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‘सिंह’ और संघ हैं साथ

by WEB DESK
Mar 17, 2021, 02:59 pm IST
in संघ
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भेदभाव मुक्त दृष्टि और मार्यादाओं पर जोर है साझेपन का सूत्

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सिख समाज को वृहत्तर हिंदू समाज का अभिन्न, चेतन और सुसंस्कारित अंग मानता है। यह अंग और मजबूत हो और दोनों मिलकर देश की सेवा कर सकें, इसके लिए अनेक प्रयास हुए हैं और अभी भी हो रहे हैं
सिख पंथ एक सामाजिक, पांथिक एवं राष्ट्रीय चेतना का आंदोलन है। जब बाबर ने इस भारतवर्ष के एक कस्बे ऐमनाबाद (सैदपुर) पर आक्रमण किया, तो श्री गुरु नानकदेव जी ने इसे हिंदुस्थान पर आक्रमण बताया। इस बेला में उन्होंने फरमाया कि जब सच बोलने का अवसर आया है तो मैं अपने जीवन की कोई चिंता न करते हुए सच ही बोलूंगा और यह भी कामना की कि यह हिंदुस्थान, जो बाबर के आक्रमण के कारण दलित, दमित हो रहा था, स्वयं को संभालेगा।

इस प्रकार श्री गुरुनानक देव जी ने भारत को आगाह किया कि यह आक्रमण भारत की आध्यात्मिक-सांस्कृतिक अस्मिता पर है और इसे उन्होंने चुनौती देकर राष्ट्रीय चेतना का शंखनाद किया। सामाजिक दृष्टि से, उस समय भारतीय समाज जो अपने व्यक्तिगत और जातीय आत्मसम्मोहन के कारण जाति-पाति, ऊंच-नीच, क्षेत्रवाद की दलदल में ग्रसित होकर विभाजित था, उस समाज के इन सारे अंतरों को समाप्त कर श्रीगुरु नानकदेव जी ने सांझीवालता और समरसता के पवित्र छींटे देकर इस भारत को राष्ट्रीय उत्थान और सामाजिक राष्ट्रीय चेतना का वाहक बनाया जिससे सिख पंथ के रूप में परिवर्तित होकर, भारतीयों ने विदेशी आक्रांताओं के द्वार सदा-सदा के लिए बंद कर दिए। श्री गुरु अमरदास जी महाराज द्वारा चलाई लंगर परंपरा में हर जाति-पाति, अमीर-गरीब के एक पंगत में बैठकर भोजन करने से सांझीवालता और समानता का भाव स्वत: ही आत्मसात हो जाता है। श्री गुरु अर्जुन देव जी महाराज द्वारा संपादित श्री गुरुग्रंथ साहिब में उन्होंने पांच गुरु साहिबान के अलावा ओडिशा के जयदेव-ब्राह्मण, महाराष्टÑ के नामदेव-धोबी, बिहार के वेणी-भूमिहार, उत्तर प्रदेश के रामानंद-ब्राह्मण, कबीर-जुलाहा, रहिदास-चमार, भीखण-मुसलमान; राजस्थान के धन्ना जाट और पीपा राजपूत, मध्य प्रदेश के सैन-नाई; सिंध के सदना-कसाई; पंजाब के सूरदास और शेख फरीद की वाणी को समाहित करते हुए जहां तत्कालीन सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय चेतना के भक्ति आंदोलन को समाहित किया, वहीं जाति-पाति, ऊंच-नीच, क्षेत्रवाद, भाषावाद के सारे अंतर मिटा दिए। इस प्रकार हम देखते हैं कि सिख समाज ऊंच-नीच के भेदभाव से ऊपर उठकर सामाजिक समानता, धार्मिक उच्चता और राष्ट्रीय चेतना का वाहक है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रणेताओं के मन में यह स्पष्ट सोच थी कि भारतीय समाज एक आदर्श रूप में खड़ा हो, तभी भारत को परम वैभव पर ले जाया जा सकता है। 1940 में पुणे में जब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने संघ के एक कार्यक्रम में यह पूछा कि इनमें दलित कितने हैं तो उन्हें बताया गया कि हम इस दृष्टि से कभी पूछते ही नही हैं। आप अपनी शंका का समाधान करने के लिए पूछ लीजिए। उनके पूछने पर लगभग एक तिहाई लोगों ने हाथ उठाए। यह एक प्रबल प्रमाण था कि संघ में जाति-पाति, ऊंच-नीच के लिए कोई स्थान नहीं है। संघ के प्रचारक नागपुर से देश के विभिन्न भागों में गए जिससे यह भी स्पष्ट हो गया कि संघ क्षेत्रवाद, भाषावाद आदि के पूर्वाग्रह से मुक्त था।

