हितेश शंकर
कोरोना के जिस पहाड़ को मानवीय जिजीविषा ने मसलकर रख दिया था, वह वायरस अब फिर से सुरसा की तरह आकार बढ़ाता दिख रहा है। पहले आघात से थर्राई दुनिया फिर दहशत में है। पहले से ज्यादा संक्रामक, बेकाबू होते वायरस की चुनौती भारत के लिए भी बड़ी है। एक साल पहले भारत में लॉकडाउन पर उस समय विचार किया गया था जिस समय दुनिया की महाशक्तियां चुनौती की गंभीरता को लेकर असमंजस में थीं। इस बार रायसीना डायलॉग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई परिस्थितियों से निपटने के उस समीकरण पर बात की जिसकी चर्चा अभी कोई भी नहीं कर रहा। प्रधानमंत्री ने कहा ‘पिछले एक वर्ष से दुनिया कोरोना महामारी से लड़ने में जुटी हुई है। हम इस स्थिति में इसलिए पहुंचे क्योंकि आर्थिक प्रगति की दौड़ में मानवता की चिंता पीछे छूट गई थी। हमें पूरी मानवता के बारे में सोचना चाहिए।’ यह कथन किसी बौद्धिक मंच से व्यक्त उद्गार मात्र नहीं है बल्कि इसमें विश्व की उस संस्कृति का दर्शन है जिसने समय के रथ पर सबसे लंबी यात्रा की है, जिसके सबक सबसे गहरे हैं।
नई विश्व व्यवस्था के लिए भू-राजनीति की बिसात पर मोहरे तो पटके जा रहे हैं लेकिन महाशक्तियों का ये नया गणित क्या होगा? क्षेत्रीय अस्मिताओं और छोटी प्रभुसत्ताओं का स्थान क्या होगा? उनको कुचलता हुआ विस्तारवाद या फिर सिर्फ अपने शेयर होल्डिंग, अपनी कंपनियों और अपने कारोबार को मोटा करने की चिंता में दुबला होता पूंजीवाद-ये नई दुनिया का क्या स्वरूप गढ़ेंगे? चुनौती असल में ये है।
इस पूरे दौर की बात करें तो दुनिया ने यह देखा है कि आपत्ति आई है, परंतु लोगों ने उसे अपने-अपने तरीके से भुनाने की कोशिश की। मानवता उनकी चिंता के केंद्र में नहीं थी। अगर वैश्विक संकट है और चिंताएं भी वैश्विक होतीं तो आर्मेनिया-अजरबैजान जैसी घटनाएं नहीं होतीं, लद्दाख में सेंधमारी की चीन कोशिश न करता, चीन-ताइवान का संकट न होता, दक्षिण चीन सागर में तनाव न बढ़ता। ‘क्वाड’ सरीखी पहल की जरूरत ही न होती। याद कीजिए संयुक्त राष्ट्र ने इस बीच में अपील की थी कि पूरी दुनिया में तनातनी नहीं शांति होनी चाहिए, युद्ध विराम होना चाहिए। प्रश्न है कि जो वर्तमान वैश्विक महाशक्तियां हैं, वे क्या वास्तव में पर्याप्त जिम्मेदार भी हैं? शक्तिशाली-विकसित देशों ने वैश्विक संस्था की इस अपील पर कितना कान दिया?
