भारत के लगभग 2 करोड़ कोरोना संक्रमित लोग जीवन और मृत्यु के बीच झूल रहे हैं। अब तक कुल 43 करोड़ लोगों को कोरोना ने संक्रमित किया है। इनमें से विश्व में लगभग 32,00,000 और भारत में करीब 2,50,000 लोग अकाल मृत्यु का शिकार हो चुके हैं। इस रोग के उपचार हेतु औषधियां भी वैज्ञानिक विकसित कर चुके हैं और इसकी रोकथाम हेतु सात टीके भी आ चुके हैं। लेकिन इन औषधियों व टीकों पर इनकी पेटेंट-धारक कंपनियों का एकाधिकार होने के कारण इनकी आपूर्ति अपर्याप्त एवं मूल्य बहुत ऊंचे हैं। इसलिए भारत ने अक्तूबर, 2020 में उपरोक्त प्रस्ताव डब्ल्यूटीओ में प्रस्तावित किया कि इन टीकों को पेटेंट-मुक्त किया जाए। ऐसा होने से इन टीकों के उत्पादन पर से इनकी पेटेंट-धारी कंपनियों का एकाधिकार समाप्त हो जाएगा और कोई भी अन्य कंपनी इन टीकों का उत्पादन करने को स्वतंत्र हो जाएगी। वैसे किसी अन्य कंपनी द्वारा यह तत्काल संभव नहीं है। इनके उत्पादन की प्रक्रिया, सामग्री आदि सर्वसुलभ नहीं है। इन टीकों की तत्काल उत्पादन किसी भी नई कंपनी के लिए तभी संभव होगा, जब ये पेटेंटधारी कंपनियां टीकों के उत्पादन की प्रौद्योगिकी भी हस्तांतरित करें। अन्यथा अन्य किसी उत्पादक के लिए टीकों का उत्पादन किया जाना तभी संभव होगा जब वे अपने स्व-अनुसंधान से इनके उत्पादन की तकनीक विकसित कर लें। लेकिन इनके उत्पादन की तकनीक विकसित करने पर भी कोई तभी स्वतंत्र होगा, जब इन टीकों पर पेटेंट अधिकार किसी का न रहे। अमेरिका द्वारा भारत के प्रस्ताव का समर्थन करने से अब यह संभव हो सकेगा।
भारतीय संविधान में जीवन का अधिकार मौलिक अधिकार है। ऐसे में जीवन का मौलिक अधिकार पेटेंटधारी के विधिक अधिकार से अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। इज्रायल ने अपनी अधिकांश व्यस्क जनता का कम समय में टीकाकरण कर लिया है। इससे उन्होंने अपने देश से कोरोना का लगभग उन्मूलन कर लिया है और वहां के नागरिक मास्क-मुक्त हो गए हैं। इस प्रकार विश्व को कोरोना-मुक्त करने के लिए व्यापक स्तर पर टीकाकरण आवश्यक है और इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए टीकों का पेटेंट-रहित होना आवश्यक था। दूसरा कदम इन टीकों के उत्पादन की प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण का है या पेटेंटधारक से इतर कंपनियों द्वारा स्व-अनुसंधान से इन टीकों के उत्पादन की प्रौद्योगिकी व आवश्यक सामग्रियों के जुटाने की है।
प्रौद्योगिकी हस्तांतरण
डब्ल्यूटीओ के 1995 के ‘बौद्धिक संपदा अधिकारों पर हुए समझौते’, जिसे ‘एग्रीमेंट आॅन ट्रेड रिलेटेड इंटेलेक्चुअल राइट्स’ या ‘ट्रिप्स समझौता’ कहा जाता है, की धारा सात में प्रौद्योगिकी हस्तांतरण का वैधानिक प्रावधान है। इसलिए औद्योगिक देशों को प्रौद्योगिकी हस्तांतरण करवाने के इस प्रावधान का पालन करना चाहिए। वैसे पेटेंट-मुक्ति का यह निर्णय टीकों के संदर्भ में ही हुआ है। कोरोना की चिकित्सा की औषधियों के उत्पादन को पेटेंट-मुक्त नहीं किए जाने से पेटेंट-धारक से इतर उत्पादकों को इन औषधियों के उत्पादन के लिए अनिवार्य अनुज्ञापन (कम्पल्सरी लाइसेंसिंग) के माध्यम से ही अधिकृत करना होगा। भारत के पेटेंट अधिनियम की धारा 84, 92 व 100 में अनिवार्य अनुज्ञापन के प्रावधान हैं।