इस प्रकार गुरु साहिबान ने सिख पंथ की जो सामाजिक, पांथिक और राष्ट्रीय मर्यादाएं स्थापित की थीं, संघ ने राष्टÑ निर्माण की लगभग वैसी ही परिकल्पना की। दोनों में कहीं भी विरोधाभास नहीं है, लेकिन हम वर्तमान के सोशल मीडिया में डलने वाली ‘पोस्ट्स’ को देखें तो इस प्रकार प्रचारित होता दिखेगा कि जैसे सिख समाज का सबसे बड़ा शत्रु राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ ही हो। विदेशों में रह रहे कट्टरवादी तथा उनसे प्रभावित अंग्रेजी माध्यमों के विद्यालयों में पढ़े कुछ भारतीय सिख युवक भी, एक चतुर अंग्रेज अधिकारी मेकॉलिफ द्वारा अपनी पुस्तक में प्रतिपादित व्याख्या कि ‘हिंदू धर्म’ एक अजगर है, जो सभी मत-पंथों को निगल लेता है, से प्रभावित होकर अपने पंथ के प्रति अति संवेदनशील होकर हिंदू धर्म को अपना कट्टर दुश्मन मानते हैं तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को हिंदू धर्म का सबसे सशक्त संगठन मानकर उसके प्रति भी ऐसा पूर्वाग्रह बना लेते हैं। वस्तुत: जिसे हम हिंदू धर्म कहते हैं वह एक जीवन पद्धति और जीवन दर्शन है, जिसके अंदर धुर विरोधी मत-मतांतर, पंथ, संप्रदाय भी एक साथ रहते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत मूल के सभी मत-पंथों का आदर करता है और इनमें आपसी सामंजस्य बनाए रखने हेतु अनुकूल वातावरण, भावना और संस्कार निर्मित करने का प्रयास करता है। संघ के इस चिंतन और कार्यपद्धति में सिख समाज से कोई विरोधाभास नहीं है, बल्कि संघ सिख समाज को वृहत्तर हिंदू समाज का अभिन्न, चेतन और सुसंस्कारित अंग मानता है। कुछ जिज्ञासु यह सोच सकते हैं कि उपरोक्त कथन सैद्धांतिक रूप से ठीक हो सकता है, लेकिन व्यवहार में ऐसा रहा है या नहीं,
इसका समाधान भी आवश्यक है। इसलिए इस दृष्टि से विवेचन किया जा रहा है—

गुरुद्वारा सुधार लहर और आर्य समाज
पंजाब की संस्कृति और स्वभाव प्रारंभ से ही प्रगतिशील और क्रांतिकारी रहा है। इसलिए श्री गुरुनानक देव जी महाराज और सिख पंथ के अधिक वैज्ञानिक, विशुद्ध आध्यात्मिक, कर्मकांड और अंधविश्वास मुक्त वातावरण को पंजाब में बड़ी शिद्दत से लिया गया। पंजाब का श्रमजीवी समाज तो लगभग पूर्णतया श्री गुरुगोविंद सिंह जी महाराज के खालसा रूप में परिणत हो गया तथा व्यापारिक वर्ग बेशक अपनी प्राचीन पूजा-पद्धति पर भी चलता रहा, लेकिन श्रीगुरु साहिबान और श्री गुरुग्रंथ साहिब के प्रति पूर्ण श्रद्धा और आस्था रखता था। एक कहावत थी, ‘पंजाब जींवदा गुराँ दे नाँ ते।’ महाराजा रणजीत सिंह के समय तो अपने बड़े पुत्र को देश-धर्म को देने के भाव से उसे सिंघ सजाया जाता था। व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण आक्रांताओं और हुक्मरानों के सहयोगी बने व्यक्तियों के अतिरिक्त सारा पंजाब देश-धर्म के लिए प्रतिबद्ध था तथा उसका नेतृत्व सिंघ जत्थेदार कर रहे थे।

