पश्चिम की कुछ खबरों में लगातार भारत के लोकतंत्र पर सवाल उठाए जा रहे हैं, क्योंकि केंद्र में उनके इशारे पर चलने वाली कठपुतली सरकार नहीं है। शायद इन्हीं से शह पाकर मोदी विरोध में राहुल विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की छवि बिगाड़ने पर तुले हैं
भारत में 2014 के आम चुनाव से पहले से ही पश्चिमी मीडिया में संभावित बदलाव को लेकर कयास शुरू हो गए थे। अप्रैल 2014 में लंदन के गार्जियन समाचारपत्र में भारत से जुड़े कुछ लेखकों और कलाकारों का पत्र छपा था कि ‘चुनाव में नरेंद्र मोदी की विजय हुई, तो भारत के लिए यह अशुभ हो जाएगा।’ ‘इकोनॉमिस्ट’ ने तो बाकायदा नरेंद्र मोदी को हराने का आह्वान किया था। वाशिंगटन पोस्ट और न्यूयॉर्क टाइम्स का रुख भी यही था और यह तब से अब तक चला आ रहा है।
पश्चिमी मीडिया की दृष्टि में लोकतांत्रिक बदलाव भारतीय लोकतंत्र के लिए घातक है। यानी उनकी दृष्टि में लोकतंत्र वह है, जो कुछ अखबार, लेखक, एनजीओ और चुनिंदा राजनीतिक नेता तय करें। एक समय तक दुनियाभर में इस लोकतंत्र की तारीफ होती थी, उसे अब कोसा जा रहा है। कहा जा रहा है कि केवल चुनाव करा देना लोकतंत्र की गारंटी नहीं है। किसने कहा कि यही लोकतंत्र की गारंटी है? जिस समय जातीय और सांप्रदायिक वर्गों से वोट बटोरने का काम चल रहा था, तब यह बात क्या समझ में नहीं आती थी? राजनीतिक दल इस लोकतंत्र के सबसे बड़े वाहक हैं। यह सच है कि बड़ी संख्या में राजनीतिक दल खानदानी व्यवसाय के रूप में चल रहे हैं, पर उन्हें अलोकतांत्रिक नहीं माना जाता, बल्कि लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकार को अलोकतांत्रिक कहा जा रहा है।
हर घर में लोकतंत्र
जिस देश में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर हर रोज किसी न किसी किस्म के चुनाव होते हों, वहां लोकतंत्र इतनी आसानी से कैसे खत्म हो जाएगा? हर घर के भीतर लोकतंत्र है। भारतीय समाज तानाशाही को स्वीकार करता ही नहीं। उसके मिजाज में वह बात नहीं है। आपातकाल इसलिए नहीं हटा था कि तब सरकार का लोकतांत्रिक-प्रेम जाग गया था, बल्कि इसलिए हटा, क्योंकि सरकार को समझ में आ गया था कि ऐसा ज्यादा दिन नहीं चलेगा। तब आज जैसा सोशल मीडिया भी नहीं था।
क्या वजह है कि लोकतंत्र के पश्चिमी पहरेदारों को दिक्कतें हैं? ब्रिटेन का हाउस आॅफ कॉमंस तमाम जरूरी बातों को भुलाकर भारत के कृषि-कानूनों की उपादेयता पर विचार कर रहा है। अमेरिका के हाउस आॅफ रिप्रेजेंटेटिव्स में अनुच्छेद-370 की बातें हो रही हैं। बेशक हमारा लोकतंत्र तब और भरा-पूरा होगा जब नागरिकों की भागीदारी और बढ़ेगी। इसके लिए बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना की जरूरत है।
सच बात यह है कि पश्चिम के स्वयंभू पहरेदारों की भारत के बारे में समझ शून्य है। वे भारत के अंग्रेजी मीडिया को देखते और पढ़ते हैं। हाल में भारतीय लेखक संजीव सान्याल ने एक छोटा सा नोट ट्विटर पर साझा किया, जिसमें बताया गया है कि भारत के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को लेकर विश्व व्यापार संगठन का भारत पर किस कदर दबाव है। इसके जवाब में भारत में नीदरलैंड के पूर्व राजदूत अलफोंससस्टोलिंगा ने एक रोचक ट्वीट किया है। उन्होंने लिखा, ‘‘संजीव, हमारे (यानी पश्चिमी) मीडिया की जानकारी भारत के अंग्रेजी मीडिया तक सीमित होती है। वे भारत के अंग्रेजी मीडिया की कॉपी भर होते हैं।’’
राजनीतिक नजरिया
