छत्रपति शिवाजी महाराज का नाम भारतीय इतिहास में स्वराज्य, रणनीति और परंपरा का पर्याय है। वे एक महान योद्धा और राष्ट्रनिर्माता ही नहीं, कला, संस्कृति और स्थापत्य के अद्वितीय संरक्षक भी थे। उन्होंने जिन किलों को अपने स्वराज्य की नींव और सुरक्षा का आधार बनाया, वे आज भी मराठा वैभव, शौर्य और दूरदृष्टि की गाथा सुनाते हैं। ये दुर्ग मराठा वास्तुकला, सैन्य रणनीति और सांस्कृतिक चेतना के ऐसे जीवंत प्रतीक हैं, जो इतिहास में अपनी अमिट छाप छोड़ते हैं। शिवाजी महाराज महान योद्धा से कहीं अधिक, एक दूरदर्शी रणनीतिकार, कुशल भूगोलविद् और स्थापत्य प्रेमी थे। उन्होंने ल्कि ऐसी दुर्ग-संस्कृति का निर्माण किया, जो आज भी भारतीय सैन्य वास्तुकला और रणनीतिक सोच का एक अनुकरणीय और कालातीत उदाहरण है।

किलों से गहरा जुड़ाव
छत्रपति शिवाजी का जन्म 19 फरवरी, 1630 को शिवनेरी दुर्ग में हुआ था। उनके जीवन का अधिकांश हिस्सा किसी-न-किसी किले में ही व्यतीत हुआ। शिवनेरी दुर्ग के बारे में सर रिचर्ड टेंपल ने अपनी पुस्तक ‘शिवाजी और मराठों का उत्थान’ में लिखा है, “यह स्थान एक जननायक के जन्म के लिए कितना उपयुक्त है!” 19वीं सदी में बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर और बॉम्बे के गवर्नर रहे रिचर्ड टेंपल ने शिवाजी महाराज को मध्यकालीन भारत के महानतम रचनात्मक प्रतिभाओं में से एक और एक ऐसे ‘नायक के रूप में राजा’ के रूप में वर्णित किया है, जिसकी स्मृति ‘पूरी मानव जाति के लिए एक अमर ऐतिहासिक विरासत’ है। उसने शिवाजी राजे के राजनीतिक आदर्शों की प्रशंसा की, जो आज भी प्रासंगिक हैं। टेंपल ने शिवाजी को ‘विश्व के महानतम व्यक्तियों में से एक’ बताया, जो ‘प्राचीन दार्शनिकों की शिक्षाओं से प्राप्त दृष्टि और राजनीतिक विचारों से प्रेरित थे।’ शिवाजी बताते हुए ब्रिटिश प्रशासक ने उन्हें एक महान शासक, एक दूरदर्शी नेता और देशभक्त के रूप में देखा, जिन्होंने अपनी प्रजा के लिए शांति, समृद्धि और न्याय सुनिश्चित करने का प्रयास किया।
छत्रपति शिवाजी का बाल्यकाल पुणे जिले की पश्चिमी मावल पट्टी में बीता। यह क्षेत्र घुमावदार घाटियों और ऊंची-नीची पहाड़ियों से घिरा है, जिन पर दुर्ग स्थापत्य की अद्भुत मिसालें देखने को मिलती हैं। मावले लोग (इन पर्वतीय क्षेत्रों के निवासी) उनकी सेना की रीढ़ बने। दादोजी कोंडदेव के संरक्षण में और फिर स्वतंत्र रूप से उन्होंने इन क्षेत्रों की यात्रा और भूगोल का गहन अध्ययन किया था। 1668-73 ई. की कालावधि में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी के महानिदेशक रहे बार्थेलेमू कार का लिखा है, “उन्होंने (शिवाजी ने) भूगोल का गहन अध्ययन किया था। वे अपने राज्य की भूमि, गांवों और पेड़-पौधों तक से परिचित थे और उनके बनाए नक्शे अत्यंत सटीक होते थे।”
छत्रपति शिवाजी ने अपने जीवन के 50 वर्ष यानी 18,306 दिन के जीवन में से 8,558 दिन किलों में बिताए। यह तथ्य उनके जीवन, सोच और शासन व्यवस्था में किलों की केंद्रीय भूमिका को दर्शाता है। उनका राज्याभिषेक 1674 में रायगढ़ किले में हुआ और 1680 में देहावसान भी वहीं हुआ। उनके दोनों पुत्र, संभाजी (पुरंदर) और राजाराम (रायगढ़) भी किलों में ही जन्मे।