खालसा राज के पतन के बाद जब अंग्रेजों का प्रभाव पंजाब में बढ़ा तो समाज के अंदर पुन: कुछ सामाजिक बुराइयां घर करने लगीं। आर्य समाज के सुधारवादी आंदोलन से सर्वाधिक प्रभावित पंजाब का जनमानस ही हुआ। जितने डी़ ए़ वी़ (दयानंद आर्य विद्यापीठ/ विद्यालय) वृहत्तर पंजाब (विभाजन से पूर्व का पंजाब) में खुले उसके अनुपात में देश के अन्य भागों की उनकी संख्या पासंग भी नहीं है। सरदार भगत सिंह के पिता और चाचा स्वयं आर्य समाजी नेता थे। दूसरी ओर ऐतिहासिक गुरुद्वारों पर बैठे महंतों के व्यक्तिगत जीवन में आने वाली बुराइयों और उनके द्वारा अंगे्रज सरकार को परोक्ष सहयोग देने के कारण, इन गुरुद्वारों को महंतों से स्वतंत्र कराने का बहुत बड़ा सत्याग्रही आंदोलन चला। स्वयं गांधी जी ने इस आंदोलन को उनके सत्याग्रही आंदोलन का प्रकट स्वरूप माना। गुरु साहिबान द्वारा संघर्ष करने की प्रवृत्ति के साथ-साथ शांतमय रहकर, प्रभु के ‘भाणे’ को मानने की शिक्षा के संस्कार के कारण ही, यह शांतमय आंदोलन हुआ और सफल भी हुआ जिसके तहत तत्कालीन पंजाब विधानसभा में पंजाब गुरुद्वारा एक्ट 1925 पारित हुआ जिसके तहत गुरुद्वारा नियंत्रण सीधा सिख समाज के पास आ गया। इस अधिनियम के तहत श्री गुरुग्रंथ साहिब में श्रद्धा और आस्था रखने वाले सहजधारी समाज के व्यक्ति को भी मताधिकार का समान अधिकार दिया गया।

आर्य समाज, एस.जी.पी.सी. और संघ
उपरोक्त सामंजस्य और एकात्मता टूटने का एक प्रमुख कारण यह हुआ कि किन्हीं व्यक्ति विशेष द्वारा तथाकथित वंचित जाति के कीर्तनकारों के साथ दुर्व्यवहार की प्रतिक्रिया स्वरूप वे अमृतसर के आर्यसमाजी नेताओं के पास आए तथा उन्होंने कहा कि हम सिख पंथ छोड़ना चाहते हैं। इन नेताओं ने सार्वजनिक रूप से उनके केश काटे। सिंह सभा और समाज के प्रमुख लोगों द्वारा उन्हें समझाने के बाद भी वे ऐसा करने से नहीं माने तो वह उक्ति ‘लम्हों ने खता की है सदियों ने सजा पाई है’ चरितार्थ हो गई। इस प्रकार पंजाब के धार्मिक नेतृत्व का स्पष्ट विभाजन हो गया, जबकि इससे पूर्व कोई टकराहट नहीं थी तथा ‘शुद्धि आंदोलन’ में आर्य समाज और सिख समाज ने मिलकर काम किया था। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रंबधक कमेटी (एस.जी.पी.सी.) और संघ दोनों ही 1925 में अस्तित्व में आए। पंजाब में संघ 1937 में भाई परमानंद जी के निवास पर हुई बैठक से प्रारंभ हुआ। राय बहादुर श्री बद्रीदास, जो प्रांत संचालक भी बने, श्री भाई धर्मवीर जी, भाई परमानंद जी आदि आर्य समाजी भी थे और संघ के भी प्रमुख थे। सिख नेतृत्व ने संघ को बेशक आर्य समाज के समर्थक रूप में लेना शुरू किया, लेकिन संघ के कार्यकलापों तथा मुस्लिम लीग की हिंदू-सिख विरोधी गतिविधियों और विचारों के कारण संघ से सिख समाज का सामंजस्य ही बढ़ा, कभी टकराहट नहीं हुई। मुस्लिम लीग के विरुद्ध अकाली और संघी दोनों साथ-साथ थे। आर्य समाज की गतिविधियां शैक्षणिक और धार्मिक जगत तक सीमित थीं, हालांकि आर्य समाज का राष्टÑवादी चिंतक वर्ग राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के साथ आकर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था।