हाल में स्वीडन स्थित वी-डेम इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट में भारत को ‘इलेक्टोरल आॅटोक्रेसी’ यानी लोकतांत्रिक तानाशाही की श्रेणी में रखा गया है। इसमें दावा किया गया है कि भारत में नागरिक समाज समूहों और स्वतंत्र भाषण में बाधा आ रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भाजपा के सत्ता में आने के बाद देश में नागरिक समाज समूहों और स्वतंत्र भाषण पर प्रतिबंध सा लग गया है। उसके पहले अमेरिकी थिंकटैंक फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट में भारत को स्वतंत्र देश की श्रेणी से हटाकर ‘आंशिक रूप से स्वतंत्र’ देश की श्रेणी में डाल दिया गया। दोनों ही रिपोर्ट में सन् 2014 में हुए राजनीतिक बदलाव को दोष दिया गया है।
संयोग से 2014 में ही स्थापित वी-डेम 2017 के बाद से लोकतंत्र पर रिपोर्ट प्रकाशित कर रहा है। यह संस्थान अपने आप को लोकतंत्र पर दुनिया की सबसे बड़ी डेटा संग्रह परियोजना कहता है। क्या इन संस्थाओं के पास जरूरी तथ्य उपलब्ध हैं? क्या वे लगातार बढ़ती साक्षरता, महिला सशक्तीकरण और सामाजिक-न्याय के कारण पैदा हुई चेतना के क्रमिक विकास का वस्तुनिष्ठ अध्ययन करने की स्थिति में हैं?
इस रिपोर्ट के राजनीतिक निहितार्थ को समझने के लिए कांग्रेस के नेता राहुल गांधी के बयान पर गौर करें। उनका कहना है कि ‘भारत अब लोकतांत्रिक देश नहीं रहा’। उन्होंने ट्विटर पर वी-डेम से जुड़ी खबर को टैग करते हुए ट्वीट किया, ‘‘भारत अब लोकतांत्रिक देश नहीं रहा।’’
सूचकांक क्रांति
फ्रीडम हाउस की सालाना रिपोर्ट को लेकर बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट में मानवाधिकार कार्यकर्ता आकार पटेल ने कहा, ‘‘पिछले 5-6 साल से लगातार कई सूचकांकों, में भारत की रेटिंग गिर रही है। विश्व बैंक के दो सूचकांक वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के 2-3 सूचकांक, इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट, ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल समेत ऐसे 40 सूचकांक हैं, जहां पर 2014 से भारत की रेटिंग नीचे आई है।’’ यह सब कौन तय कर रहा है और कैसे तय कर रहा है, इसे देखने की जरूरत है।
‘फ्रीडम हाउस’ के आकलन में दो आधारों पर किसी देश की स्वतंत्रता का फैसला होता है। पहला, राजनीतिक स्वतंत्रता और दूसरा नागरिक स्वतंत्रता। राजनीतिक स्वतंत्रता यानी चुनाव और अन्य व्यवस्थाएं, जिसके लिए इस रेटिंग में 40 अंक रखे गए हैं। इसमें भारत को 34 अंक दिए गए हैं। यानी राजनीतिक स्वतंत्रता में भारत दुनिया के शीर्ष देशों में शामिल है, पर नागरिक स्वतंत्रता में 60 में से 33 अंक मिले हैं। इस प्रकार कुल 67 अंक हैं। इनमें इंटरनेट पर लगी बंदिशें भी शामिल हैं, जो अगस्त 2019 में अनुच्छेद-370 की वापसी के बाद कश्मीर घाटी में लगाई गई थीं। रिपोर्ट में सबसे बड़ी संख्या ‘आंशिक-स्वतंत्र’ देशों की है। इनमें हालांकि भारत का स्थान अपेक्षाकृत ऊंचा है, क्योंकि स्वतंत्र-देशों के लिए आवश्यक 70 अंकों से हमारे तीन अंक ही कम हैं, पर 37 अंक पाने वाला पाकिस्तान भी उसी ‘आंशिक’ श्रेणी में है, जिसमें भारत है। ध्यान दें, पाकिस्तान अधिक्रांत कश्मीर को 28 अंक और हमारे जम्मू-कश्मीर को 27 अंक मिले हैं। दोनों ‘नॉट फ्री’ इलाके हैं। जम्मू-कश्मीर में जिस साल इंटरनेट पर रोक लगाई गई, तब उसे 28 अंक मिले थे और जब 4-जी की वापसी हुई और जिला विकास परिषद के चुनाव हुए, तब एक अंक और कम हो गया। ऐसा क्यों?