छत्रपति शिवाजी की दुर्ग-नीति का आरंभिक प्रमाण 1646 में तोरणा दुर्ग पर उनके अधिकार से मिलता है, जब वे मात्र 15 वर्ष के थे। पुणे से करीब 40 कि.मी. दक्षिण-पश्चिम में स्थित इस दुर्ग पर उन्होंने अपने कुछ साथियों के सहयोग से अधिकार किया था। इस प्रथम प्रयास के बाद उन्होंने कोंडाणा, पुरंदर और मुरुमदेव किलों पर अधिकार किया। इनमें दूसरा दुर्ग, जिसे उन्होंने राजगढ़ नाम दिया, 1670 तक उनकी राजधानी बना रहा। उनकी दुर्ग नीति तीन प्रमुख स्तंभों पर आधारित थी। पहला, किलों का सामरिक दृष्टि से चयन, दूसरा मौजूदा किलों का पुनर्निर्माण और सुदृढ़ीकरण और तीसरा नए किलों का निर्माण, विशेषतः जहां प्राकृतिक भौगोलिक लाभ मिले। उन्होंने इन किलों को केवल रक्षा के लिए नहीं, बल्कि प्रशासन, रसद, संचार और प्रेरणा के केंद्र के रूप में विकसित किया।
इस सम्मान से हर भारतीय गद्गद् है। जब हम गौरवशाली मराठा साम्राज्य की बात करते हैं, तो इसे सुशासन, सैन्य शक्ति, सांस्कृतिक गौरव और सामाजिक कल्याण से जोड़ते हैं। महान शासक किसी भी अन्याय के आगे न झुकने के अपने साहस से हमें प्रेरित करते हैं। मैं सभी से इन किलों को देखने और मराठा साम्राज्य के समृद्ध इतिहास के बारे में जानने का आह्वान करता हूं। —नरेन्द्र मोदी, प्रधानमंत्री
महाराष्ट्र सरकार छत्रपति शिवाजी महाराज को नमन करती है। मुझे यह बताते हुए अत्यंत प्रसन्नता हो रही है कि हमारे महानतम राजा छत्रपति शिवाजी महाराज के 12 किलों को यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में शामिल किया गया है।
– देवेंद्र फडणवीस, मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र
कला और संस्कृति के संरक्षक
छत्रपति शिवाजी संस्कृति के संरक्षक भी थे। किलों के निर्माण, पुनर्निर्माण और उपयोग में उनकी असाधारण रुचि थी। उन्होंने स्थानीय भौगोलिक स्थितियों, जलवायु और सामरिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए किलों का निर्माण किया। उन्होंने किलों में स्थानीय शिल्प, पर्यावरण और सामरिक आवश्यकताओं का सुंदर समन्वय किया। इन किलों में जल संग्रहण प्रणाली, गुप्त मार्ग और रक्षा तंत्र जैसे नवाचारों को देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, किलों में जलाशय और भूमिगत जल प्रणाली बनाई गई ताकि लंबी घेराबंदी में भी पानी की कमी न हो। उन्होंने मराठा स्थापत्य शैली को बढ़ावा दिया, जिसमें पारंपरिक भारतीय वास्तुकला के तत्व शामिल थे।
यह स्थानीय कारीगरों को अपनी कला प्रदर्शित करने का अवसर देता था। इन किलों में 20 फीट मोटी दीवारें, सैन्य चाैकियां और व्यू प्वाइंट्स को विकसित किया। उनके द्वारा बनाए गए राजगढ़, रायगढ़, तोरणा, लोहगढ़, कल्याण महल (जिंजी किला), सिंधुदुर्ग का प्रवेश द्वार जैसे दुर्ग उनकी स्थापत्य कुशलता के जीवंत प्रतीक हैं। उन्होंने मंदिरों, महलों, प्राचीरों और सभागृहों का भी निर्माण कराया और मराठी भाषा को प्रशासनिक और सांस्कृतिक प्रतिष्ठा दिलाई। वे संगीत, साहित्य और धार्मिक आयोजनों के प्रोत्साहक थे। उनके दरबार में कवियों, पंडितों, इतिहासकारों और कलाकारों को राजकीय सम्मान प्राप्त था।
स्वदेशी तकनीक को बढ़ावा
