राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर समूचे भारतवर्ष का सांस रोक कर नए ‘नरेंद्र’ को सुनना भी एक नए इतिहास का रचना ही माना जाएगा.
कथा हम सब जानते हैं कि 11 सितम्बर, 1893 को अमेरिका के शिकागो में धर्म संसद में बहनों और भाइयों… कहते ही सुदूर भारत से पहुचे नरेंद्र ने तालियों की करतल ध्वनि पाकर इतिहास रच दिया था। उस ऐतिहासिक प्रतिक्रिया का कारण यह तो था ही कि मानव के बीच भाईचारा या बहनत्व भी हो सकता है, ऐसा चिंतन जरा अनोखा था, उस संस्कृति के लिए। किन्तु उससे भी अधिक महत्व शायद उस वक्तृत्व के उस ओज का था, जो आप वाणी और विचार में समन्वय से पाते हैं. आप जो सोचें अगर वही बोल पाते हों, तो समझ लीजिये आपकी अभिव्यक्ति इतिहास रचेगी ही. शास्त्रों में कहा गया है- मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनान… अर्थात महात्मा का लक्षण ही यही है कि उसके मन, वचन और कर्म में साम्य हो, इसके उलट बोलने, करने और सोचने में अलगाव किसी दुरात्मा का लक्षण है. अस्तु.
राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर समूचे भारतवर्ष का सांस रोक कर नए ‘नरेंद्र’ को सुनना भी एक नए इतिहास का रचना ही माना जाएगा. यह इसलिए ही क्योंकि इस उद्बोधन में भी वाणी और विचार का साम्य आपको शब्द-शब्द में दिखा होगा. एक ऐसे समय में जब विपक्ष ने-जिसे जनता ने सदन में विपक्ष के लायक भी नहीं रहने दिया है- अपनी पूरी भूमिका का ही शीर्षासन करते हुए सत्ता में रहते अपने ही प्रस्तावित कानून के खिलाफ आज देश का जन जीवन अस्त-व्यस्त किया पड़ा हो। ऐसे कठिन समय में जब राष्ट्र के स्वाभिमान के प्रतीक लाल किला पर अवस्थित तिरंगा तक को किसान के वेश में आकर उपद्रवियों-आन्दोलनजीवियों ने लांछित करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी हो। ऐसे समय में जब किसान के नाम पर अमेरिका तक में ‘आन्दोलनजीवियों’ ने 44 करोड़ का विज्ञापन और 18 करोड़ का ट्वीट (खबरों और रिपोर्टों के अनुसार) खरीद कर अपने ही देश के विरुद्ध युद्ध सा छेड़ दिया हो। ऐसे समय जहां महज विद्वेष के कारण बड़े-बड़े विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों द्वारा दशकों से सोचे गए कृषि सुधार को दुनिया भर का संसाधन, अपनी सारी ताकत लगा कर बनाए गए कानून के विरुद्ध आन्दोलन को अराजकता का पर्याय बना दिया हो। ऐसे उचित समय पर सारे देश की नजर अपने मुखिया पर, प्रधानमंत्री पर थी. सबको आशा थी कि सदन में इस विषय पर प्रधानमंत्री का अपेक्षित उद्बोधन बहुत सारे धुंध के छंट जाने में सहायक होगा. ऐसे सभी तटस्थ लोग जिन्हें वास्तव में तथ्यों से ही मतलब होता है, उन्हें भी इस उद्बोधन की प्रतीक्षा थी और निश्चित ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें निराश नहीं किया. निश्चित ही आशा से अधिक उद्बोधन में पाया होगा.