1940 में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया। कांग्रेस भारत की आजादी के लिए संघर्ष कर रही थी। चूंकि मुस्लिम लीग भारत के विभाजन की मांग मुस्लिम आबादी के आधार पर कर रही थी तथा कांग्रेस इस विभाजन के विरुद्ध थी। इसलिए अकाली नेतृत्व ने कांग्रेस को हिंदुओं की पार्टी कहकर खालिस्तान का उद्घोष कर दिया। 1945 में मुस्लिम लीग के सिखों के प्रति व्यवहार तथा विभाजन के प्रति उनकी षड्यंत्रकारी योजना के कारण भारत का विभाजन दिख रहा था। ऐसे समय में सांझा खतरा होने से अकाली और संघ और अधिक निकट आए।

विभाजन
विभाजन की त्रासदी हिंदू और सिख दोनों को सामूहिक और बराबर की ही झेलनी पड़ी। इसलिए राजनीतिक तौर पर कहीं दुराव था भी तो भी सामाजिक तौर पर, कहीं थोड़ी-बहुत दुविधा थी, वह भी समाप्त हो गई। वैसे तो विभाजित पंजाब से पलायन करने वाले परिवारों की संरचना ही इस प्रकार की थी कि उसमें हिंदू-सिख का विभाजन संभव ही नहीं था क्योंकि एक ही परिवार में एक बच्चा सिख था तो दूसरा सहजधारी। सगे भाइयों में भी सिख और सहजधारी दोनों ही थे। मामा-भानजा, चाचा-भतीजा, मासण-फूफड़-भतीजे में कहीं भी कोई सिख और कहीं भी कोई सहजधारी हो सकता था। ऐसी सामाजिक संरचना में अकाली और संघ का आपस में गहरा तालमेल हुआ।

पंजाबी सूबा आंदोलन
स्वतंत्रता के बाद, अकालियों को स्वतंत्रता की जिस गर्माहट का आश्वासन नेहरू जी ने दिया था, ऐसा व्यवहार में न दिखने के कारण अकाली नेतृत्व दु:खी और रुष्ट हुआ तथा उसने कांग्रेस से दूरी बढ़ा दी और परिणामत: संघ के साथ भी दूरी बना ली। कांग्रेस ने अकालियों की पीड़ा को नहीं समझा। मास्टर तारा सिंह और ज्ञानी भूपेन्द्र सिंह जी, बाबा साहब आंबेडकर से मिले और उनसे अपनी पीड़ा व्यक्त की। भाषा के आधार पर पंजाब प्रदेश के अलग होने के बावजूद, अकाली राजनीति जो उस समय मूलत: सिख आधारित थी, पंजाब में सिख आबादी कम होने से अकालियों को सत्ता में नेतृत्व नहीं मिल पा रहा था क्योंकि उस समय का पंजाब वर्तमान हरियाणा और हिमाचल के दो जिलों सहित था।
देश उस समय और किसी विभाजन के लिए तैयार नहीं था। चर्चा में आंबेडकर जी ने कहा कि अगर आप अपनी भाषा के आधार पर अलग क्षेत्र की मांग करो तो छोटा राज्य आपको मिल सकता है। इस पर पंजाबी सूबे का आंदोलन प्रारंभ हुआ। प्रताप सिंह कैरों ने एक सूझवान और समझदार प्रशासक होते हुए भी पंजाबी सूबे के आंदोलन को सही दिशा देने की बजाय, उसे कुचलने का प्रयास किया। इस पंजाबी सूबा आंदोलन का आर्य समाज ने विरोध किया और उसका साथ जनसंघ ने दिया।

