पेट्रोल की कीमतों का अर्थशास्त्र यह है कि पेट्रोल की जो कीमत उपभोक्ता चुकाता है, उसका करीब 60 फीसदी तो सिर्फ कर ही होता है। इस कर से केंद्र और राज्य सरकारें अपने काम चलाती हैं। इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों के करों में कोई कटौती संभव है यह उम्मीद अव्यावहारिक है, व्यावहारिक यही है कि पेट्रोल डीजल के नये विकल्प तलाशे जायें।
पेट्रोल डीजल के भाव बढ़ना सिर्फ पेट्रोल डीजल के भाव बढ़ना ही नहीं है। दरअसल, पेट्रोल डीजल के भाव पूरी अर्थव्यवस्था का रुख बिगाड़ देते हैं। परिवहन लागत तो तमाम सेवाओं और वस्तुओं की कीमतों में शामिल होती है। परिवहन लागत बढ़ी तो समग्र महंगाई का आंकड़ा ऊपर जाता है। भारतीय रिजर्व बैंक ने खुदरा महंगाई की वांछनीय सीमा यूं तय कर रखी है कि इसे दो प्रतिशत से नीचे नहीं गिरना चाहिए और छह प्रतिशत से ऊपर नहीं जाना चाहिए। पर पेट्रोल और डीजल के भाव बढ़ते रहें, तो फिर महंगाई को सीमा में बांधना मुश्किल हो जाता है। रिजर्व बैंक अगर महंगाई को बढ़ता हुआ देखता है, तो फिर वह ब्याज दरों को नीचा करने में संकोच दिखाता है।
तर्क साफ है कि अगर ब्याज दरों में कमी की गयी, तमाम किस्म की सेवाओं और वस्तुओं की खरीदारी को और सस्ता बनाया गया, तो मांग में तेजी आयेगी और महंगाई और बढ़ जायेगी। ब्याज दरों में अगर कमी ना हो, तो जाहिर है कि उद्योग धंधे जो कर्ज लेते हैं, उनकी लागत बढ़ती है। लागत बढ़ने का मतलब फिर वही-महंगे दाम। तो कुल मिलाकर पेट्रोल डीजल आदि के भाव समग्र अर्थव्यवस्था पर असर छोड़ते हैं। सऊदी अरब फिर तनाव से गुजर रहा है। कच्चे के तेल के उसके संयंत्रों पर विद्रोहियों के हमले हो रहे हैं, मध्य पूर्व में अशांति का मतलब है तेल के भावों में अनिश्चितता, इसलिए देर सबेर ऊर्जा के साधनों के नये विकल्प तलाशने ही होंगे, क्योंकि पेट्रोल-डीजल के भावों का अर्थशास्त्र ऐसा है कि उपभोक्ता से लेकर अर्थव्यवस्था की जेब तक पर भारी पड़ जाता है।
गौरतलब है 16 फरवरी 2021 को दिल्ली में पेट्रोल की डीलर कीमत 32.10 रुपये प्रति लीटर है, जिसमें केंद्र सरकार का उत्पाद शुल्क 32.90 रुपये, डीलर का कमीशन- 3.68 रुपये, वैट-राज्य सरकार का-20.61 रुपये जुड़कर उपभोक्ता को पेट्रोल 89.29 रुपए प्रति लीटर पड़ता है।यानी पेट्रोल की जो कीमत दिल्ली में चुकायी जा रही है, उसका करीब 60 प्रतिशत तो कर ही है। पेट्रोल की खालिस कीमत 32.10 रुपये प्रति लीटर ही है। पर कुछ इलाकों में तो पेट्रोल 100 रुपये के आसपास चल रहा है।
पेट्रोल की कीमतों का अर्थशास्त्र यह है कि पेट्रोल की जो कीमत उपभोक्ता चुकाता है, उसका करीब 60 फीसदी तो सिर्फ कर ही होता है। इस कर से केंद्र और राज्य सरकारें अपने काम चलाती हैं। इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों के करों में कोई कटौती संभव है यह उम्मीद अव्यावहारिक है, व्यावहारिक यही है कि पेट्रोल डीजल के नये विकल्प तलाशे जायें।
एथानोल की भूमिका
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में एक संबोधन में कहा कि देश अपनी तेल जरुरतों का 85 फीसदी से ज्यादा आयात करता है और गैस जरूरतों का भी 53 प्रतिशत से ज्यादा आयात करता है। अगर वक्त रहते हालात पर ध्यान दिया गया होता, तो आज मध्यमवर्ग को पेट्रोल की बढ़ती कीमतों का भार ना उठाना पड़ता। गन्ने से निकाले गये एथानोल को पेट्रोल के साथ मिलाकर ईंधन की जरूरतें पूरी की जा सकती हैं। वर्तमान में 7 फीसदी पेट्रोल एथानोल है, इस अनुपात को 2025 तक बीस फीसदी करने की योजना है। इस योजना के अमल में गति लाये जाने की जरुरत है। गन्ने का उत्पादन इस देश में खासकर उत्तर भारत में खूब होता है।