आप अगर वर्तमान के परिदृश्य पर नजर दौड़ाएंगे तो ऐसे वक़्ता विरले ही मिलेंगे जो वक़्त को रोक दें। ऐसा प्रयास जिसमें एक ही संभाषण में सबके लिये सब कुछ हो। दुर्लभ है ऐसा, जैसा इस उद्बोधन में दिखा. आभासीय माध्यमों पर सक्रिय सेनानियों हेतु ‘आंदोलनजीवी’ शब्द का उपहार. रक्त पिपासुओं के लिये खरी-खरी. ज्ञान पिपासुओं के लिये जानकारियों का खजाना। उदाहरणत: यह तथ्य कि तात्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के समय कोई नेता कृषि मंत्री नहीं होना चाहता था, क्योंकि वे सब जानते थे कि बहुधा सुधार लोकप्रिय नहीं होते. इसी तरह माटीपुत्र वास्तविक अन्नदाताओं के लिये अभिभावक तुल्य संदेश कि ‘उनकी उपज पर समर्थन मूल्य था, है और रहेगा भी’, का आश्वासन. संवाद और विमर्श लोकतंत्र के प्राण होते हैं, अत: लोक में आस्था रखने वाले राष्ट्रीयों से अनेक बार यह कहना कि बातचीत के किवाड़ सदैव खुले हैं और रहेंगे. सदा सकारात्मक परिवर्तन और सुधारों के लिए तैयार देश के उदार वर्गों के लिए यह सन्देश कि जितनी बार और जब भी आवश्यक हो, विधि में सुधार के लिए वे सतत तैयार हैं. किसी भी प्रकार की हठधर्मिता को स्थान दिए बिना.
और ऐसा सहिष्णु वह नेता है जिसे समूचे भारत का ऐतिहासिक समर्थन, विश्व भर से अगाध सराहना प्राप्त है. जिसके आत्मनिर्भर भारत की गूंज अमेरिका, ब्राजील से लेकर ब्रिटेन तक को प्रेरित-प्रभावित कर रहा है. फिर भी विनम्रता और लचीलापन का चरम न सिर्फ अपनों के लिए अपितु विरोधियों और दुराग्रहियों तक के लिए भी दिखाना वास्तव में ऐसा कार्य है जिसकी अपेक्षा सामान्य मानवी से तो नहीं ही की जाती है. गोस्वामी जी मानस में लिखते हैं- ‘नहिं कोऊ अस जनमा जग माही, प्रभुता पाई जाहि मद नाहीं.’ अर्थात साफल्य के साथ, अहंकार स्वाभाविक रूप से आता ही आता है. परन्तु इसके अपवाद का साक्ष्य मोदी जी प्रस्तुत करना चाहते हैं तो यह अलौकिक है, इसकी प्रशंसा होनी चाहिए, जैसा हो भी रहा है.
राज्यसभा के चार सांसदों की विदाई पर प्रधानमंत्री का वक्तव्य देखा। धुर विरोधी कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद की प्रशंसा में मोदी जी जिस तरह भावुक हुए, कुछ समय पहले के ही कश्मीर मामले में गुलाम नबी आजाद का जितना आक्रमण झेला मोदी जी ने, उसे भी भूलते हुए जिस तरह एक आतंकी आक्रमण के समय आजाद द्वारा दिखाए सौजन्यता का वर्णन प्रेमाश्रु के संग मोदी जी का करना। इस आलेख का आशय कृषि कानूनों के गुण-दोषों पर चर्चा करना नहीं अपितु एक राजनीतिक नायक के सतत आध्यात्मिक उत्थान का वर्णन करना है. इस कठिन समय में जब विरोध महज विरोध के लिए अथवा राजनीतिक समीकरण के आधार पर होता हो, ऐसे में बड़े ह्रदय का परिचय देते हुए कृषि कानूनों में भी जो भी समस्या हो, (अगर हो तो) उसका दायित्व स्वयं के सिर पर लेते हुए उसकी सभी अच्छाइयों का श्रेय अपने मनमोहन सिंह और लाल बहादुर शास्त्री प्रभृति पूर्ववर्तियों के देने का औदार्य ही किसी व्यक्ति को ‘नरेंद्र मोदी’ बनाता है. मानस में ही संत का वर्णन करते हुए तुलसी बाबा लिखते हैं- संत असंतहि कै असि करनी, जिमि कुठार चंदन आचरनी… जैसे चंदन के पेड़ को काटने वाले कुठार को भी चंदन सुवासित-सुगंधित ही करता है, संत अपने आचरण से बुरा करने वालों का भी भला ही करते हैं. दुष्प्रचारों के इस कुठार वाले समय में चंदन बन कर रहना आसान तो कतई नहीं, परन्तु नायक आसान राह चुनते भी कहां हैं? है न?
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