विकास की वर्तमान परिभाषा एवं कसौटियां दोनों ही गलत एवं भ्रमपूर्ण हैं
संघ की यह भी स्पष्ट मान्यता रही है कि केवल मात्र भौतिक समृद्धि देश और समाज का भला नहीं कर सकती। अत:भौतिक समृद्धि के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए, तभी परमवैभव की कल्पना साकार हो सकेगी।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं पर पर नित्य की जाने वाली प्रार्थना में राष्ट्र के परमवैभव को अपने परम उद्देश्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इसी बात को संघ के स्वयंसेवकों द्वारा प्रतिज्ञा में ‘सर्वांगीण उन्नति’ के रूप में दोहराया गया है। संघ सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों धरातलों पर अपने इस ध्येय की पूर्ति की दिशा में कार्यरत है। सैद्धांतिक दृष्टि से विचार करने पर ध्यान में आता है कि ‘परमवैभव’ की संकल्पना वर्तमान में प्रचलित संवृद्धि, प्रगति एवं विकास की संकल्पनाओं की तुलना में अधिक व्यापक, समग्र एवं संतुलित है। संघ अधिकारियों एवं संघ प्रेरणा से विविध क्षेत्रों में काम करने वाले ज्येष्ठ-वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की इस विषय पर विचार-विमर्श के लिए अनेक बार बैठकें हुर्इं। इसमें यह सहमति बनी कि वर्तमान में प्रचलित जी.डी.पी.-आधारित विकास एवं संवृद्धि दर की संकल्पना आधी-अधूरी एवं भ्रामक है, भारत जैसे देश के लिए तो यह सर्वथा अव्यावहारिक, असंगत एवं अपूर्ण है। अत: स्वदेशी विकास-पथ अथवा भारतीय विकास-पथ पर चर्चा प्रारंभ कर उसे तलाशा जाना चाहिए।
पश्चिमी विकास मॉडल की कमियां
पश्चिमी विकास मॉडल आर्थिक मनुष्य की अवधारणा पर आधारित है जिसके अनुसार मनुष्य प्रत्येक निर्णय धन के आधार पर करता है। इसमें विकास को प्रति व्यक्ति वास्तविक जी़ डी़ पी. के रूप में परिभाषित किया गया है। जी़ डी़ पी. की गणना अधूरी और दोषपूर्ण है। इसमें महिलाओं के गृहकार्य, स्वउपभोग के लिए उत्पादन, सामाजिक-स्वैच्छिक कार्यों आदि को शामिल नहीं किया जाता, दूसरी ओर पेड़ काटकर फर्नीचर बनाने, मोटरवाहन से सैर पर जाने पर फैलने वाले प्रदूषण, कारखानों की चिमनी के धुएं आदि को गणना से बाहर नहीं किया जाता। अत: आज जी.डी.पी. आधारित विकास अव्यावहारिक एवं असंगत हो गया है। अधिकाधिक वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग करते हुए रहन-सहन स्तर में वृद्धि को ही जीवन का लक्ष्य मान लिया गया है। इससे उपभोक्तावाद एवं भोगवादी जीवनशैली को बढ़ावा मिलता है जो आज सब प्रकार की आर्थिक समस्याओं एवं संकट के लिए जिम्मेदार है। उपभोग की सतत वर्तमान आकांक्षा और लालसा को पूरा करने के लिए उत्पादन वृद्धि पर जोर दिया जाता है। उत्पादन वृद्धि के लिए दो काम किए जाते हैं-
(अ) प्राकृतिक साधनों का बेरहमी से भरपूर शोषण। इसके परिणामस्वरूप पर्यावरण हानि एवं प्रदूषण की समस्या बढ़ती जा रही है।
(ब) मशीन-चालित ऊर्जाभक्षी तकनालॉजी पर आधारित बड़े-बड़े उद्योगों वाले उत्पादन-तंत्र का निर्माण करना। इसके परिणामस्वरूप ऊर्जा-संकट एवं बेरोजगारी की समस्याएं उत्पन्न हो गई हैं। विकास के नाम पर जो कुछ हासिल किया है, उसे देखकर दो प्रश्न उत्पन्न होते हैं- एक, क्या इसे सही मायने में मनुष्य को सुखी बनाने वाला विकास कहा जा सकता है? और दूसरा, क्या इस प्रकार के विकास को दुनिया के सब देशों और मनुष्यों के लिए उपलब्ध करा पाना संभव और व्यावहारिक है अथवा क्या यह
एक व्यवहारक्षम और धारणक्षम विकास-मार्ग (Practicable and sustainable development-path) है?
