चीन ने अपने उत्पाद में सुधार के बजाय दूसरी अधिक प्रभावी माने जाने वाली वैक्सीन के विरुद्ध दुष्प्रचार अभियान प्रारंभ कर दिया है। अभी फाइजर और मॉडर्ना उसके प्रमुख निशाने पर हैं
विश्व में कोरोना वायरस जैसी महामारी देने के बाद चीन ने उससे भी लाभ कमाने के रास्ते खोज निकाले। पहले यूरोपियन देशों से अनुदान के रूप में मिली सामग्री और उपकरण उसने उन्हीं देशों कोे, जब वहां कोविड-19 का संक्रमण फैलना शुरू हुआ तो, बड़ी ही निर्लज्जता के साथ ऊंचे दामों में बेच डाले। और अब उसकी निगाह इसकी रोकथाम के लिए विकसित की जा रही वैक्सीन के बाजार पर है। इससे वह न केवल आर्थिक लाभ कमाना चाहता है, बल्कि साथ ही साथ वह विश्व में एक वैज्ञानिक महाशक्ति के रूप में मान्यता और राजनैतिक वर्चस्व की चाह रखता है।
जिस तेजी से चीन की वैक्सीन बनाने वाली दो राजकीय कम्पनियां सिनोफार्म और सिनोवैक ने कहा है कि वे संयुक्त रूप से इस वर्ष दो अरब डोजेज का उत्पादन कर सकने में सक्षम हैं, आश्चर्य का विषय है। और साथ ही साथ उन्होंने विश्व भर में इसके लिए आक्रामक तरीके से मार्केटिंग भी प्रारंभ कर दी है। परन्तु जैसा कि विश्व के अधिकांश भाग में चीन की ख्याति है कि उसे एक अविश्वसनीय राष्ट्र माना जाता है, यही अविश्वास उसकी वैक्सीन के प्रति व्यक्त किया जा रहा है। वैक्सीन की गुणवत्ता और उसकी प्रभावी आपूर्ति की कमी चीन के प्रलोभन के रास्ते में बड़ी रुकावट बनती जा रही है। 17 देशों और क्षेत्रों में लगभग उन्नीस हजार लोगों के बीच कराये गए सर्वेक्षण में अधिकांश लोगों ने चीन में बनी कोविड -19 वैक्सीन के प्रति अविश्वास व्यक्त किया।
ब्राजील और तुर्की जैसे देशों जिन्होंने शुरुआत में ही चीनी वैक्सीन में रूचि दिखाई थी, को आपूर्ति में विलम्ब एक बड़ी समस्या बनी हुई है। चीन ने तुर्की से सिनोवैक द्वारा निर्मित वैक्सीन की10 मिलियन डोजेज दिसंबर में देने का वादा किया था परन्तु तुर्की के स्वास्थ्य मंत्री फहार्टिन कोका के अनुसार जनवरी की शुरुआत तक केवल तीन मिलियन डोजेज ही उपलब्ध कराई गई हैं। इससे तुर्की की सरकार को फजीहत का सामना करना पड़ रहा है। इसी तरह चीनी वायदे से त्रस्त ब्राजील ने भारत में निर्मित वैक्सीन के साथ आॅक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका वैक्सीन को प्राथमिकता दे दी है। फिलीपींस में कई सांसदों ने सिनोवैक द्वारा बनाए गए टीके को खरीदने के सरकार के फैसले की आलोचना की है। मलेशिया की सरकार जिसने सिनोवैक को वैक्सीन की आपूर्ति का आॅर्डर दिया था, को अपने नागरिकों को आश्वस्त कराना पड़ा है कि वे केवल तभी इस वैक्सीन को मंजूरी देंगे यदि यह सुरक्षित और प्रभावी साबित हुई। सिंगापुर का विदेश मंत्रालय इस वैक्सीन के पहले दिए गए आॅर्डर को आगामी आदेश तक स्थगित कर चुका है।
सिनोवैक और सिनोफार्म द्वारा निर्मित वैक्सीन की प्रभावकारिता संदेह के घेरे में आ गई है। विश्व भर में चीन ने जोर शोर से जो दावे किये थे, नवीनतम टेस्ट उन दावों की पोल खोल रहे हैं। तुर्की में इसके परीक्षण से पता चला है कि वैक्सीन की प्रभावकारिता की दर 91 प्रतिशत है, जबकि इंडोनेशिया में हुए परीक्षणों में इसकी प्रभावकारिता 68 प्रतिशत और ब्राजील में 78 प्रतिशत पाई गई। इसी 12 जनवरी को वैज्ञानिकों ने इसके विस्तृत परिणामों के अध्ययन के बाद इसकी प्रभावकारिता को केवल 50 प्रतिशत से कुछ अधिक पाया।
परन्तु इस संदेहास्पद गुणवत्ता के बावजूद इस चीनी वैक्सीन के लिए एक बड़ा बाजार उपलब्ध है। इनमें पाकिस्तान समेत लगभग 40 देश शामिल हैं। खास बात यह है कि यह वे देश हैं, जिन्होंने विकास के नाम पर चीन से बड़े पैमाने पर पैसा उधार लिया है और ऋण के दुश्चक्र में फंसे यह देश गुणवत्ता के साथ समझौता करने को विवश हैं। इस प्रकार विश्व की एक बड़ी जनसंख्या पर इस वायरस का खतरा बरकरार ही रहेगा।
परन्तु चीन ने अपने उत्पाद में सुधार के बजाय दूसरे अधिक प्रभावी माने जाने वाली वैक्सीन के विरुद्ध दुष्प्रचार अभियान प्रारंभ कर दिया है। अभी फाइजर और मॉडर्ना उसके निशाने पर हैं। समाचार पत्र न्यूयॉर्क टाइम्स के अनुसार चीनी सरकारी समाचार माध्यम इन अमेरिकी कम्पनियों द्वारा निर्मित वैक्सीन्स की सुरक्षा पर सवाल उठाते हुए और बेहतर विकल्प के रूप में चीनी वैक्सीन्स को प्रस्तुत कर रहे हैं। और इसके लिए वे कुछ ऐसे आॅनलाइन वीडियो भी वितरित कर रहे हैं जो संयुक्त राज्य अमेरिका में वैक्सीन विरोधी आंदोलन द्वारा साझा किए गए थे।
बहरहाल, चीन की चाल को दुनिया समझ है। ऐसे में दुनिया के लोग अब किसी भी हालत में चीन की चाल में नहीं फंसना चाहते।
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