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होम भारत

चुनौती से बढ़ी चिंता

by WEB DESK
Apr 1, 2021, 07:11 pm IST
in भारत
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डॉ. कमल किशोर गोयनका

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और साहित्य पर कुछ लिखने से पहले वामपंथी पत्रिका ‘पहल’ के अंक 106 में प्रस्थापित इस मत का खंडन करना आवश्यक है कि मोदी सरकार के आने के बाद सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर चर्चा तेज हो गई है। ‘सोशल मीडिया और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ लेख में जगदीश्वर चतुर्वेदी ने इस चर्चा के मूल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देखा है और उनकी स्थापना है कि यह काल्पनिक धारणा है, भिन्नता और वैविध्य का अभाव है तथा एक असंभव विचार है।

यह सारा विचार एवं निष्कर्ष तथ्यों-तर्कों के विरुद्ध है और वामपंथी विचारों की भारत-विरोधी, हिंदू-विरोधी तथा सांस्कृतिक-विरोधी अवधारणाओं को उजागर करता है। वामपंथी न तो भारत राष्ट्र को समझते हैं, न संस्कृति को और न देश की सांस्कृतिक एकता को। वे उस इतिहास को भी नहीं जानते और न जानना चाहते हैं, जिसमें वैदिककाल से आज तक, हजारों वर्षों से एक सांस्कृतिक धारा का निरंतर प्रवाह हो रहा है और भारत की सनातन हिंदू संस्कृति ने देश को एकसूत्र में बांधा हुआ है। भारत को समझने तथा उसकी हिंदू संस्कृति तथा राष्ट्रभाव को समझने के लिए वेद, उपनिषद्, पुराण, रामायण, महाभारत के साथ संपूर्ण संस्कृत साहित्य, मध्ययुग के भक्ति आंदोलन तथा आधुनिक युग के जागरण काल के इतिहास से गुजरना होगा और तभी देश के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मर्म से साक्षात्कार हो सकेगा। यहां विस्तार से संस्कृत साहित्य की चर्चा तो संभव नहीं है, पर इतना कहा जा सकता है कि राष्ट्र की पहली कल्पना संस्कृत साहित्य से मिलती है और हमारी सांस्कृतिक अवधारणा का स्वरूप भी उसी समय में निर्मित हो चुका था।

भारत एक भू-सांस्कृतिक राष्ट्र है, एक सांस्कृतिक अवधारणा है तथा राजनीतिक रूप से एक इकाई न होने पर भी सांस्कृतिक रूप से हमेशा एक राष्ट्र रहा है। भारत हिंदू राष्ट्र है और हिंदुत्व और भारतीयता पर्यायवाची शब्द हैं। हिंदू धर्म का कोई एक पैगम्बर तथा कोई एक ग्रंथ नहीं है। वह बहुलतावादी है, किंतु यह बहुलता एकत्व में अंतर्भूत है। ईश्वर ने भौगोलिक रूप में एक राष्ट्र बनाया है और यहां का सांस्कृतिक जीवन एक रूपात्मक है। अत: यह कहने में कोई गलती नहीं है कि इस एकता में बहुलता और विविधता समाई है।

भारत की सांस्कृतिक एकता तथा एक राष्ट्रीयता का स्वरूप स्पष्ट एवं व्यापक है, लेकिन आश्चर्य होता है कि भारत को बहुराष्ट्रीय महाद्वीप मानने वाले यूरोपियों, वामपंथी इतिहासकारों तथा पंथनिरपेक्षतावादियों को वह दिखाई नहीं देता। असल में ये उसे देखना ही नहीं चाहते, क्योंकि इस सत्य को स्वीकार करते ही भारत को तोड़ने की उनकी दुरभिसंधि का पर्दाफाश हो जाएगा। मानसिक गुलामी तथा औपनिवेशिक आधुनिकता ने उन्हें एक प्रकार से राष्ट्र एवं संस्कृति-द्रोही बना दिया है, उन्हें इतिहास बोध खो चुका है, सांस्कृतिक स्मृतियां एवं भारत अनुराग क्षीण हो गया है, लेकिन इसकी सांस्कृतिक एकता ने भारत की हस्ती को मिटने नहीं दिया और यथासमय उसका ज्वार, उसका आंदोलन तथा उसकी जागृति होती रही है। आप भक्तिकाल का साहित्य और संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल की पुस्तक ‘भारत की संत परंपरा और सामाजिक समरसता’ को देखें तो पता चलेगा कि भक्ति आंदोलन ने कैसे हिंदू समाज को भक्ति, अध्यात्म, समरसता तथा जीवनमूल्यों से जोड़े रखा तथा कैसे उन्होंने अत्याचारी मुसलमान शासकों के विरुद्ध संघर्ष किया।

भक्ति ने संपूर्ण देश में हिंदू धर्म को जीवित रखा और इस्लाम के विरुद्ध एक आध्यात्मिक सुरक्षा कवच का निर्माण किया। इस ग्रंथ में देश की 18 भाषाओं के संत साहित्य का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला गया है कि भक्ति आंदोलन ने हिंदू समाज का परिष्कार किया, उसके श्रेष्ठ जीवन-मूल्यों एवं उसकी सनातनता को चिरंजीवी बनाया। यदि हम आधुनिक युग के जागरण काल को देखें तो उसी प्रकार का राष्ट्रीय जागरण मुख्यत: हिंदू जागरण था तथा एक प्रकार से सांस्कृतिक जागरण था, देश की सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के उन्नयन का ही आंदोलन था। राजा राममोहन राय से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक के इतिहास में देश के चारों ओर एक सांस्कृतिक चेतना का तेजी से प्रसार होता है और देश की अस्मिता, स्वतंत्रता, सांस्कृतिक एकता आदि के विचार जनता को मथने लगते हैं।