तथ्यों के आलोक में जब हम इन प्रश्नों की जांच करते हैं तो इन दोनों ही प्रश्नों का उत्तर ‘ना’ में पाते हैं। विश्व जनसंख्या के 20 प्रतिशत भाग वाले संपन्न देश अपने उपभोग और उत्पादन-ढांचे एवं जीवनशैली के लिए विश्व के कुल संसाधनों के 80 प्रतिशत भाग का उपयोग करते हैं। इसके अलावा, इसके परिणामस्वरूप, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण और मृदा प्रदूषण के कारण हमारे चारों और प्रदूषित पर्यावरण का घेरा गहरा होता जा रहा है। इतना ही नहीं, मानवीय संबंध, संवेदनाएं एवं भाव-भावनाएं भी प्रदूषित होती जा रही हैं। अत: विकास की वर्तमान संकल्पना न तो व्यवहार्य है और न ही धारणक्षम (टिकाऊ )।
नई राह भारतीय विकास-पथ
विकास की वर्तमान परिभाषा एवं माप (जी़ डी़ पी़, उपभोक्तावाद, ऊर्जा, मशीन और पूंजी-गहन तकनीक पर आधारित) दोनों ही गलत एवं भ्रमपूर्ण हैं। अत: सर्वंकश एकात्म विश्वदृष्टि एवं एकात्म मानवदर्शन की मान्यताओं के प्रकाश में भारतीय अर्थवयवस्था की प्रकृति, प्रवृत्ति, संस्कृति, आशा, आकांक्षा, आवश्यकता, साधन-संपदा, क्षमता-संभावनाओं एवं कौशल-प्रतिभाओं के अनुरूप विकास का समग्र, सार्थक एवं व्यावहारित मॉडल, मापदण्ड, नीति, रणनीति एवं संरचना बनाने का प्रयास होना चाहिए।
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की पुरुषार्थ चतुष्टयी के आधार पर Ethics, Economy, Ecology, Energy औरEmployment के बीच तालमेल बने। संस्कृति और समृद्धि, सदाचार और अर्थाचार साथ-साथ चले। भ्रष्टाचार, काला धन एवं कालाबाजारी से मुक्त अर्थतंत्र एवं अर्थनीतियां बनें। सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय, सर्वभूतहिते रत: तथा समग्र सामाजिक सुख के उद्देश्य की दृष्टि से सबको रोजगार (विकास-केन्द्रित रोजगार के स्थान पर रोजगार-केन्द्रित विकास की रणनीति), सबको रोटी (अर्थात् सबकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति), सबको स्वास्थ्य, सबको समाजोपयोगी संस्कारक्षम शिक्षा के समान अवसर और सामाजिक न्याय के साथ सतत् प्रगति की स्थिति निर्माण करने वाली अर्थरचना और अर्थनीति बनानी चाहिए।
आर्थिक विकेंद्रीकरण के लिए आवश्यक है कि उत्पादन की इकाइयां छोटी रहें। 10 से 15 गांवों को मिलाकर एक इष्टतम सामुदायिक इकाई हो सकती है, जो देश में कृषि-औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि करने के लिए कुशलता से काम कर सकेगी और इसे स्वावलंबी ग्राम समुदाय के रूप में भी स्थापित किया जा सकेगा। यह रचना स्थानीय पहल, कौशल और उद्यम का उपयोग करने के पर्याप्त अवसर प्रदान कर सकेगी। इस प्रकार भारत के गांवों को स्वशासित इकाइयों के रूप में पुनर्गठित एवं पुनर्जीवित कर भारत के क्षतिग्रस्त आर्थिक-राजनैतिक तंत्र के पुनर्गठन की आवश्यकता है।
रोजगार वृद्धि, आय और धन के वितरण में समुचित समानता बनाए रखने, भारत की विशाल श्रमशक्ति, स्थानीय संसाधनों और कौशल का सर्वोत्तम उपयोग करने, औद्योगिक विकेंद्रीकरण तथा निर्यात बाजार के लिए विभिन्न वस्तुओं का उत्पादन करने आदि अनेक दृष्टियों से भारतीय अर्थव्यवस्था में लघु उद्योगों की महत्वपूर्ण भूमिका और स्थान है। अत: इस क्षेत्र की समस्याओं के समाधान की ओर तुरंत ध्यान देकर भारत के लघु क्षेत्र को सशक्त और समर्थ बनाया जाना चाहिए।
