एक लंबे समय से इस्लामी कट्टरवाद के निशाने पर रहे फ्रांस में अलगाववाद विरोधी विधेयक के पारित होने पर जहां देश से प्यार और जिहाद का विरोध करने वाले खुश हैं, वहीं कट्टरवादी ताकतें और इस्लामी-वामी गठजोड़ की त्योरियां चढ़ गई हैं
अभी 16 फरवरी को फ्रांस ने ‘अलगाववाद विरोधी विधेयक’ पारित किया। पंथनिरपेक्षता के मूल्यों में विश्वास रखने वाले फ्रांसीसी गणराज्य की सच्ची परंपराओं के अनुरूप ही, इस विधेयक की भाषा में किसी लिंग विशेष पर टिप्पणी नहीं है, पर इसके प्रावधान सिर्फ फ्रांसीसी समाज का हिस्सा बनने से इनकार करने वाले एक समुदाय विशेष—इस्लामवादी और मुस्लिम—को लक्षित करते हैं। यह विधेयक न केवल फ्रांसीसी पंथनिरपेक्षता के मजबूत होने का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक प्रतिगामितावादी ताकतों के साथ ही खुद को प्रगतिशील कहने, किंतु निकृष्टतम प्रतिगामी प्रवृत्तियों का समर्थन और सामान्यीकरण करने वाले वामपंथी/समाजवादी तत्वों पर भी अब तक का जबरदस्त हमला है।
विधेयक और इसके घटक
नए विधेयक के सबसे महत्वपूर्ण तत्वों में ‘होम-स्कूलिंग’ पर प्रतिबंध और फ्रांसीसी अधिकारियों द्वारा सभी स्कूली पाठ्यक्रमों की कड़ी निगरानी शामिल है। यह कदम उठाने का बड़ा कारण यह है कि 2004 में स्कूलों और सार्वजनिक कार्यालयों में हिजाब पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद बड़ी संख्या में मुस्लिम स्कूली छात्राओं को स्कूलों से निकाल लिया गया था और उन्हें घर में या मजहबी स्कूलों में पढ़ाया जा रहा था। अब केवल एथलेटिक कॅरिअर के लिए पेशेवर प्रशिक्षण लेने वाले तथा विकलांग बच्चों अथवा अन्य विशेष परिस्थितियों में ही घर पर स्कूली शिक्षा देने की अनुमति होगी। यद्यपि फ्रांस में मजहबी स्कूलों की स्थापना की अनुमति है, परंतु यदि वे सरकार से किसी भी प्रकार का अनुदान या ऋण प्राप्त करते हैं तो उनके पाठ्यक्रम को अब फ्रेंच मान्यताओं के अनुरूप रखा जाना होगा। अगर वे कोई मदद नहीं भी लेते हैं, तो इसी कानून का दूसरा हिस्सा ऐसे किसी भी शिक्षण को अवैध बनाता है जो लिंग समानता के फ्रांसीसी सिद्धांतों का पालन न करता हो या नफरत सिखाता हो।
इतना ही नहीं, सभी पांथिक संस्थानों को अब बिना चूके अपना लेखा-जोखा प्रस्तुत करना होगा और विदेशों से 10,000 यूरो से अधिक की सभी आय की घोषणा करनी होगी। यह कानून सिर्फ स्कूलों पर लागू नहीं होगा। सरकारी धन या अनुबंध प्राप्त करने वाले किसी भी संघ, ट्रस्ट और निजी कंपनियों आदि को इन नियमों का पालन करना होगा। फ्रेंच सरकार के एक मंत्री ने हाल में ही कहा, ‘सार्वजनिक धन का एक यूरो भी गणतंत्र के दुश्मनों को नहीं दिया जा सकता।’ इसी क्रम में यदि कोई संगठन सरकारी अनुबंध या धन पर निर्भर नहीं है तो भी अधिकारी अब किसी भी ऐसे संस्थान को बंद कर सकते हैं जिसमें ‘किसी व्यक्ति या समूहों की नस्ल, जाति, पांथिक विश्वास, यौनिक अभिविन्यास अथवा लिंग के कारण उनके विरुद्ध भेदभाव, घृणा या हिंसा का कारण बनने वाली टिप्पणी की जाती है, या ऐसे विचारों और सिद्धांतों का प्रसार या वैसी घटनाओं को प्रेरित करने वाली गतिविधियां होती हैं।’