पेट्रोल में एथानोल का अनुपात सात फीसदी है
पेट्रोल से इसका संबंध जोड़कर गन्ने का अर्थशास्त्र भी सुधारा जा सकता है। गन्ना ईंधन का स्त्रोत बन जाये, तो उसकी कीमत अलग तरह से तय हो सकती है। पर अभी इस दिशा में खासा काम बाकी है। यानी करीब चार साल बाद पेट्रोल में एथानोल का अनुपात बीस फीसदी किया जाना है, अभी यह सात फीसदी है यानी वर्तमान के मुकाबले इस अनुपात को तीन गुना करना है। तकनीकी स्तर पर काम करना बाकी है पर इस काम को युद्ध स्तर पर किया जाना चाहिए। यह नही होना चाहिए कि अगर अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव कम हो जायें, तो फिर वैकल्पिक ऊर्जा के साधनों की तलाश मंद कर दी जाये। दरअसल परंपरागत ईंधन का रिश्ता पर्यावरण प्रदूषण से भी है। ईथालोन एक साफ सुथरा माध्यम है ऊर्जा का। मामला सिर्फ अर्थशास्त्र का नहीं है, अस्तित्व का भी है, साफ पर्यावरण का भी है।
बिजली से चलने वाले वाहन
केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि इलेक्ट्रीकल व्हीकल लेकर आ रहे हैं। बिना डीजल पेट्रोल के भी काम चलेगा। लोगों को साइकिल का ट्रेंड शुरू करना चाहिए, आस पास अगर ऑफिस है तो, इससे लोग स्वस्थ रहेंगे। भारत में बिजली चालित वाहन आयें, तो पेट्रोल जनित महंगाई का प्रकोप कम हो, पर यह कहना आसान है, इस बात को जमीन पर उतारना आसान नहीं है। बिजली से चलने वाले वाहनों में अभी बड़ी ऑटोमोबाइल कंपनियों ने ठोस दिलचस्पी नहीं दिखायी है। फिर बिजली से चलने वाले वाहनों के लिए सिर्फ वाहन की आवश्यकता नहीं है, बिजली के वाहनों की चार्जिंग के लिए जगह जगह पर व्यवस्था करनी पड़ेंगी।
फिलहाल बिजली वाहनों के लिए तैयार नहीं दिखतीं
ये व्यवस्थाएं फिलहाल नहीं दिखायी पड़ रही हैं और बिना ठोस व्यवस्थाओं के बिजली के वाहनों का मुख्यधारा में आना संभव नहीं है। ऑटोमोबाइल कंपनियां फिलहाल बिजली वाहनों के लिए तैयार नहीं दिखतीं। उनके भारी निवेश पुराने टाइप के वाहन बनाने में हैं। बिजली से चलने वाले वाहनों का इस्तेमाल उन मामलों में तो आसान है, जो वाहन शहर के अंदर ही चलते हैं। एक बार चार्ज कर लेने पर दिन भर चल जाए, ऐसे वाहनों की मांग पैदा की जा सकती है। पर अभी विद्युत वाहनों की स्थिति प्रयोगात्मक ही है।
विद्युत वाहनों का निर्माण और इस्तेमाल बढ़ाने की जरूरत
नीतिगत उपायों से विद्युत वाहनों का निर्माण और इस्तेमाल बढ़ाये जाने की जरूरत है। बिजली के वाहनों को कुछ समय के लिए कर मुक्त किया जा सकता है। मुफ्त चार्जिंग स्टेशनों का इंतजाम किया जा सकता है। तमाम कंपनियों के पास सामाजिक जिम्मेदारी के कामों में खर्च करने के लिए खासा फंड होता है। उस फंड का इस्तेमाल वह चार्जिंग स्टेशन बनाने में कर सकती हैं, ऐसी छूट अगर उन्हे दी जाये, तो चार्जिंग स्टेशनों की बहुतायत संभव हो सकेगी। देखने की बात यह है कि कागज से जमीन पर कोई परियोजना को लाना आसान नहीं होता। इसलिए अभी बिजली के वाहनों की दिशा में बहुत काम जरूरी है। पर इसमें अब गति लायी जानी चाहिए। मध्य पूर्व के जो हाल हैं, उन्हे देखते हुए कच्चे तेल के भावों में लंबे समय तक अनिश्चितता बने रहने के आसार हैं।
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