यह घटना महज एक राजनीतिक संघर्ष नहीं था। यह बांग्लादेश के संविधान का उल्लंघन था। मानवाधिकार का उल्लंघन था। यह जिनेवा कन्वेंशन का सीधे तौर पर उल्लंघन था। सेना को नागरिकों पर बल प्रयोग की अनुमति नहीं है, सैन्य ताकत केवल शत्रु के विरुद्ध प्रयोग की जाती है, आम नागरिकों पर नहीं।
जब एक देश अपने इतिहास को मिटाने लगता है, तब उसका वर्तमान भी रेत की तरह फिसलने लगता है। बांग्लादेश इसका जीता-जागता उदाहरण बन चुका है। जो कभी पाकिस्तान की यातनाओं और अपमान से स्वतंत्रता पाकर पंथनिरपेक्ष देश बना, किन्तु आज खुद कट्टरपंथ की जकड़ में है।

16 जुलाई 2025, यह केवल एक तारीख नहीं, बल्कि वह दिन था जब बांग्लादेश की आत्मा पर हमला हुआ। यह वह दिन था, जब गोपालगंज की गलियों में सिर्फ रक्त नहीं बहा, बल्कि उस इतिहास को भी बहा दिया गया जिसे शेख मुजीबुर्रहमान ने पाकिस्तान के अत्याचार के विरुद्ध लड़कर प्राप्त किया था। बुलडोजर, फावड़े, हथौड़े और क्रेन लेकर गुस्से से तमतमा रही कट्टरपंथी भीड़ ने ढाका स्थित शेख मुजीबुर्रहमान के मकान ‘धानमंडी 32’ को नेस्तोनाबूद कर दिया। उनकी समाधि को तोड़ डाला। और जिन नागरिकों ने उसका प्रतिकार किया, उन्हें बांग्लादेशी सेना ने गोलियों से छलनी कर दिया।
बांग्लादेशी सेना ने ‘लाइन फॉर्मेशन‘ में फायरिंग कर आम नागरिकों की हत्या की। यह सैन्य रणनीति आमतौर पर युद्ध में दुश्मन को सामूहिक रूप से मारने के लिए होती है, न कि नागरिकों पर प्रयोग करने के लिए। मीडिया में मरने वालों की संख्या अलग-अलग आई, लेकिन यूके के एक थिंक टैंक द्वारा संयुक्त राष्ट्र के महासचिव को लिखे पत्र में 21 लोगों के मारे जाने की बात कही गई है। यह सामान्य बात नहीं कि नेशनलिस्ट सिटिजन्स पार्टी (एनसीपी) नाम की एक अपंजीकृत और गैर मान्यता प्राप्त पार्टी शेख मुजीबुर्रहमान की समाधि को गिराने का खुला ऐलान करे और सेना उसका साथ दे। जब स्थानीय नागरिक विरोध करें, तो उन्हीं पर सेना गोलियां बरसा दे। 3 अगस्त 2024 को सेना प्रमुख वक्कार-उज-जमां ने कहा था कि कभी अपने नागरिकों पर गोली नहीं चलेगी और आज सिर्फ 11 महीने बाद उन्हीं नागरिकों की लाशें सड़कों पर पड़ी थीं।
सवाल कई हैं, जिनके जवाब आज विश्व बिरादरी को मांगना आवश्यक है। जब बांग्लादेश की ऐतिहासिक धरोहर ‘धानमंडी 32’ को गिराया जा रहा था, तब सेना कहां थी? क्या गैर मान्यता प्राप्त और अपंजीकृत (एनसीपी) पार्टी, इतनी ताकतवर हो गई है कि उसके लिए सेना तक झुक जाए ? क्या गोपालगंज के नागरिक, बांग्लादेश के नागरिक नहीं थे, जिन्हें वहां का संविधान समान सुरक्षा देता है ?
यह घटना महज एक राजनीतिक संघर्ष नहीं था। यह बांग्लादेश के संविधान का उल्लंघन था। मानवाधिकार का उल्लंघन था। यह जिनेवा कन्वेंशन का सीधे तौर पर उल्लंघन था।
सेना को नागरिकों पर बल प्रयोग की अनुमति नहीं है, सैन्य ताकत केवल शत्रु के विरुद्ध प्रयोग की जाती है, आम नागरिकों पर नहीं। यह यूनेस्को कन्वेंशन (1972) का उल्लंघन था जिसके तहत सांस्कृतिक धरोहरों की रक्षा करने की बांग्लादेश ने संधि की थी। सवाल सिर्फ बांग्लादेश से नहीं है। सवाल अंतरराष्ट्रीय समुदाय से भी है। क्या संयुक्त राष्ट्र केवल एक कागजी संस्था बनकर रह जाएगी ? क्या अब सेना की बंदूक से बांग्लादेश में लोकतंत्र की परिभाषा लिखी जाएगी ? क्योंकि बांग्लादेश से सामने आए हाल के आंकड़े यही सवाल खड़े करते हैं। पिछले दिनों बांग्लादेश हिंदू बौद्ध ईसाई एकता परिषद ने अगस्त 2024 और जून 2025 के कुछ आंकड़े पेश किए हैं। इस अवधि के दौरान सांप्रदायिक हिंसा की 2,442 घटनाएं दर्ज की गई हैं। बांग्लादेश में सिर्फ अल्पसंख्यकों को ही नहीं मारा जा रहा, बल्कि वहां की सांस्कृतिक धरोहरों को भी नष्ट किया जा रहा है।
इन घटनाओं को एक साथ देखने पर स्पष्ट होता है कि बांग्लादेश की राष्ट्रीय पहचान, लोकतांत्रिक मूल्य और मानवीय गरिमा पर सुनियोजित हमले हो रहे हैं। संदेह तो यह भी है कि क्या इस पूरे घटनाक्रम के पीछे कुछ अदृश्य चेहरे हैं? जैसे डॉ. मोहम्मद यूनुस, जिनकी भूमिका पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जांच किए जाने की मांग उठ रही है। यह विडंबना ही है कि बांग्लादेश एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान से अलग हुआ, लेकिन आज वहां कट्टरपंथी केवल हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यकों पर ही नहीं बल्कि उस देश की मूल चेतना पर भी वार कर रहे हैं।
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