हालांकि, नए कानून का शायद सबसे महत्वपूर्ण पहलू वह जेल अवधि और भारी-भरकम जुर्माना है जो अधिकारियों से इस कानून से पूरी छूट अथवा जरा सी छूट भी हासिल करने के लिए मौखिक रूप से मांग करने या शारीरिक रूप से दुर्व्यवहार करने का प्रयास करने वालों पर होगा। व्यवहारत: यह कानून किसी सामुदायिक स्विमिंग पूल पर लैंगिक आधार पर अलग समय निर्धारित करने जैसे आग्रहों को भी गैरकानूनी बनाता है। सैद्धांतिक रूप से इसे सांस्कृतिक आधार पर लैंगिक भेदभाव को सामान्य चीज बताने या ऐसे भेदभाव का बचाव करने अथवा इसे अलग-अलग समुदायों पर अलग-अलग तरह से लागू करने या किसी समूह को इससे मुक्त रखने की मांग के लिए अखबार में या सार्वजनिक रूप से चलाए जाने वाले अभियानों पर भी आसानी से लागू किया जा सकता है। यदि भारतीय संदर्भ में इसे लागू किया जाए तो इसका मतलब यह होगा जैसे तीन तलाक का समर्थन करने वाले किसी लेख के लेखक, उसे प्रकाशित करने वाले समाचार-पत्र के सम्पादक अथवा ट्विटर पर हैशटैग के साथ अभियान चलाने वाले लोगों को पांच वर्ष की कैद के साथ 65 लाख रुपये (75,000 यूरो) जुर्माना भने की सजा।
इस्लामी-वामी गठजोड़
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि दुनिया भर के वामपंथी दलों की तरह ही पहचान की राजनीति करने और उत्पीड़न-आख्यानों एवं उत्पीड़ित होने की मनोग्रंथियों को प्रोत्साहित करने वाले ‘सहज-उदारवादी’ फ्रांसीसी वामपंथियों के एक बड़े धड़े ने इस विधेयक का विरोध किया है। लेकिन, हैरानी की बात यह है कि चरम वामपंथी और चरम दक्षिणपंथी इस मुद्दे पर एक साथ सहमत हैं कि विधेयक के प्रावधान बहुत हल्के हैं और इसका बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं होगा। वास्तव में, दोनों समूह महिलाओं के लिए सिर पर कपड़े और हिजाब पर पूर्ण प्रतिबंध चाहते हैं। इस स्थिति के मद्देनजर किसी भी विधेयक की तरह इसके भी कठोर प्रस्तावों वाले कुछ खंडों को समाप्त करना पड़ा, फिर भी फ्रांसीसी गणराज्य और फ्रांसीसी लोग इसके लिए बधाई के पात्र हैं कि इसके कठोर अंशों को हटाए जाने के बावजूद यह कानून वास्तव में कितना सख्त है।
इस विधेयक को तैयार करने के क्रम में सभी प्रमुख पांथिक नेताओं से सलाह ली गई, जिसमें मुस्लिम नेता भी शामिल थे। पीबीएस की एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रगतिशील इस्लाम की पक्षधर सेकुलर संस्था इस्लाम फाउंडेशन आॅफ फ्रांस के मुखिया गालिब बेनशेख ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा कि नियोजित कानून ‘अन्यायपूर्ण है लेकिन कट्टरवाद से लड़ने के लिए आवश्यक है।’ इससे पता चलता है कि सरकार इस नए कठोर कानून पर आम सहमति तैयार करने और परिसीमा के बाहर वालों को भी इस जरूरी कानून पर राजी करने के लिए कितनी सक्रिय रही है।
भारत की स्थिति
भारत में पंथनिरपेक्षता व्यवहार में पहले से थी, लेकिन 1976 में आपातकाल के दौरान किए गए संविधान संशोधन में ‘पंथनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ पदों को जोड़े जाने के पहले तक ये पद वास्तविक कानून में नहीं थे। हालांकि यह महत्वपूर्ण है कि हम पंथ-निरपेक्ष पद का इस्तेमाल यहां अमेरिका के ‘सेकुलरिज्म’ और फ्रांसीसी लाइसिटे से अलग तरीके से करें। दो चरम सीमाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली अमेरिकी और फ्रांसीसी पंथनिरपेक्षता के विपरीत, भारत की पंथनिरपेक्षता धर्म और राज्य को अलग करने की बजाय मध्य मार्ग का अनुसरण करती है। हालांकि, अमेरिका या फ्रांस के विपरीत, जहां मूल सिद्धांतों का उल्लंघन दुर्लभ रहा है, भारत में इसके खूब उल्लंघन हुए हैं। सामान्य न्यायशास्त्र यहां यह मार्गदर्शक सिद्धांत स्थापित करता रहा है कि राज्य बहुसंख्यकों के विश्वासों में हस्तक्षेप कर सकता है, लेकिन अल्पसंख्यकों के मामले में नहीं। परिणामस्वरूप हम एक ऐसी प्रणाली देखते हैं जिसमें हिंदुओं पर फ्रांसीसी मॉडल लागू किया जाता है और अल्पसंख्यकों पर अमेरिकी मॉडल, जिसके परिणामस्वरूप छद्म पंथनिरपेक्षता जैसा पद अस्तित्व में आता है।
क्या भारत ऐसा कर सकता है!
