कुछ बरस पहले पुणे जाना हुआ, वहां जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र की एक बैठक में सम्मिलत होना था। पुणे के बारे में मराठी जगत में कहा जाता है कि महाराष्ट्राचे केंद्र स्थान पुणे आहे, अर्थात् पुणे ही महाराष्ट्र का मर्म है। और यह बात सौ टका सच है। पुणे की मराठी को मराठी भाषा का मानक रूप माना जाता है। नदी पार का यह पुराना शहर 17 पेठ में बसा है। उसमें आप कहीं भी जाएं, सभी सूचना-पट, दुकानों के नामपट वगैरह मराठी में ही मिलेंगे। वहां सभी आपस में मराठी में ही बोलते हैं। पुणे में स्टेशन को वहां के लोग स्थानक कहते हैं तो अस्पताल को रुग्णालय। नेत्रहीनों के स्कूल को अंधशाला। फ़ुटपॉथ वहां पादचारी मार्ग कहलाता है। सवाई गंधर्व के संगीत समारोह वाला पुणे, भारत का ऑक्सफ़ोर्ड और डेट्राइट, बेंगलुरू और हैदराबाद के बाद भारत की सबसे बड़ी सिलिकन वैली है।
स्पष्टवादी पुणेवासी
पुणे का ‘माणूस’ सुसंस्कृत है-महाराष्ट्रीयन सर्विस-क्लास। टाइम से उठना, टाइम से सोना, टाइम से खाना और टाइम से चाय पीना। ज़रूरत से ज़्यादा न किसी से कुछ पूछना, न किसी को कुछ बताना। अभिव्यक्ति सपाट, टू-द-पॉइंट, बेलाग, स्ट्रैट फ़ॉरवर्ड। नो-नॉनसेंस वाला अंदाज़। क्योंकि पुणेकरों का कटाक्ष बड़ा प्रसिद्ध है। पुणेरी पाटी में इसकी झलक मिलती है। पुणेरी पाटी यानी पुणे के सूचना-पट। यहां के सूचना-पटों में वक्रोक्तियां होती हैं। उदाहरण के लिए, कृपया बार-बार घंटी बजाएं। इस बात को पुणे के लोग इस तरह से कहेंगे-‘दारावरची बेल वाजविल्यावर थोडी वाट पाहायला शिका घरात माणसं राहतात स्पायडरमॅन नाही!’ (बेल बजाने के बाद थोड़ा इंतजार करें, घर में इंसान रहते हैं स्पाइडरमैन नहीं) दवाख़ाने पर यह भी लिखा मिल सकता है-‘आम्ही आजवर बरेच जण बरे केले आहेत!’ (हमने आज तक बहुतों को ‘ठीक’ किया है)।
अनूठी सूचनाएं
पुणे नगर में ‘गुप्ता मार्बल ऍन्ड ग्रेनाइट’ दुकान पर यह सूचना-पट देखा-‘ऊधार फक्त 100 ते 150 वर्ष वयाच्या लोकांनाच दिले जाईल, ते पण त्यांच्या आई वडीलांना विचारून!’ (उधार केवल सौ या डेढ़ सौ की उम्र वालों को दिया जाएगा, वह भी उनके मां-पिता से पूछकर)। अपने भोपाल में इसी बात को सीधे तरह से लिखते हैं– ‘कृपया उधार न मांगें’। इन्दौर में अधिक से अधिक ‘नौ नगद तेरह उधार’ या ‘उधार प्रेम की कैंची है’ जैसे मुहावरे दुहरा दिए जाते। पर पुणेरी पाटी वाली वक्रोक्ति मालव-देश के जन कहां से लाएंगे? पता पूछने वालों को यह कैसे कहेंगे कि ‘इधर जोशी रहते हैं, महाजन, गायकवाड़, फडणवीस नहीं, इसलिए बार-बार पता न पूछें!’
वास्तुकला की भाषा
पुणे में शनिवार वाड़ा को देखकर मुझे इन्दौर का राजबाड़ा याद आया। होलकरों का इन्दौर, जिसके पुराने शहर में मराठी-संस्कृति की गहरी छाप आज भी है। कसबा गणपति देखकर मुझे महेश्वर के अहिल्या मंदिर की याद आई। कोट-प्राचीर, भीतर खुला अहाता, तुलसीचौरा, गणपति की देवळी, परिधि पर गादी-पेढ़ी के परिवृत्त, काष्ठ-शलाकाओं की दीर्घाएं यानी खास मराठी वास्तु-शिल्प-दाक्षिणात्य शैली। लक्ष्मी मार्ग और पेठ बाजार में भटकते हुए एकबारगी मुझे लगा कि कहीं पेशवाओं के कालखण्ड में तो नहीं चला आया। गणपति इस नगर के अधिष्ठाता हैं, जैसे काशी के शिव हैं।
पुराने नगर में हर गली-कूचे में आपको गणपति की ‘देवळं’ (मंदिर) मिलेगी। कसबा गणपति की बात तो ऊपर कर ही दी। दूसरे प्रसिद्ध विनायक हैं श्रीमंत दगड़ूशेठ हलवाई गणपती। फिर तुळशीबाग के बड़ा गणेश हैं। मध्यवर्ती नगर में ही नाना वाड़ा और दत्त मंदिर भी हैं। शिवाजी महाराज का लाल महल है। फिल्म और टेलीविज़न संस्थान, यरवदा कारागृह, आगा खां पैलेस का पुणे। कोरेगांव पार्क की अर्बन-हरीतिमा, ‘सोफिस्टिफिकेशन’ और रजनीश आश्रम वाला पुणे। यह नगर अतुल्य है।
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