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पश्चिम बंगाल : बाहरी का दांव किस पर पडेÞगा भारी

by WEB DESK
Apr 9, 2021, 03:18 pm IST
in भारत, पश्चिम बंगाल
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प्रो.निरंजन कुमार

बंगाल के लोगों को इस बार ममता बनर्जी की ‘फूट डालो और शासन करो’ वाली कुटिल चाल समझ आ चुकी है। लोगों ने इस बार मन बना लिया है कि वे बंगाली बनाम बाहरी की इस घटिया राजनीति में नहीं पड़ेंगे और असली परिवर्तन के नारे को सफल बनाते हुए बंगाल को एक नए युग में लेकर जाएंगे।

‘फूट डालो और शासन करो’ यूरोप की पुरानी रणनीति रही है। भारत में अंग्रेजों ने इसे अपना और अन्य औपनिवेशिक शासकों ने भी दुनियाभर में इसी रणनीति को अपनाकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। इसके तहत लोगों को कई काल्पनिक टुकड़ों में बांटा गया, ताकि वे एक साथ आकर उनके निरंकुश शासन के खिलाफ न लड़ पाएं। अंग्रेजों ने भारत में अपने शासन के दौरान पहली बार बंगाल में ही प्लासी की लड़ाई के दौरान इस रणनीति पर अमल किया और पूरे देश में लागू किया। इस बार विधानसभा चुनाव में जिस तरह से बंगाली बनाम बाहरी का नैरेटिव जनता के सामने प्रस्तुत किया जा रहा है, उससे यही लग रहा है कि इतिहास अपने आप को दोहरा रहा है। जब राजनीति निहित स्वार्थ पर आधारित हो, तो सबसे पहले राष्ट्रीय और सार्वजनिक हितों को ही नुकसान पहुंचता है। इसके लिए कई तरह की तिकड़म लगाकर निहित स्वार्थ को साधा जाता है और शासन की गलत रणनीति अपनाई जाती है। ऐसी शक्ति के लिए औपनिवेशिक समय से जांची-परखी रणनीति ‘फूट डालो और शासन करो’ काम आती है। वर्तमान में बंगाल में भी बंटवारे की ऐसी ही राजनीति की कोशिशें जोरों पर हैं।

ममता की विभाजनकारी सोच
गैर-बंगाली लोगों की नजर में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) प्रमुख ममता बनर्जी को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की तरफ से जबरदस्त टक्कर मिल रही है और उनकी सत्ता के खिलाफ एक जोरदार लहर भी है। इसलिए वे भाजपा को बाहरी बता रही हैं। भाजपा को बाहरी बताना टीएमसी के लिए एक नया नैरेटिव है, जिससे वह ‘बंगाली बनाम बाहरी’ या ‘बंगाली बनाम गैर-बंगाली’ की एक झूठी कहानी गढ़ सकें। इस नैरेटिव की जड़ में ‘बंगाल शुदु बंगालिदर’(बंगाल सिर्फ बंगालियों का है) जैसी धारणा है। टीएमसी का नया नारा ‘अबंगाली बेरिये जाओ’ यानी ‘गैर-बंगाली बाहर जाओ’ है। प्रश्न यह है कि इस तरह की घृणा और विभाजनकारी सोच क्या वैध है? क्या यह संवैधानिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय मूल्यों पर खरी उतरती है?

भारतीय संविधान का निर्माण संविधान सभा के उपाध्यक्ष हरेंद्र कुमार मुखर्जी, जो बंगाली थे और बाबासाहेब आंबेडकर के नेतृत्व में हुआ था। लेकिन उन्होंने नागरिकों में किसी तरह का कोई भेदभाव नहीं किया। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-5 के अनुसार कोई भी नागरिक पूरे देश का नागरिक होगा, न कि किसी एक राज्य का। इसके अलावा, कोई भी नागरिक देश में किसी भी राज्य और क्षेत्र से न सिर्फ लोकसभा का, बल्कि विधानसभा चुनाव भी लड़ सकता है। अनुच्छेद-173 में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि भारत का कोई भी नागरिक किसी भी राज्य में विधानमंडल का सदस्य बनने योग्य होगा। इसलिए ‘बंगाली बनाम बाहरी’ का नारा टीएमसी की नाकामियों को छिपाने की एक बेकार कोशिश है और इसका कोई संवैधानिक आधार भी नहीं है।