दूसरी बात, वैश्विक संगठनों व मंचों पर महाशक्तियों का जो प्रभाव है या कहिए, इन मंचों को अपने मनमुताबिक उपयोग करने का इन महाशक्तियों का जो हठ है, इस आपदा में उससे भी पर्दा हट गया है। डब्लूएचओ ने पिछले वर्ष जनवरी में चीन की रिपोर्टों के आधार पर कह दिया था कि कोरोना का संक्रमण मानव से मानव में नहीं फैलता। यदि यह सत्य है तो अब क्या हो रहा है? इस बीच में इस संक्रमण से मानवता को जो क्षति पहुंची है या चोट पहुंची है, उसकी भरपाई डब्लूएचओ करेगा या चीन की वे संस्थाएं करेंगी जिन्होंने यह शोध किया था।
आज मानवता की परीक्षा की घड़ी है, सिर्फ अर्थव्यवस्थाओं का संकट नहीं है। अभी जो आकलन आ रहे हैं, उन्हें इसी दृष्टि से देखना चाहिए। यूरोपीय संस्थाओं ने अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए एक खरब यूरो निवेश किए। परंतु सारी समस्याएं पैसे से हल होती हैं क्या? सिर्फ अर्थव्यवस्था को देखना, दवा को भी मुनाफे की दृष्टि से देखना और दवाएं हैं तो उन पर पेटेंट हमारा हो, बाजार हमारा हो, शेयरहोल्डिंग हमारी हो-यह दृष्टि कहां तक उचित है? आज करीब सत्तर प्रतिशत शोध निजी क्षेत्र में होते हैं और इसमें भी जद्दोजहद पेटेंट के लिए चलती है। दवा स्वास्थ्य की कसौटी पर कितनी खरी है, इसका पता नहीं चलता, परंतु मुनाफे की गारंटी हो, यह पहले तय किया जाता है। पूरी दुनिया में जेनरिक दवाओं का विरोध करने की एक दौड़ दिखाई देती है। भारत जब इस संकट को आर्थिक नहीं बल्कि मानवीय विषय कहता है तो यह एक वक्तव्य भर नहीं है। जनऔषधि योजना लागू कर भारत ने जेनरिक दवा के क्षेत्र में जो कार्य किया, उतना बड़ा काम दुनिया के किसी अन्य देश में अबतक नहीं हुआ।
अब यदि पेटेंटवादी पश्चिम के दर्शन की बात करें तो हमें देखना चाहिए कि वहां सबसे ज्यादा मौतें कहां हुर्इं-जहां पर वृद्ध थे, जहां शेल्टरहोम थे। वेंटिलेटर देने में नौजवानों को वरीयता मिलेगी, बुर्जुगों को नहीं। वहां स्पष्ट दिखा कि यदि आप अर्थव्यवस्था में योगदान नहीं कर सकते, तो समाज में हाशिये पर पटके जाएंगे। ऐसा भारत का दर्शन कदापि नहीं है।
ये समय समग्रता से सोचने का है। विश्व व्यवस्था में मानवाधिकार की बात, कानून के राज की बात, लोकतंत्र और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के सम्मान की बात-ये तीन आयाम हैं जिनपर दुनिया को मिल-बैठकर समग्रता से सोचना पड़ेगा और अपने-अपने यहां इन तीन मोर्चों पर व्यवस्थाएं ठीक करनी होंगी। अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं और तंत्र जिस तरह से निष्प्रभावी हुए हैं, उनकी साख को कायम करने के लिए वहां पारदर्शिता और पूरी दुनिया का ठीक से प्रतिनिधित्व करने के लिए भी नए समीकरण बिठाने की ओर दुनिया को बढ़ना पड़ेगा।
भारत जब ये कह रहा है तो इसकी गंभीरता इससे समझी जा सकती है कि भारत ने सबसे तेजी से टीकाकरण की मुहिम चलाई है। वह सबसे साधन संपन्न देश नहीं है, फिर भी वह ऐसा क्यों कर पा रहा है? क्योंकि भारत सबसे संवेदनशील देश है और कितनी संवेदनशीलता से यह काम होना चाहिए, भारत उसकी मिसाल रख रहा है। भारत 91 देशों को वैक्सीन की आपूर्ति भी कर रहा है। भारत वैक्सीन आपूर्ति में सबसे आगे कैसे निकल गया, वह तो हथियार बेचने में सबसे आगे कभी नहीं था, उपचार में कैसे आगे निकल गया? यहां भी मानवता की दृष्टि ही महत्वपूर्ण है। भारतीय कंपनी पतंजलि की कोरोनिल का निर्यात दुनिया के 138 देशों को हुआ है। ये भारतीयता का वह चेहरा है जो दुनिया देख रही है।