लोकतांत्रिक ताना-बाना
भारत में 2014 के बाद हुए राजनीतिक बदलाव का उल्लेख ‘फ्रीडम हाउस’ की रिपोर्ट में भी कई बार हुआ है। उसकी शब्दावली देश की आंतरिक राजनीति से प्रभावित लगती है। ज्यादा बड़े सवाल देश की सम्प्रभुता से जुड़े हैं। रिपोर्ट के साथ लगे भारत के नक्शे से जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को गायब करना गंभीर सवाल खड़े करता है। उसे देश के नक्शे से छेड़छाड़ करने का अधिकार किसने दे दिया? इन अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को देश का लोकतांत्रिक ताना-बाना दिखाई नहीं पड़ता। रिपोर्ट में इस बात का जिक्र नहीं है कि अदालतों ने कई मौकों पर सरकार पर टिप्पणियां की हैं। क्या तानाशाही व्यवस्थाओं में सरकारी आलोचना संभव है? देश में न्यायपालिका, मानवाधिकार आयोग, अल्पसंख्यक आयोग और महिला आयोग भी हैं। आलोचना करने वाला मीडिया भी है। क्या पूरा मीडिया ‘गोदी-मीडिया’ है? ‘गोदी-मीडिया’ कहने वालों के मुंह बंद हैं क्या? भारतीय पत्रकारों के मुंह बंद हैं, तो पश्चिम को कहां से खबरें मिल रही हैं? क्या भारतीय अखबारों में सरकार की आलोचना बंद हो गई है? पश्चिम में सरकार-समर्थक और सरकार-विरोधी मीडिया होता है, भारत में भी है।
कई मायनों में भारत को लेकर पश्चिमी-दृष्टि सन् 1947 के बाद से ही टेढ़ी है। कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र लेकर जाने पर क्या हुआ? ‘फ्रीडम हाउस’ ने दर्जा कम करने के जो कारण गिनाए हैं, उनमें कोविड-19 के दौरान लागू किया गया लॉकडाउन भी शामिल है। लॉकडाउन का उद्देश्य नागरिकों की रक्षा करना था या अधिकारों को दबाना? क्या लॉकडाउन भारत में ही लगा था, यूरोप के देशों में नहीं? भारत ने 70 देशों को वैक्सीन देने की पहल की है। क्या यूरोप के लोकतंत्रों के पास इस प्रकार की उदार-दृष्टि है? क्या वे गरीब और कमजोर देशों की मदद के लिए आगे आए?
विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने एक चैनल से बातचीत में कहा कि पश्चिमी की तमाम रिपोर्ट में ‘डेमोक्रेसी’ और ‘आटोक्रेसी’ की बातें वस्तुत: ‘हिपोक्रेसी’ (पाखंड) है। इन लोगों ने खुद को दुनिया का संरक्षक मान लिया है। उन्हें इस बात से परेशानी होने लगती है कि भारत में कोई है, जो उनकी मंजूरी का इंतजार नहीं कर रहा। उनके बनाए खेल को उनके हिसाब से नहीं खेल रहा। जयशंकर ने कहा, ‘‘हमारी भी आस्थाएं हैं, मान्यताएं हैं, हमारे मूल्य हैं, लेकिन हम अपने हाथ में धार्मिक पुस्तक लेकर पद की शपथ नहीं लेते… हमें किसी के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है, खासतौर पर उन लोगों से तो बिल्कुल भी नहीं, जिनका एक एजेंडा है।’’
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
कांग्रेस का ‘लोकतंत्र’
वी-डेम की रिपोर्ट के संदर्भ में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने ट्वीट किया, ‘‘भारत अब लोकतांत्रिक देश नहीं रहा।’’ क्या उन्हें नहीं लगता कि वे चुनाव लड़कर सत्ता परिवर्तन करा पाएंगे? एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की हाल की रिपोर्ट के अनुसार, 2016 से 2020 के बीच कांग्रेस के 170 विधायकों ने पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टियों की शरण ली है। ज्यादातर की शिकायत रही है कि पार्टी में उनकी बात नहीं सुनी जाती, लोकतंत्र नहीं है। क्या राहुल गांधी को आंतरिक लोकतंत्र पर भरोसा है? पिछले कुछ महीनों से कांग्रेस नेताओं के समूह जी-23 की चिट्ठी का प्रकरण देश में चल रहा है। उनकी मांग है कि पार्टी में हर स्तर पर चुनाव हों। पार्टी में चुनाव कराने में क्या परेशानी है?
राहुल गांधी
दिसंबर 2010 में बुराड़ी में हुए कांग्रेस के 83वें अधिवेशन में पार्टी के संविधान में संशोधन कर यह तय किया गया कि अब हर पांच साल में चुनाव होंगे। उसके पहले हर तीन साल में चुनाव कराने की व्यवस्था थी। पार्टी अध्यक्ष का कार्यकाल भी तीन साल से बढ़ाकर पांच साल कर दिया गया। इस लिहाज से 2015 में चुनाव होना चाहिए था, पर वह 2017 में हुआ और उस साल 16 दिसंबर को राहुल गांधी ने औपचारिक रूप से पार्टी अध्यक्ष का पद संभाला। फिर 2019 के चुनाव में पराजय के बाद पद छोड़ दिया। तब से अंतरिम व्यवस्था चल रही है। अब यदि जून में नए अध्यक्ष की नियुक्ति हो भी जाएगी, तब भी उनका कार्यकाल करीब डेढ़ साल का होगा, क्योंकि 2022 में चुनाव फिर से होंगे।
पार्टी की सर्वोच्च संस्था कांग्रेस कार्यसमिति है। उसके सारे सदस्य मनोनीत होते हैं। क्या वह कभी चुनकर आएगी? यह कैसा लोकतंत्र है? पिछले करीब 40 वर्षों में अब तक केवल दो ही मौके आए हैं, जब कांग्रेस में चुनाव हुए हैं। नवीनतम चुनाव 2000 में हुआ था, जब सोनिया गांधी के मुकाबले जितेंद्र प्रसाद ने अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा था। उससे पहले 1997 में हुए चुनाव में सीताराम केसरी ने शरद पवार और राजेश पायलट को हराया था। बाद में वे खुद हटा दिए गए। कांग्रेस कार्यसमिति के चुनाव भी केवल दो बार हुए हैं। एक बार 1992 में तिरुपति में और दूसरी बार 1997 में कोलकाता में। जी-23 के नाम से पहचाने जा रहे पार्टी के वरिष्ठ नेता हर स्तर पर चुनाव की मांग कर रहे हैं। खासतौर से कार्यसमिति और केंद्रीय चुनाव समिति के सदस्यों के चुनाव की उनकी मांग है। पार्टी के संविधान के अनुसार चुनाव प्राथमिक यानी बूथ स्तर से लेकर अध्यक्ष के पद तक होंगे। पर ऐसा अभी तक हुआ नहीं है।
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