भारत के लिए एक ऐसी तकनोलॉजी की आवश्यकता है जो इसकी विशिष्ट प्रकृति, आवश्यकताओं, जीवनादर्शों और मूल्यों के अनुकूल हो, देश के सामने उपस्थित समस्याओं का उचित ढंग से एवं उचित समय में समाधान कर सके और जो देश की वर्तमान सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में काम कर सके। हमारी तकनोलॉजी प्रकृति के शोषण पर नहीं, बल्कि प्रकृति माता के दोहन पर आधारित होनी चाहिए। हमें एक ऐसी तकनोलॉजी की आवश्यकता है जो पूंजी और ऊर्जा की बचत कर सके और जो श्रम गहन होने के साथ-साथ उत्पादकता में भी वृद्धि कर सके।
उपयुक्त तकनोलॉजी के विकास के लिए भारत को एक साथ दो दिशाओं में प्रयास करने होंगे-
(अ) देश में पहले से उपलब्ध परंपरागत तकनोलॉजी में सुधार करना, भारत के भावी विकास की दृष्टि से इस क्षेत्र में काफी बड़ी संभावनाएं मौजूद हैं।
(आ) आधुनिक तकनोलॉजी को देश की आवश्यकताओं एवं संसाधनों के अनुकूल बनाना। विदेशी तकनोलॉजी का सीधा हस्तांतरण एक खतरनाक प्रक्रिया है। तकनोलॉजी को इस प्रकार ढालना होगा जिससे कि वह हमारे निर्धारित मूल्यों और लक्ष्यों को कमजोर करने की बजाए उनका संरक्षण और संवर्धन कर सके।
पूंजीवादी एवं साम्यवादी प्रणालियों का सही विकल्प धर्म के प्रकाश में लोगों द्वारा संचालित एवं नियंत्रित विकेन्द्रित स्वावलंबी अर्थतंत्र ही है, किन्तु इस विकेन्द्रित अर्थतंत्र को पहले की तुलना में अधिक उत्पादक बनाया जाना चाहिए।
जल संग्रह और प्रबंधन, भूमि संरक्षण, वन-प्रबंध तथा वन संवर्धन नीति, जैविक खेती, पंचगव्य के उपयोग, वैकल्पिक ऊर्जा, पारंपरिक तकनीकी और तकनोलॉजी, भारत की स्वास्थ्य परंपरा और चिकित्सा पद्धति, आयुर्वेद, योग, हर्बल संपदा आदि के समुचित उपयोग की योजना बने। विशेषकर भारत में जमीन, जल, जंगल, जानवर, और जैव विविधता के रूप में उपलब्ध संसाधनों के संरक्षण, संवर्धन एवं योग्य उपयोग पर ध्यान दे सकने वाली व्यवस्था, रचना एवं नीति बनानी चाहिए। किसान (विशेषत: छोटे और सीमान्त किसान), मजदूर (विशेषकर असंगठित क्षेत्र के मजदूर), शिल्पकार, खुदरा व्यापारी, लघु कुटीर और कृषि-आधारित ग्रामोद्योगों के हितों के संरक्षण का विशेष ध्यान रखते हुए देश की प्रतियोगी क्षमता, दृढ़ता एवं आधारभूत ढ़ांचे की मजबूती की दृष्टि से बड़े और भारी उद्योगों तथा बड़ी कंपनियों की भूमिका का निर्धारण, परस्पर संतुलन एवं तद्नुसार व्यवस्थाओं और नीतियों का निर्माण करने की आवश्यकता है।
आज के विकास एवं व्यवस्था के संकट के मूल में भ्रष्ट, भोगवादी एवं दोषपूर्ण जीवनशैली ही है। अत: आज मुख्य प्रश्न यह है कि सीमित, संयमित, सदाचारी, मितव्ययी उपभोग-शैली एवं जीवनशैली को विकसित करने के लिए क्या किया जाए। इस प्रकार की जीवनशैली के लिए संयम और सीमाकरण के दो आधारभूत सूत्र बताए जाते हैं। ऐसी मानसिक अवस्था कैसे तैयार हो? ये सब ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर तलाशने का काम आज की मनीषा को करना होगा।