सारा देश एक तरह से सोचता है, देश में राष्ट्र-भाव उत्पन्न होकर यह विचार उत्पन्न होता है कि हम क्या थे, क्या हो गए हैं और क्या होंगे अभी। इस सांस्कृतिक जागरण में पंथ, जाति, क्षेत्र, भाषा आदि सभी विभेद गायब हो जाते हैं और राम, कृष्ण, शिवाजी, प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, गीता, भारतमाता, वंदेमातरम् आदि सभी के लिए प्रेरणास्रोत बन जाते हैं। गांधी तो राम को प्रेरणा पुरुष मानते हैं और राम राज्य की स्थापना करना चाहते हैं।

विवेकानंद हों या तिलक या गांधी या भगत सिंह, सभी गीता से शक्ति ग्रहण करते हैं और स्वामी दयानंद वैदिक संस्कृति की स्थापना करते हैं। आप सोचें, टैगोर ने शिवाजी पर कविता लिखी, सुब्रह्मण्यम भारती ने गुरु गोविंद सिंह पर तथा प्रेमचंद ने राणा प्रताप एवं स्वामी विवेकानंद पर लेख लिखे। हिंदी के एक लेखक ने हिंदी, हिंदू, हिन्दुस्थान का विचार प्रस्तुत किया और जयशंकर प्रसाद ने भारतीय इतिहास से आख्यान लेकर देशभक्ति तथा दासता से मुक्ति का भाव उत्पन्न किया और मैथिलीशरण गुप्त तो हिंदू संस्कृति तथा राष्ट्रीयता के ही आख्यान काव्य लिख रहे थे। ये कुछ उदारहण हैं कि हम भारतीय एक हैं, अनेक होकर भी एक हैं, हमारी संस्कृति, चिंतन, अध्यात्म मूल्य आदि सभी एक हैं और हमारे आदर्श राम, कृष्ण, शिव, चाणक्य, प्रताप, शिवाजी, विक्रमादित्य, शंकराचार्य, तुलसी, कबीर, गांधी आदि राष्ट्रीय महानायक हैं।

भारत के स्वाधीनता संग्राम के मूल में मुख्यत: हिंदू धर्म, संस्कृति, दर्शन साहित्य के समुच्चय से निर्मित भारतीय अवधारणा तथा पुरातन भारत को आधुनिक रूप में रूपायित करने का संघर्ष था। गांधी के स्वराज्य और राम-राज्य में भारतीय तत्व ही थे, जिसमें सनातन भारतीय संस्कृति एवं जीवन दृष्टि का गहरा प्रभाव था, परंतु स्वतंत्र भारत में नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के कारण स्वाधीनता संग्राम में जो भारत का भावी स्वरूप था, वह परिदृश्य से अदृश्य हो गया और पश्चिम एवं साम्यवादी जीवन दर्शन का प्रभुत्व हो गया। इस कालखंड में भारत, भारतीयता, राष्ट्रीयता, सांस्कृतिक एकता, हिंदू, हिंदू धर्म आदि शब्द तिरस्कृत और अपमानित बना दिए गए और वामपंथी इतिहासकार, कथित सेकुलर और लीगी कट्टरवादी तत्वों ने देश के सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय आधार पर आक्रमण शुरू कर दिए।

स्वतंत्र भारत के इस भारतीय संस्कृति तथा राष्ट्रीयता के विरोधी वातावरण में हिंदू शब्द का अर्थ ‘सांप्रदायिक’ तथा ‘कट्टर’ के रूप में प्रचारित किया गया और बहुसंख्यक समाज की दशा अल्पसंख्यक समाज से भी गई-गुजरी हो गई। देश के प्रगतिशील लेखकों को राजाश्रय के साथ रूस का आश्रय मिला और देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों, अकादमियों, पुरस्कारों आदि पर इनका कब्जा हो गया। इन प्रगतिशीलों ने साहित्य की मुख्यधारा, जो सांस्कृतिक राष्टÑीयता की धारा थी, जो वैदिक काल से निरंतर प्रभावित होकर भारतेंदु हरिश्चंद्र, मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद और दिनकर तक बनी हुई थी, उसे प्रगतिशील साहित्य धारा के रूप में बदल दिया और अब रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, मुक्तिबोध, नागार्जुन, धूमिल, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन आदि ही साहित्य की मख्यधारा के संस्थापक साहित्यकार बन गए।

इन प्रगतिशीलों की मुख्य धारा में वाल्मीकि, तुलसी, भूषण, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्राकुमारी चौहान, श्यामनारायण पांडेय, रामकुमार वर्मा, दिनकर, महादेवी, पंत, प्रसाद, अज्ञेय आदि अनेक राष्ट्रीय साहित्यकारों को गायब कर दिया गया। इन वामपंथियों ने तुलसीदास तक को पाठ्यक्रमों से हटा दिया और भक्तिकाल के सांस्कृतिक एवं साहित्यिक जागरण को केवल कबीर तक सीमित कर दिया। इससे बड़ा राष्ट्रद्रोह क्या होगा कि देश की नई पीढ़ी को भारत की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों तथा सांस्कृतिक उत्कर्ष राष्ट्रीय अवधारणा से ही अलग-थलग कर दिया जाए! खैर, अब उन्हें लग रहा है कि चुनौती मिलने लगी है।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

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