इस बीच, कुछ लोग राजनीति कर रहे हैं। उन्हें भारत की वैश्विक साख बनने, भारत के संवेदनशीलता से काम करने पर दिक्कत है। ये कहा गया कि भारत दूसरे देशों को वैक्सीन का निर्यात कर रहा है और अपने यहां अभाव हो रहा है। यह नैरेटिव पाकिस्तान जैसे देशों का होता तो समझ में आता है। परंतु जब हमारे ही देश का मुख्य विपक्षी दल ये बात कहे तो लगता है कि भारत वैक्सीन का भले निर्यात कर रहा हो परंतु संवेदनहीन विचार हमारे यहां आयात हो रहे हैं। यह एक छद्म धारणा है जो सुनियोजित तरीके से बनायी जा रही है।
इसके साथ ही जो लोग इस पर राजनीति कर रहे हैं, उन्होंने जमकर राजनीति की और बीते पूरे एक वर्ष के जो सबक रहे, उन पर जरा भी ध्यान नहीं दिया। यह ध्यान देने की बात है कि कोविड-19 के जो नए संक्रमण के मामले आ रहे हैं, उनमें से 80.8 प्रतिशत मामले सिर्फ 10 राज्यों यानी देश के एक तिहाई राज्यों से आ रहे हैं। इनमें भी महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, दिल्ली, तमिलनाडु, केरल, पंजाब जैसे राज्यों में संक्रमण के मामले रोजाना जिस तेजी से बढ़ रहे हैं और संक्रमण की कुल संख्या में जितनी बड़ी इनकी हिस्सेदारी है, उस अनुपात में इनका भूगोल नहीं है। जहां राहत दिखनी चाहिए थी, वहां आपदा बढ़ती दिख रही है। ऐसा क्यों हुआ? दरअसल जिस समय काम किया जा सकता था, तब केवल राजनीति होती रही। उस समय राजनीतिक उपद्रवों को हवा देने का काम इन राज्यों में खासतौर से हुआ। इन पंक्तियों को लिखे जाते समय महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और दिल्ली, इन तीन राज्यों में सबसे ज्यादा जानें गई हैं। कोरोना के बढ़ते मामलों के बीच राज्यों में भेजी गयी 50 उच्चस्तरीय स्वास्थ्य टीमों के फीडबैक के आधार पर केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और पंजाब को पत्र भी लिखा है जिसमें संक्रमण पर काबू पाने में आ रही कमियों की जानकारी दी गयी।
इन राज्यों के पास संसाधन थे परंतु उनका नियोजन कर उपयोग करने की दृष्टि नहीं थी। जैसे छत्तीसगढ़ के रायपुर से सटे बिरगांव नगर निगम के अंतर्गत निर्मित ईएसआईसी अस्पताल पूरी तरह से खाली है। परंतु उसका उपयोग अभी तक कोविड सेंटर के लिए नहीं किया जा रहा है। छत्ती गढ़ के डोगरगढ़ में आॅक्सी जन की कमी के चलते चार मरीजों की मौत हो गई और उनके शवों को कचरागाड़ी में ढोया गया। रायपुर के ही बीआर आंबेडकर अस्पताल के जूनियर डॉक्टर पीपीई किट, दस्तानों, मास्क आदि सुविधाओं को लेकर अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए हैं। अब यदि ये राज्य वैक्सीन की कमी का रोना रोते हैं तो बात समझ में नहीं आती। कोविड अस्पतालों का गठन, आॅक्सीजन की आपूर्ति, कोरोना योद्धाओं के लिए सुविधाएं राज्य को देनी हैं परंतु दृष्टि न होने से संकट बढ़ रहा है। विपक्ष की चिंता मरीज, कोरोना योद्धाओं के प्रति न होकर वे कटुताएं हैं जो शत्रु देश की हो सकती हैं। महाराष्ट्र की बात करें तो कोरोना त्रासदी से निपटने के लचर नमूनों के बीच वसूली का एक वृहद तंत्र बेनकाब हुआ-यह शर्मनाक है!
इस संकट के समाधान की दिशा में सबसे महत्वपूर्ण प्रधानमंत्री की कही यह बात है कि इस संकट को सिर्फ आर्थिक दृष्टि से न देखें। राजनीतिक दृष्टि से भी न देखें। उन मनुष्यों की जान की दृष्टि से भी देखें जो सिर्फ एक आंकड़ा भर नहीं हैं बल्कि देश की अनमोल संपदा हैं, अपने परिवारों के जीवन का आधार हैं। कोरोना से लड़ाई बड़ी है। नीतियों में, व्यवस्थाओं में, सोच में, नियोजन में, क्रियान्वयन में संवेदनशीलता, सतर्कता और परस्पर समन्वय के बिना यह लड़ाई कैसे जीती जाएगी!
@hiteshshankar
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