आज के हालात को देखते हुए, भारतीय राज्य के लिए किसी प्रगतिशील कानून को लागू करना टेढ़ी खीर बन गया है क्योंकि गहराई तक पंथनिरपेक्षता की विकृत समझ को ठीक करने के हर प्रयास को यहां ‘सेकुलरिज्म’ पर हमले के रूप में देखा जाता है। भारत में ज्यादातर कानून प्राथमिक सिद्धांतों की बजाय सार्वजनिक मांग और नारों पर आधारित रहे हैं। वास्तव में, किन्हीं दो भारतीयों का भारतीय राज्य के प्राथमिक सिद्धांतों पर सहमत हो पाना ही अपने आप में विसंगति होगी, उनकी व्याख्या करना तो दूर की बात है।
भारत में पूर्व में रहीं सरकारों की अक्षमता से भी स्थिति जटिल हुई है, क्योंकि यहां सत्तारूढ़ समूह आम सहमति बनाने के लिए अपनी शक्तियों का उपयोग करने में विफल रहा है या वास्तव में बाहरी दुनिया को समझाने में असफल रहा है कि वह कौन-से प्राथमिक सिद्धांतों का पालन कर रहा है। ऐसे में क्या आश्चर्य कि सरकार ने तो सीएए, एनआरसी या तीन तलाक निषेध जैसे विधानों या दिल्ली दंगों के बाद अपने कार्यों को लेकर कोई प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं की, पर इन्हीं को लेकर गलत सूचनाएं और सरासर झूठ फैलाए जाते रहे। विदेशों तक में गलत सूचनाएं फैलाई जाती रहीं। हैरानी की बात है कि सीएए/एनआरसी के विरोध प्रदर्शन के दौरान मैंने व्यक्तिगत रूप से अमेरिका में सेवारत एक प्रतिष्ठित राजनयिक को वाशिंगटन डीसी की एक पार्टी में भारत सरकार का ‘सांप्रदायिक और फासीवादी’ के रूप में उल्लेख करते देखा जबकि वह राजनयिक वहां भारत का प्रतिनिधित्व करने की तनख्वाह पाता है। इससे भी ज्यादा बुरी बात यह है कि एक हजार साल के उपनिवेशवाद ने भारतीयों में एक तीव्र हीन भावना पैदा कर दी है जिसके कारण मौजूदा सत्तापक्ष गोरे लोगों और ‘उदार’ प्रेस की स्वीकृतियों की तलाश में रहता है।
अंतत:, फ्रांस ने जो किया वह करने के लिए भारत में सिद्धांतों की स्पष्टता, आत्मविश्वास, स्पष्ट संचार और राज्य की शक्तियों और सीमाओं की गहरी समझ की आवश्यकता है। और ये सभी खूबियां इस सरकार के कामों से झलक भी रही हैं, इसलिए हमें बहुत हद तक विश्वास है कि भारत में भी कट्टरवाद के खिलाफ एक कठोर प्रावधान देखने में आएगा।
फ्रांस के नए विधेयक के विरुद्ध लामबंद इस्लामी कट्टरवादी (फाइल चित्र)
यह है फ्रांस के अलगाववाद विरोधी विधेयक में
* ‘होम-स्कूलिंग’ पर प्रतिबंध और फ्रांसीसी अधिकारियों द्वारा सभी स्कूली पाठ्यक्रमों की कड़ी निगरानी
* केवल एथलेटिक कॅरिअर के लिए पेशेवर प्रशिक्षण लेने वाले तथा विकलांग बच्चों अथवा अन्य विशेष परिस्थितियों में ही घर पर स्कूली शिक्षा देने की होगी अनुमति
* मजहबी स्कूलों की स्थापना की अनुमति , परंतु यदि वे सरकार से किसी भी प्रकार का अनुदान या ऋण प्राप्त करते हैं तो उनके पाठ्यक्रम का अब फ्रेंच मान्यताओं के अनुरूप होना जरूरी
* पांथिक संस्थानों को अब बिना चूके अपना लेखा-जोखा प्रस्तुत करना होगा तथा विदेशों से 10,000 यूरो से अधिक की सभी आय की घोषणा करनी होगी। सरकारी धन या अनुबंध प्राप्त करने वाले किसी भी संघ, ट्रस्ट और निजी कंपनियों आदि को भी करना होगा इन नियमों का पालन
* यदि कोई संगठन सरकारी अनुबंध या धन पर निर्भर नहीं है तो भी अधिकारी अब ऐसे किसी भी संस्थान को बंद कर सकते हैं जिसमें किसी व्यक्ति या समूहों की नस्ल, जाति, पांथिक विश्वास, यौनिक अभिविन्यास अथवा लिंग के कारण उनके विरुद्ध भेदभाव, घृणा या हिंसा का कारण बनने वाली टिप्पणी की जाती है, या ऐसे विचारों और सिद्धांतों का प्रसार या वैसी घटनाओं को प्रेरित करने वाली गतिविधियां होती हैं