दरअसल, ममता बनर्जी के मन में असुरक्षा की भावना घर कर गई है, इसीलिए वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को लेकर अनर्गल बयान देती हैं और तंज कसती हैं कि ये दोनों गुजरात से आते हैं। सच्चाई यह है कि दोनों ही बंगाल के लोगों की पीड़ा दूर करना चाहते हैं। किसी को भी यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री किसी राज्य के नहीं, पूरे देश के होते हैं। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी कुछ समय पूर्व ऐसा ही कुछ कहा था। राजनीतिक धरातल पर जांच की जाए तो जन प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 के अनुसार एक क्षेत्रीय पार्टी किसी दूसरे राज्य में तकनीकी आधार पर बाहरी पार्टी होती है। उदाहरण के लिए तमिलनाडु की डीएमके को बंगाल में और महाराष्ट्र की शिवसेना को तमिलनाडु में बाहरी पार्टी कहा जा सकता है। हालांकि, संविधान ऐसी क्षेत्रीय पार्टियों को अन्य राज्यों में भी चुनाव लड़ने की अनुमति देता है। यहां यह याद रखना चाहिए कि भाजपा, कांग्रेस व सीपीआई(एम) जैसी पार्टियां किसी एक राज्य तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनका पूरे देश में विस्तार है। ये पार्टियां लगभग पूरे देश में चुनाव लड़ती हैं। इन्हें बाहरी करार देना राजनीतिक समझ के दिवालियापन से ज्यादा कुछ नहीं है। दिलचस्प बात तो यह है कि टीएमसी अन्य दलों को बाहरी कहती है, जबकि यह पार्टी खुद बंगाल से बाहर झारखंड और बिहार जैसे राज्यों में चुनाव लड़ती है।

सभी भारतमाता की संतान
इसके अलावा, ‘बंगाली बनाम बाहरी’ नारा सांस्कृतिक रूप से भी पूरी तरह से अस्वीकार्य है। बंगाल और भारत के अन्य हिस्से एक हैं और परस्पर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। वास्तव में बंगाल भारत की सांस्कृतिक राजधानी है और ‘भारतमाता’ एक लोकप्रिय प्रतीक है। भारत में पुरातन काल से ही जन्मस्थान को माता कहा जाता है। वेदों में भी कई ऐसे मंत्र हैं जो कहते हैं ‘धरती मेरी मां है और मैं उसकी संतान हूं (माता भूमि: पुत्रो अहं पृथिव्या)।’ लेकिन यह बंगाल की ही भूमि थी, जहां पहली बार इस महान देश को ‘भारत माता’ के रूप में संदर्भित किया गया।

1873 में किरन चंद्र बनर्जी के नाटक ‘भारतमाता’ में पहली बार ‘भारतमाता’ शब्द का उल्लेख हुआ। भारतमाता की कल्पना बंगाल में एक देवी के रूप में की गई, जो अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ने वाले देशभक्तों को आशीर्वाद और ऊर्जा देती थी। 1882 में बंकिमचंद्र चटर्जी ने अपने उपन्यास ‘आनंद मठ’ में भारत भूमि का उल्लेख भारतमाता के रूप में किया, जिसे आगे चलकर पूरे देश में भारतीय राष्ट्रवाद के प्रतीक के रूप में अपनाया गया। इसके बाद मशहूर बंगाली चित्रकार अबनिंद्रनाथ टैगोर ने पहली बार भारतमाता का एक चित्र बनाया, जिसमें उसे एक देवी के रूप में दर्शाया गया था। इस चित्र में भारतमाता ने केसरी रंग ओढ़ा हुआ था और उनकी चार भुजाएं थीं। आज भी यही चित्र भारतमाता के स्वरूप को दर्शाता है।

भारतमाता की कोई भी संतान किसी एक राज्य की नहीं है और न ही वह अन्य राज्य में अनाथ है। पूरा देश ही भारतमाता की संतान है। न तो भारतमाता के लिए और न ही इसके संवैधानिक ढांचे की रक्षा करने वालों के लिए कोई भी व्यक्ति बाहरी है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुजरात से बंगाल व अरुणाचल तक हम सब भारतीय हैं। हम कैसे भूल सकते हैं कि स्वामी विवेकानंद जैसे महापुरुष जो बंगाल में ही पैदा हुए थे, लेकिन बार-बार कहते थे कि उन्हें भारतीय होने पर गर्व महसूस होता है, वह सिर्फ बंगाली नहीं हैं। घृणा की इसी राजनीति के धोखे के चलते प्रभु श्रीराम को सांस्कृतिक रूप से उत्तर भारतीयों के आदर्श के तौर पर पेश किया जा रहा है, जबकि बंगाली संस्कृति के लिए उन्हें बाहरी करार दिया जा रहा है। इंडो-आर्यन भाषाओं में जब पहली बार रामायण लिखी गई तो वह भाषा न तो हिंदी थी न ही गुजराती, बल्कि बंगाली थी। गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमास से भी करीब एक शताब्दी पहले बांग्ला कवि कृतिवास ने कृतिवासी रामायण की रचना की थी। बंगाल में कृतिवास रामायण की लोकप्रियता उसी रूप में है, जिस रूप में हिंदी भाषी क्षेत्र में रामचरितमानस है।

सीमाओं के पार प्रभु श्रीराम
महाकवि रवींद्रनाथ ठाकुर भी भगवान श्रीराम के चरित्र से प्रभावित थे। प्रसिद्ध शिक्षाविद् भाबतोष दत्त ने ‘रवींद्रनाथ टैगोर आॅन द रामायण एंड द महाभारत’ नामक अपनी किताब में इसका जिक्र किया है। गुरुदेव रवींद्रनाथ ने अपनी नृत्य नाटिका ‘रक्त कराबी’ और काव्य रचना ‘अहल्यार प्रति’ की प्रस्तावना में श्रीराम के चरित्र को मनोहर, सौंदर्य, शांति और महानता का पर्याय बताया है। लेकिन लगता नहीं कि इस बात को दोहराने की जरूरत है कि श्रीराम को किसी एक क्षेत्र विशेष से जोड़ना और बंगाल के लिए बाहरी बताना सिर्फ संकीर्ण सांप्रदायिक राजनीतिक सोच है।