भाषानुसार जब जनगणना की बात आई तो वर्तमान पंजाब के शहरों में भी रह रही हिंदू आबादी को जनसंघ नेतृत्व ने अपनी मातृभाषा हिंदी लिखाने का आग्रह किया। उन्हीं दिनों तत्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने अमृतसर में स्पष्ट शब्दों में कहा कि पंजाब के हर व्यक्ति की भाषा घर में बोलचाल, व्यवहार में पंजाबी ही है इसलिए सभी हिंदुओं को अपनी मातृभाषा पंजाबी ही लिखानी चाहिए। हालांकि इस दृष्टिकोण से जनसंघ के लोग नाराज हो गए, लेकिन श्रीगुरुजी ने सारे परिप्रेक्ष्य के संदर्भ में दृढ़ और स्पष्ट शब्दों में मार्गदर्शन किया। बाद में प़ं दीनदयाल जी ने जनसंघ के लोगों को समझाया और पंजाब के सभी लोगों ने पंजाबी भाषा अपनाई और परिणामस्वरूप अकाली और जनसंघ राजनीतिक रूप से निकट आए और सरकार बनाई, जो केंद्र सरकार ने तोड़ दी। उस समय न्यायमूर्ति गुरनाम सिंह ने बाबू दिलीप चंद और स़ चिरंजीव सिंह जी से मिलकर विस्तृत चर्चा की। लुधियाना में आयोजित श्री माधवराव जी के बौद्धिक वर्ग की अध्यक्षता न्यायमूर्ति गुरनाम सिंह ने की। उस कार्यक्रम में न्यायमूर्ति सिंह ने कुछ कट्टर आर्यसमाजियों के प्रति बड़ी कटु टिप्पणी की। उन्होंने कहा, ‘‘आर्य समाजी अपने आपको बनावटी हिंदू न बनाएं। वास्तव में हिंदू समाज के लिए सिखों ने अधिक कुर्बानियां दी हैं। सिखों ने अपना खून बहाया है इसलिए सिख ही अपने आपको हिंदू कहने के सच्चे अधिकारी हैं। आर्य समाजी केवल हिंदू-सिखों को लड़ाते ही हैं।’’ पंजाबी सूबा बनने के बाद बाला साहब का पंजाब दौरा हुआ। जनसंघ के उच्चाधिकारी उनसे मिले। लगभग ढाई घंटे की बैठक के बाद सभी इस पर सहमत हो गए कि हमारी भाषा पंजाबी ही है। इस प्रकार सामंजस्य पुन: दृढ़ता से स्थापित हुआ। विश्व हिंदू परिषद् की स्थापना के समय संदीपनी आश्रम, मुंबई में अकाली दल के अध्यक्ष मास्टर तारा सिंह भी उपस्थित थे। वहां उन्होंने कहा था, ‘‘मैं पंजाबी सूबा-खालिस्तान की बात करता रहा हूं परंतु मैं चाहता हूं कि हिंदू सच्चे हिंदू बनें। सिख सच्चे सिख बनें। मैं जीवन के संध्याकाल काल में यह जरूर देखना चाहता हूं कि हिंदू और सिख भाई हैं और हिंदुस्थान के सच्चे सपूत हैं।’’

आपातकाल
1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का अकाली दल ने दृढ़ता और निरंतरता से विरोध किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी योजनाबद्ध तरीके से निश्चित अवधि के लिए सारे देश में सत्याग्रह चलाया। आपातकाल के दौरान संघ और अकाली दल और निकट आए।

