डॉ. कमलेश कुमार काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह मंदिर हजारों वर्ष से वाराणसी में स्थित है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, संत एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास जैसी विभूतियां पधारी थीं। यहीं पर संत एकनाथजी ने वारकरी सम्प्रदाय का महान ग्रंथ ‘श्रीएकनाथी भागवत’ लिखकर पूरा किया और काशी नरेश तथा अन्य विद्वतजनों द्वारा उस ग्रंथ को हाथी पर रखकर खूब धूमधाम से शोभायात्रा निकाली गई। महाशिवरात्रि के मध्य रात्रि पहर में अन्य प्रमुख मंदिरों से भव्य शोभायात्रा ढोल, नगाड़े इत्यादि के साथ बाबा विश्वनाथ जी के मंदिर तक जाती है। पौराणिक मान्यता है कि प्रलयकाल में भी इस मंदिर का लोप नहीं होता। उस समय भगवान शंकर इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल आने पर इसे नीचे उतार देते हैं। यही नहीं, यही भूमि आदि सृष्टि स्थली भी बतायी जाती है। इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने सृष्टि उत्पन्न करने की कामना से तपस्या करके आशुतोष को प्रसन्न किया था और फिर उनके शयन करने पर उनके नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए, जिन्होंने सारे संसार की रचना की। अगस्त्य मुनि ने भी विश्वेश्वर की बड़ी आराधना की थी और उन्हीं की अर्चना से श्री वशिष्ठ जी तीनों लोकों में पूजित हुए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए। यही कारण है कि प्रतिदिन हजारों श्रद्धालु यहां पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने के लिए आते हैं। धार्मिक महत्व के अलावा यह मंदिर वास्तुकला की दृष्टि से भी अनुपम है। इसका भव्य प्रवेश द्वार देखने वालों की दृष्टि में मानो बस जाता है। ऐसा कहा जाता है कि एक बार इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर के स्वप्न में भगवान शिव आए। वे भगवान शिव की भक्त थीं और इसलिए उन्होंने 1780 में यह मंदिर बनवाया। विश्वनाथ खण्ड को पुराना शहर भी कहा जाता है, जो दशाश्वमेध घाट और गोदौलिया के बीच मणिकर्णिका घाट के दक्षिण और पश्चिम तक नदी की उत्तर दिशा में वाराणसी के मध्य में स्थित है। यह पूरा क्षेत्र घूमने योग्य है। बाबा विश्वनाथ मंदिर के शिखर पर स्वर्ण लेपन होने के कारण इसे स्वर्ण मंदिर भी कहते हैं। यहां स्थापित शिवलिंग चिकने काले पत्थर से बना हुआ है और इसे ठोस चांदी के आधार पर रखा गया है। यहां भक्तजन आकर संकल्प करते हैं और पंच तीर्थयात्रा शुरू करने से पहले अपने मन की भावना यहां व्यक्त करते हैं। वाराणसी को एक ऐसा स्थान कहा जाता है जहां प्रथम ज्योतिर्लिंग है। सर्वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां प्राणत्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है। मान्यता है कि भगवान भोलेनाथ मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश फूंकते हैं, जिससे वह जीवन और मृत्यु के आवागमन से छूट जाता है, चाहे मृत-प्राणी कोई भी क्यों न हो। मत्स्यपुराण का मत है कि जप, ध्यान और ज्ञान से रहित एवं दुखों से पीड़ित जन के लिए काशीपुरी ही एकमात्र गति है। विश्वेश्वर के इस आनंद-कानन में पांच मुख्य तीर्थ हैं- दशाश्वमेध, लोलार्ककुण्ड, बिन्दुमाधव, केशव और मणिकर्णिका। और इन्हीं से युक्त यह अविमुक्त क्षेत्र कहा जाता है। काशी विश्वनाथ मंदिर की महिमा आप इस बात से ही समझ लीजिए कि द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से सबसे प्रमुख इसी स्थान को प्रथम लिंग माना गया है। ऐसा माना जाता है कि साक्षात् भगवान शंकर माता पार्वती के साथ इस स्थान पर विराजमान हैं। काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास अनादि काल से माना जाता है। यहां तक कि कई उपनिषदों और महाकाव्य ‘महाभारत’ में इसका वर्णन मिलता है। हालांकि अनेक आक्रमणों के बावजूद, तमाम कुत्सित प्रयासों के बाद भी काशी विश्वनाथ की महिमा उसी तरह से बरकरार रही, जिस प्रकार से ईसा पूर्व राजा हरिश्चंद्र, सम्राट विक्रमादित्य जैसे महान शासकों ने इस मंदिर की प्रतिष्ठा में चार चांद लगाए थे। एक तरफ जहां मंदिर तोड़ने वाले थे, वहीं दूसरी तरफ राजा टोडरमल जैसे महान व्यक्तियों ने इसके पुनरुद्धार का कार्य किया। मराठों ने इसकी मुक्ति के लिए जान की बाजी लगा दी थी। अहिल्याबाई होल्कर और महाराणा रणजीत सिंह जैसे शासकों ने इस मंदिर की महिमा को हमेशा बरकरार रखा और उसमें वृद्धि ही की। विश्वनाथ मंदिर के बारे में एक बात और प्रचलित है कि जब यहां कि मूर्तियों का शृंगार होता है, तो सभी मूर्तियों का मुख पश्चिम दिशा की तरफ रहता है।जय बाबा विश्वनाथ! (लेखक इतिहासकार हैं)
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