आधुनिक इतिहास की बात करें तो यहां भी आजादी की लड़ाई उस काल का सुनहरा अध्याय है। इस दौरान भी बंगाल और अन्य राज्यों के लोगों ने किसी एक राज्य की आजादी की कामना नहीं की थी, बल्कि वे पूरे देश को अंग्रेजों से आजाद कराने के लिए लड़े। सभी देशवासियों ने एक साथ, एकजुटता की भावना के साथ सभी की गरिमा को बहाल करने के लिए संघर्ष किया। यहां तक कि 1857 में जब अवध के मंगल पांडे ने बंगाल के बैरकपुर में आजादी की उस पहली लड़ाई की नींव रखी तो उनका यह संघर्ष किसी एक राज्य या किसी एक समूह की गरिमा के लिए नहीं था, बल्कि पूरे देश के लिए था। फिर चाहे वह बंगाल के विभाजन का विरोध हो या 1905 में स्वदेशी आंदोलन, महात्मा गांधी का बिहार में चंपारण सत्याग्रह हो या पंजाब में जलियांवाला बाग में प्रदर्शन, सविनय अवज्ञा आंदोलन हो या भारत छोड़ो आंदोलन या फिर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज को भारत पहुंचाने की कोशिश, हर किसी का लक्ष्य देश की आजादी था, न कि किसी एक राज्य की आजादी।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान राष्ट्रवाद की अलख जगाने वाले अग्रणी राज्य पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस आज तमिलनाडु की डीएमके और महाराष्ट्र की शिवसेना की राह पर निकल पड़ी है। टीएमसी उपराष्ट्रवाद की आग और क्षेत्रीयता की भावना को भड़काने की कोशिश कर रही है। यह गंभीर स्थिति है, खासतौर पर ऐसे समय जब हमारा देश पड़ोसी देश चीन की खतरनाक आक्रामकता, पाकिस्तान की नापाक गतिविधियों व चीन के बहकावे पर नेपाल के अवांछित रुख का सामना कर रहा है। इस तरह की घटिया राजनीति राष्ट्र और राष्ट्रीय भावना को कमजोर करती है। किसी भी जिम्मेदार राजनीतिक को ऐसी गतिविधियों से बचना चाहिए। यह भी कटु सत्य है कि चुनाव के समय पर राजनीति तो होगी ही, लेकिन चुनावी लड़ाई आर्थिक विकास, गरीबी उन्मूलन, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसी जमीनी सच्चाई और अन्य मुद्दों पर होनी चाहिए, जिसमें विकास का नजरिया हो।

इसके अलावा, बांग्ला उप-राष्ट्रवाद की भावना को भड़काने और गैर-बंगाली लोगों को बाहरी कहने से उन 2 करोड़ बंगाली लोगों पर मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ता है जो बंगाल से बाहर रहते हैं। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि बंगाल में, खासतौर पर कोलकाता में बड़ी संख्या में पड़ोसी राज्यों से श्रमिक आते हैं। यही नहीं, राजस्थान के समृद्ध मारवाड़ी समुदाय की भी बंगाल में अच्छी उपस्थिति है। बंगाल की कुल आबादी में इन गैर-बंगाली लोगों की अच्छी-खासी संख्या है और बंगाल को खड़ा करने में इन्होंने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अपरिपक्व और असंवेदनशील राजनीतिक ताकतों द्वारा बंगाली बनाम बाहरी के इस विवाद का उद्देश्य एकता की भावना को नष्ट करना तथा हिंसा व उथल-पुथल के एक नए दौर की शुरुआत करना है। ऐसा करके वे बंगाल में गैर बंगालियों के लिए और देश के अन्य हिस्सों में बंगालियों के लिए नई मुसीबत खड़ी कर रहे हैं। आज गुरुदेव होते तो बंगाल को तबाह होते देखकर बहुत दुखी होते। उन्होंने एक सपना देखा था, जहां दुनिया जाति, वर्ग, रंग और पांथिक जैसे किसी संकीर्ण खांटे में नहीं बंटी हुई हो। अपने उस सपने को बिखरता देखकर वह कहते, ‘‘हे ईश्वर! आजादी के उस स्वर्ग में मेरे देश को जगाए रखना।’’

ऐसा लगता है कि बंगाल के लोग इस बार ‘फूट डालो और शासन करो’ की इस कुटिल चाल को समझ चुके हैं और उन्होंने पूरा मन बना लिया है कि वे इस झूठे नैरेटिव को खारिज कर बंगाल को नए दौर में ले जाने के लिए असली परिवर्तन लेकर आएंगे।
(लेखक शिक्षाविद् हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के केंद्रीय हिंदी विभाग से जुड़े हैं)

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