पेटेंटधारकों के शोषण पर अंकुश
उल्लेखनीय है कि 2012 में यकृत व गुर्दे के कैंसर की जर्मन कंपनी ‘बायर’ का ‘नेक्सावर’ नामक इंजेक्शन 2,80,000 रु. का आता था। उसे मात्र 8,8,00 रु. में बेचने का प्रस्ताव कर एक भारतीय कंपनी ‘नाट्को’ ने भारत के मुख्य पेटेंट नियंत्रक को आवेदन देकर पेटेंट-धारक के एकाधिकार के विरुद्ध लाइसेंस प्राप्त कर लिया। आज भी ‘नेक्सावर’ भारत के बाहर 2,80,000 रु. में मिलता है, वहीं भारत में यह उसकी मात्र तीन प्रतिशत कीमत पर मिल जाता है। दुर्भाग्य से इस अनिवार्य अनुज्ञा पर तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर यूरो-अमेरिकी देशों का इतना दबाव आया कि उन नियंत्रक को पद छोड़ना पड़ गया। अभी यह भी गर्व का विषय है कि भारतीय कंपनी ‘नाट्को’ फार्मा ने पुन: अमेरिकी कंपनी ‘एलीलिलि’ की कोरोना की औषधि ‘बेरिसिटिनिब’ के समानांतर उत्पादन हेतु अनिवार्य अनुज्ञापन के लिए आवेदन कर दिया है। आशा है शीघ्र ही कोरोना की शेष औषधियों के उत्पादन के लिए कई कंपनियां अनिवार्य अनुज्ञापन के लिए आगे आएंगी।
पेटेंटधारकों के विरुद्ध संघर्ष
नब्बे के दशक में यूरो-अमेरिकी कंपनियां एड्स की औषधियों की कीमत इतनी लेती थीं कि भारत से बाहर एक रोगी की वार्षिक चिकित्सा लागत 15,000 डॉलर यानी 10,00,000 रु. से अधिक आती थी। चंूकि 1995 के पहले भारत में ‘प्रोडक्ट पेटेंट’ न होकर, केवल ‘प्रक्रिया पेटेंट’ ही होता था। इसलिए कई भारतीय कंपनियां अंतरराष्टÑीय पेटेंटधारक की उत्पादन प्रक्रिया से भिन्न प्रक्रिया का विकास कर इन्हें बनाती व इतनी कम लागत पर बेचती थीं कि व्यक्ति की चिकित्सा लागत 350-450 डॉलर ही आती थी। इसलिए दक्षिणी अफ्रीका व ब्राजील ने भारत से इन औषधियों के आयात हेतु अनिवार्य अनुज्ञापन के कानून बना लिए। तब अमेरिकी कंपनियों के एक समूह ने दक्षिण अफ्रीकी कानून को ट्रिप्स विरोधी बता कर दक्षिण अफ्रीकी सर्वोच्च न्यायालय में व अमेरिकी सरकार ने ब्राजील के कानून को डब्ल्यूटीओ के विवाद निवारण तंत्र में चुनौती दे डाली। इस पर दक्षिणी अफ्रीका में अमेरिकी दूतावास के सम्मुख सड़कों पर ऐसा उग्र प्रदर्शन हुआ कि अमेरिकी कंपनियों ने सर्वोच्च न्यायालय से व अमेरिकी सरकार ने डब्ल्यूटीओ के विवाद निवारण तंत्र से वे मुकदमे वापस ले लिए।