देश के विभिन्न भागों में चल रहे मूलवर्ती विकास-प्रकल्पों (Grass-root development projects) के अनुभवों, उपलब्धियों एवं कठिनाइयों के आकलन के आधार पर कुछ स्थानों पर समग्र समन्वित विकास मॉडल को लागू करने के प्रयोग करने की आवश्यकता है। नैतिक नेतृत्व के माध्यम से समाज के स्वत्व, स्वाभिमान एवं स्वावलंबन का जागरण किया जाना सर्वाधिक आवश्यक काम है। तभी पोषणक्षम अर्थतंत्र, धारणक्षम तकनोलॉजी एवं संस्कारक्षम समाज-तंत्र का निर्माण किया जा सकता है। ग्राम संकुल और परिवार को आधार बनाकर स्वदेशी और सहभागिता पर आधारित स्वावलंबी विकेन्द्रित अर्थतंत्र के निर्माण का प्रयास करना होगा।
राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ पिछले अनेक वर्षों से परमवैभव (अथवा भारतीय विकास-पथ) की संकल्पना को धरती पर उतार लाने के लिए प्रयासरत है। भारत एवं विश्व के अनुभवों से एक बड़ी संख्या में विद्वान-मनीषी अब यह मानने लगे हैं कि जी.डी.पी. आधारित विकास-पथ समस्याओं का समाधान देने की बजाय, उन्हें और अधिक उलझाता जा रहा है। वह भारत को भूख, गरीबी, विषमता, बेरोजगारी, बीमारी एवं पर्यावरण की समस्याओं का दीर्घकालीन समाधान प्रस्तुत करने में पूर्णतया असफल साबित हुआ है। देश में जो कुछ विकास हुआ है उसका लाभ पहले से ही सुविधा-संपन्न एक छोटे से वर्ग को ही अधिक हुआ है।
अत: इसे किसी भी अर्थ में सर्वसमावेशी विकास (सबका साथ-सबका विकास) नहीं कहा जा सकता अर्थात् यह विकास में सबकी साझेदारी एवं सबकी भागीदारी नहीं करवा पा रहा है। गरीब व्यक्ति और विशेषकर सबसे निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति के जीवन में यह परिवर्तन नहीं ला सका है। अत: अब अकादमिक जगत, अध्येताओं, नीति-निर्माताओं एवं शासनकर्ताओं के मन में वर्तमान में प्रचलित विकास-पथ के दर्शन, दृष्टि एवं दिशा को बदलने के बारे में गहन मंथन प्रारंभ हुआ है। संघ की यह भी स्पष्ट मान्यता रही है कि केवल मात्र भौतिक समृद्धि देश और समाज का भला नहीं कर सकती। अत: भौतिक समृद्धि के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए, तभी परमवैभव की कल्पना साकार हो सकेगी। धर्म-नैतिकता एवं संस्कृति की उपेक्षा करके हम सर्वसमावेशी, सर्वमंगलकारी सामाजिक-आर्थिक संरचना का निर्माण नहीं कर सकते। अब विद्वतजनों के बीच भी यह विचार मान्य होने लगा है।
इस संकल्पना को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए संघ के स्वयंसेवक अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक-रचनाधर्मी संस्थाओं के साथ मिलकर अनेक प्रकल्पों में कार्यरत हैं। इस दृष्टि से वे ग्राम विकास, गो-संवर्धन, जैविक खेती, सौर ऊर्जा, जल संचयन, तालाबों, चेक डैम्स आदि का निर्माण, स्वच्छता, शिक्षा और संस्कार, स्वास्थ्य-आरोग्य-योग, प्राकृतिक चिकित्सा आदि अनेक क्षेत्रों में प्रयासरत हैं और अब धीरे-धीरे समाज भी इनको अपनाने लगा है। आशा है कि अब शीघ्र ही परमवैभव एवं विकास की समग्र-संतुलित संकल्पना का एक आदर्श-नमूना भारत बनकर समूचे विश्व के लोकमंगल का मार्गदर्शन
कर सकेगा।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं)
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