संघ और अलगाववाद
पाकिस्तान विभाजन और बांग्लादेश निर्माण का बदला लेने के लिए पाकिस्तान ने अपनी विशेष योजना के तहत पंजाब में अलगाववाद को हवा दी। कांगे्रस नेतृत्व ने भी अकालियों को कमजोर करने के लिए परोक्ष रूप से अलगाववाद को प्रश्रय और बढ़ावा दिया। मोगा में संघ की शाखा पर हमला हुआ जिसमें 17 स्वयंसेवक मारे गए, लेकिन संघ नेतृत्व ने स्वयंसेवकों को बड़े स्पष्ट और कठोर शब्दों में, किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया न करने का मार्गदर्शन दिया। पंजाब में सामाजिक सद्भाव बनाए रखने के लिए देश के विभिन्न भागों से प्रचारकों को पंजाब भेजा गया जो अपनी जान की परवाह न करते हुए सांझीवालता के ढांचे को दृढ़ता से बनाए रहे। समाज में आत्मविश्वास और सद्भाव बनाए रखने के लिए सरदार चिरंजीव सिंह जी के संयोजकत्व में एक विशाल संत यात्रा हरिद्वार से प्रारंभ होकर अमृतसर पहुंची, जिसमें हजारों संख्या में संतों और संगतों ने भाग लिया। घोर अलगाववाद के समय इस यात्रा से सांझीवालता दृढ़ हुई और लोगों में आत्मविश्वास बना। उग्रवाद के कारण समाज का विभाजन न हो तथा आमजन स्वयं को सुरक्षित महसूस करें, इसलिए राष्ट्रीय सुरक्षा समिति का गठन किया गया जिसके महासचिव का दायित्व श्री अविनाश जायसवाल को दिया गया। उग्रवाद की घटनाओं के कारण हिंदू-सिख परंपरागत भाईचारे की कड़ियां कुछ तनाव महसूस करने लगीं तथा साथ ही देश में सिख की छवि, उग्रवादी के रूप में बनने लगी। ऐसी परिस्थिति में सिखों समाज और गुरु साहिबान, जिन्होंने इस देश की अस्मिता और धर्म को बचाया है, की सही तस्वीर को समाज में रखने व गुरवाणी को आधार बनाकर सांझीवालता दृढ़ करने के लिए राष्ट्रीय सिख संगत का गठन किया गया, जिसके कार्यकर्ताओं ने देश में हजारों की संख्या में, सांझे-समूह यानि हिंदू सिख की उपस्थिति वाली बैठकों और कार्यक्रमों का आयोजन किया।

संघ और अकाली
संघ का अकाली नेतृत्व से सदैव सामंजस्य रहा। 1970 में पटियाला में आयोजित संघ के प्रांत शिविर की अध्यक्षता संत लोगोवाल जी ने की थी। 1997 में संघ की प्रांतीय रैली में एस.जी.पी.सी. के अध्यक्ष स. गुरचरन सिंह टौहरा और प्रकाश सिंह बादल दोनों आए थे।

सिख और संघ
केन्द्रीय अल्पसंख्यक आयोग की एक बैठक में तत्कालीन सरसंघचालक श्री सुदर्शन जी ने कहा था, ‘‘संघ जहां आत्मीयता और भाईचारे के नाते सिख समाज को वृहत्तर हिंदू समाज का अभिन्न, सजीव, प्रगतिशील चेतन अंंग मानता है, वहीं सिख पंथ की विलक्षण और स्वतंत्र पहचान का भी पूर्ण सम्मान करता है।’’ इस वक्तव्य के बाद एस.जी. पी. सी. की तत्कालीन महासचिव बीबी किरणजीत कौर ने कहा कि इस वक्तव्य के बाद सारी दुविधाएं समाप्त हो गई हैं। यदि किसी के पास इसके विपरीत कोई प्रकाशित सामग्री हो तो उसे नष्ट कर देना चाहिए। इस प्रकार सिंह और संघ एक साथ इस देश की रक्षा, सुरक्षा और परम वैभव के लिए साथ-साथ चलें, यही गुरुजी से अरदास है।
(लेखक सिख संगत के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)

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