इसके बाद 2001 के विश्व व्यापार संगठन के दोहा के मंत्री स्तरीय सम्मेलन के पहले दिन ही सभी विकासशील देशों ने इतने उग्र तेवर दिखाए कि गैर विश्व व्यापार संगठन के पांच दशक के इतिहास में पहली बार सम्मेलन के पहले दिन ही औषधियों के उत्पादन के लिए अनिवार्य अनुज्ञापन का प्रस्ताव पारित करना पड़ा। इस प्रस्ताव के आधार पर ही भारत के पेटेंट कानून में 2005 में अनिवार्य अनुज्ञापन का प्रावधान धारा 84, 92 व 100 के माध्यम से जोड़ना संभव हुआ। इसी अनिवार्य अनुज्ञापन से ‘नेक्सावर’ इंजेक्शन का भारत में उत्पादन और तीन प्रतिशत कीमत 8,800 रु. में बेचना संभव हुआ। इसी प्रावधान के अधीन नाट्को फार्मा ने कोरोना की औषधि ‘बेरिसिटिनिब’ के अनिवार्य अनुज्ञापन हेतु ओवदन किया है और शेष औषधियों की भी सर्व सुलभता के लिए भारतीय कंपनियां अनिवार्य अनुज्ञापन हेतु आवेदन की तैयारी में हैं।
2012 में जर्मन कंपनी ‘बायर’ का ‘नेक्सावर’ नामक इंजेक्शन 2,80,000 रु. का आता था। उसे मात्र 8,8,00 रु. में बेचने का प्रस्ताव कर एक भारतीय कंपनी ‘नाट्को’ ने भारत के मुख्य पेटेंट नियंत्रक को आवेदन देकर पेटेंट-धारक के एकाधिकार के विरुद्ध लाइसेंस प्राप्त कर लिया। आज भी ‘नेक्सावर’ भारत के बाहर 2,80,000 रु. में मिलता है, वहीं भारत में यह उसकी मात्र तीन प्रतिशत कीमत पर मिल जाता है। दुर्भाग्य से इस मामले पर तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पर यूरो-अमेरिकी देशों का इतना दबाव आया कि उन नियंत्रक को पद छोड़ना पड़ गया।
रक्त कैंसर की जेनेटिक औषधि
1995 के पूर्व के भारतीय पेटेंट अधिनियम के अंतर्गत 1 जनवरी, 1995 के पहले आविष्कृत किसी भी औषधि के पेटेंटधारक के नाम पेटेंट से रक्षित प्रक्रिया को छोड़कर स्व अनुसंधान से विकसित प्रक्रिया से दवा उत्पादन की स्वतंत्रता थी। ट्रिप्स समझौते के कारण ही भारत को यह नियम बदल कर ‘प्रोडक्ट पेटेंट’ का नियम लागू करना पड़ा था, जिससे 1995 के बाद में आविष्कृत औषधियों के उत्पादन का वह अधिकार भारतीय कंपनियों से छिन गया। इसीलिए 1995 के पहले की हजारों औषधियां भारत में अत्यंत अल्प मूल्य पर सुलभ हैं। इन्हीं के मूल्य भारत को छोड़कर शेष देशों में 10 से 60 गुने तक हैं। रक्त कैंसर की ‘ग्लिबेक’ नामक 1994 में आविष्कृत औषधि स्विस कंपनी नोवार्टिस 1200 रु. प्रति टेबलेट बेचती थी। इसे भारतीय कंपनियों ने अपनी वैकल्पिक विधियों से उत्पादित कर मात्र 90 रु. में बेचना प्रारंभ कर दिया। आज विश्व के 40 प्रतिशत रक्त कैंसर के रोगी इस औषधि को भारत से आयात करते हैं। इस ‘ग्लिबेक’ के 1994 के मूल रसायन ‘इमेंटीनिब’ का एक ‘डेरिटवेटिव’ विकसित कर 1998 में एक और पेटेंट आवेदन कर दिया। लेकिन भारत ने मूल पेटेंट में मामूली परिवर्तन से पेटेंटों की अवधि पूरी होने पर भी उसके दुरुपयाग को रोकने हेतु पेटेंट अधिनियम की धारा 3 डी में ‘इन्क्रीमेंटल’ अनुसंधानों को पेटेंट योग्य नहीं माना। यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय तक गया पर नोवार्टिस कंपनी हार गई और आज विश्व के रक्त कैंसर के रोगी 1200 रु. के स्थान पर 90 रु. प्रति टेबलेट की दर पर इसे क्रय कर पा रहे हैं।
पेटेंट व्यवस्था अमानवीय