* इस कानून से पूरी छूट अथवा जरा भी छूट भी हासिल करने के लिए अधिकारियों से मौखिक या शारीरिक दुर्व्यवहार करने का प्रयास करने वालों को मिलेगा कठोर दंड
फ्रांसीसी ‘पंथनिरपेक्षता’ का इतिहास
यह समझने के लिए कि फ्रांस ऐसा सख्त कानून बनाने में सक्षम कैसे हुआ, हमें फ्रांसीसी पंथनिरपेक्षता की जड़ों को समझने की आवश्यकता है। अफसोस की बात है कि अंग्रेजी शब्द ‘सेकुलरिज्म’ इस सिद्धांत की विविधताओं और उत्पत्तियों पर लागू होने वाली बहुत-सी बारीकियों को सामने नहीं ला पाता। फ्रांसीसी भाषा में इसे ‘लाइसिटे’ कहा जाता है जो फ्रांसीसी कैथोलिक पुरोहितवाद के खिलाफ सैन्य विरोध के रूप में उभरी फ्रांसीसी क्रांति के दौरान विकसित हुआ था। यह देखते हुए कि पुरोहिताई के अधिकांश महत्वपूर्ण कार्य रईसों द्वारा किए जाते थे और फ्रांसीसी राजशाही की ज्यादतियों में चर्च किस हद तक शामिल था, क्रांतिकारियों ने चर्च के पादरियों को मारना और उनके विशेषाधिकारों को समाप्त करना शुरू कर दिया। उन्होंने रईसों की ही तरह इन पादरियों की जमीन भी हथिया ली। इसी से चर्च और राज्य के पूर्ण अलगाव के सिद्धांत का जन्म हुआ। इस लाइसिटे की जड़ें इससे भी पहले कार्डिनल रिचल्यू तक जाती हैं, जो सम्राट लुई तेरहवें का वास्तविक प्रधानमंत्री था और जिसने प्रोटेस्टैंटों को पांथिक स्वतंत्रता की अनुमति दी थी, बशर्ते वे इस स्वतंत्रता का उपयोग फ्रांसीसी राज्य के खिलाफ प्रचार, राजनीति या विद्रोह के लिए न करें। लेकिन, क्रांति के बाद से यह सिद्धांत और स्पष्ट रूप से परिभाषित हो गया और बाद के सभी शासकों द्वारा इसे कड़ाई से लागू किया गया। इसी का परिणाम था कि क्रांति के कुछ ही साल बाद जब नेपोलियन बोनापार्ट ने खुद को सम्राट घोषित किया तो उसने अपने राज्याभिषेक में हालांकि पोप को आमंत्रित किया था, फिर भी मुकुट पहनने के समय उसने मुकुट को पोप के हाथों से लेकर खुद अपने हाथों से अपने सिर पर रखा था जिससे पंथ पर फ्रांसीसी राज्य की श्रेष्ठता स्थापित हुई।
अमेरिका में पंथनिरपेक्षता का विकास अलग तरीके से हुआ और वहां एक अलग रास्ता अपनाया गया था। खुद उग्र प्रोटेस्टैंट तथा कैथोलिक विरोधी हो चुके अंग्रेजों के बीच भी अत्यंत अतिवादी समझे जाने वाले उग्र प्रोटेस्टैंटों द्वारा स्थापित अमेरिका में पंथनिरपेक्षता का मार्गदर्शक सिद्धांत यह था कि चाहे जितनी मुश्किल हो, अलग-अलग विश्वासों को स्वीकार किया जाना चाहिए। इसका मतलब यह है कि पांथिक व्यवस्थाओं से ऊपर राज्य के विधान को स्थान देने वाले फ्रांस के विपरीत अमेरिका में पंथ को पवित्र माना गया और वह चाहे कितना भी खराब या प्रतिगामी व्यवहार करे, उसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता था। स्पष्टत: फ्रांस की तरह जहां इस सिद्धांत के कार्यान्वयन में कई विविधताएं देखी गर्इं, यहां भी मूल सिद्धांत हमेशा इसी रूप में नहीं लागू हो सका। उदाहरण के लिए, बहुविवाह पर अमेरिकी प्रतिबंध को सभी पंथों पर समान रूप से लागू किया गया था।
(लेखक इंस्टीट्यूट आॅफ पीस एंड कॉन्फ्लिक्ट स्टडीज में सीनियर फेलो हैं)
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