ट्रिप्स आधारित वर्तमान पेटेंट व्यवस्था सर्वथा न्याय विरुद्ध और अमानवीय है। किसी भी आविष्कार के प्रथम आविष्कारक को संपूर्ण विश्व की 740 करोड़ जनसंख्या के विरुद्ध 20 वर्ष के लिए यह एकाधिकार प्रदान कर देना कि वह आविष्कारक इस आविष्कार या औषधि की कुछ भी कीमत ले, यह ठीक नहीं है। इसमें प्रथम आविष्कारक के बाद स्व अनुसंधान से या प्रथम आविष्कारक से तकनीक प्राप्त कर किसी उत्तरवर्ती उत्पादक द्वारा उस औषधि को अत्यंत अल्प कीमत पर आपूर्ति करने की दशा में सभी उत्तरवर्ती उत्पादकों से 5-15 प्रतिशत तक रॉयल्टी भुगतान का प्रावधान किया जा सकता है। वह रॉयल्टी भी तब तक दिलाई जा सकती है जब तक कि उस आविष्कारक को अपनी लागत की दुगुनी या तिगुनी कीमत न प्राप्त हो जाए। लेकिन किसी प्रथम उत्पादक को संपूर्ण विश्व के विरुद्ध ऐसा एकाधिकार देकर पूरे विश्व के असीम शोषण की छूट देना न्याय के सिद्धांतों के विपरीत है। विशेषकर जब उसी उत्पाद या औषधि को विश्व में सैकड़ों उत्पादक व अनुसंधानकर्ता मात्र 1-3 प्रतिशत मूल्य या उससे भी कम में सुलभ करा सकें। ‘सिप्रोफ्लोक्सासिन’ पर ‘बायर’ कंपनी की पेटेंट की अवधि समाप्ति के पहले वह कंपनी विश्वभर में एक आधे ग्राम की टेबलेट के 150-300 रु. तक लेती रही है। भारत में तब ‘प्रोडक्ट पेटेंट’ का नियम न होकर ‘प्रोसेस पेटेंट’ का मानवोचित पेटेंट प्रावधान होने से 90 थोक दवा उत्पादक उसे 900 रु. किलो बेचते थे। उनसे सैकड़ों कंपनियां उसे क्रय कर 3-8 रु. में वही आधा ग्राम (500 मिलीग्राम) की टेबलेट बेच लेती थीं। यही स्थिति 1995 के पहले की अधिकांश औषधियों के संबंध में थी।
संघर्ष अभी शेष है
भारत के अक्तूबर, 2020 के प्रस्ताव पर सात माह में हुई 10 बैठकों के बाद 11वीं बैठक के अवसर पर अमेरिका व यूरोपीय संघ ने अपनी सहमति दी है। अब संभवत: इस प्रस्ताव के अंतिम प्रारूप ट्रिप्स काउंसिल की 6-8 जून की बैठक में अनुमोदित हो जाए। वैसे विश्व की आवश्यकता को देखते हुए एक आपात बैठक तत्काल आयोजित कर लेनी आवश्यक है। इसके बाद भी प्रौद्योगिकी हस्तांतरण एक बड़ी चुनौती है, अन्यथा विश्वभर में सक्षम कंपनियों को न्यूनतम समय में टीकों व औषधियों के उतपादन की प्रौद्योगिकी विकसित करनी होगी। इस उपरोक्त निर्णय से भी अभी कोरोना के टीके पेटेंट-मुक्त होंगे। औषधियों के उत्पादन के लिए तो भारतीय व अन्य औषधि उत्पादकों को अनिवार्य अनुज्ञापन के माध्यम से ही आगे बढ़ना होगा। इस हेतु भारत में आवेदन पर तत्काल अनिवार्य अनुज्ञापन की पद्धति लागू की जा सकती है या आवेदन पर स्वत: अनिवार्य अनुज्ञापन की भी पद्धति अपनाई जाने की पूरी संभावना है। इसके साथ ही टीकों व कोरोना की सभी औषधियों के द्रुत उत्पादन के लिए सभी पेटेंटधारकों को विश्वभर में स्वैच्छिक अनुज्ञाएं स्वीकृत कर प्रौद्योगिकी हस्तांतरण हेतु प्रेरित या बाध्य किया जाना भी आवश्यक है। इसके लिए आवश्यक जन दबाव एवं विश्व व्यापार संगठन में भी एक अतिरिक्त प्रस्ताव लाना आवश्यक है।
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