उन्होंने मराठा साम्राज्य की स्थापना और सुदृढ़ीकरण में वास्तु-स्थापत्य को विशेष महत्व दिया। उन्होंने स्थानीय अभियंताओं और कारीगरों का उपयोग कर किलों के निर्माण और पुनर्निर्माण को बढ़ावा दिया, जो न केवल रक्षा के लिए, बल्कि सामरिक और रणनीतिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण थे। यही नहीं, उन्होंने विदेशी तकनीकी पर निर्भरता कम की और स्थानीय तकनीकी ज्ञान को प्रोत्साहन दिया। यह उनकी रणनीति थी कि स्थानीय सामग्री और विशेषज्ञता का उपयोग करके किलों को जल्दी और प्रभावी ढंग से बनाया जाए। किलों के निर्माण में स्थानीय पत्थरों, लकड़ी और अन्य सामग्री का उपयोग किया गया, जो पहाड़ी क्षेत्रों में आसानी से उपलब्ध थी। इससे निर्माण लागत कम हुई और समय की बचत हुई। उनकी दूरदर्शिता और रणनीतिक सोच ने मराठा साम्राज्य को मजबूत आधार प्रदान किया।

सैन्य रणनीति का आधार
छत्रपति शिवाजी के नियंत्रण में लगभग 400 से अधिक किले थे। अधिकांश समकालीन दस्तावेजों में इन्हें तीन रूपों में विभाजित किया गया है- स्थलदुर्ग (मैदानी दुर्ग), गिरिदुर्ग (पर्वतीय दुर्ग) और जलदुर्ग (समुद्री दुर्ग)। मराठा राजतंत्र पर 1715 ई. में रामचंद्र पंत अमात्य द्वारा लिखित पुस्तक ‘आज्ञापत्र’ में भी कइन्हीं तीन प्रकारों का उल्लेख है। परंतु शिवाजी के समकालीन कवि परमानंद ने अपने ‘शिवभारत काल’ में वनदुर्ग भी जोड़ा है। शिवाजी ने इन किलों का रणनीतिक उपयोग किया और उन्हें रक्षा पंक्तियों के रूप में स्थापित किया। इनमें से कुछ किले उन्होंने बनवाए, कुछ का पुनर्निर्माण कराया और कुछ को जीतकर अपने साम्राज्य में शामिल किया। पुनर्निर्माण में किलों की दीवारों को मजबूत करना, नए बुर्ज बनाना और रक्षा प्रणालियों को उन्नत करना शामिल था। उन्होंने कई किलों को मुगलों, आदिलशाहों और निजामशाहों से जीता, जैसे कोंडाणा (सिंहगढ़) और पन्हाला।
इन किलों को उन्होंने अपने सामरिक उद्देश्यों के लिए पुनर्गठित किया। ये किले उनकी सैन्य रणनीति का आधार थे और मराठा साम्राज्य की रक्षा और विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। अधिकांश किले सह्याद्रि पर्वत शृंखला और कोंकण क्षेत्र में बनाए गए थे। ये पहाड़ी किले अत्यन्त दुर्गम स्थानों पर थे, जिससे शत्रुओं के लिए इन्हें जीतना मुश्किल था। उदाहरण के लिए, रायगढ़ और राजगढ़ जैसे किलों की ऊंचाई और प्राकृतिक रक्षा ने उन्हें अभेद्य बनाया। ये किले आक्रमण की योजना बनाने और सैन्य अभियानों को संचालित करने के लिए भी उपयोगी थे। छत्रपति शिवाजी गुरिल्ला युद्ध रणनीति में सैन्य ठिकानों के रूप में किलों का उपयोग करते थे। इन किलों में खजाना, हथियार और अनाज भंडार सुरक्षित रखे जाते थे। यह लंबी घेराबंदी के दौरान मराठा सेना को आत्मनिर्भर बनाता था। रायगढ़ जैसे किले मराठा साम्राज्य के प्रशासनिक और राजनीतिक केंद्र थे। यहां से वे अपने साम्राज्य का संचालन करते थे। किलों की मजबूती और उनकी संख्या ने शत्रुओं पर मनोवैज्ञानिक दबाव डाला। ये किले मराठा शक्ति के प्रतीक थे और स्थानीय जनता में विश्वास जगाते थे।
सिंधुदुर्ग जैसे समुद्री किलों ने मराठा नौसेना को मजबूत किया और समुद्री मार्गों पर नियंत्रण स्थापित करने में मदद की। यह उन्हें पुर्तगालियों और अन्य समुद्री शक्तियों के विरुद्ध रणनीतिक लाभ प्रदान करता था। उन्होंने कम-से-कम एक दर्जन समुद्री दुर्ग बनवाए या उन्हें मजबूत किया। इनमें प्रमुख थे- सिंधुदुर्ग, जो मालवण तट पर सबसे सुदृढ़ जलदुर्ग था। इसके अलावा, उन्होंने कुलाबा, सुवर्णदुर्ग, विजयदुर्ग की मरम्मत और सुदृढ़ीकरण किया। कांसा द्वीपदुर्ग, जिसे उनके पुत्र संभाजी ने जंजीरा को टक्कर देने के लिए बनवाया। छत्रपति शिवाजी के पास बड़ी नौसेना बनाने के संसाधन सीमित थे, पर उनकी नौसैनिक दृष्टि रक्षा और रणनीतिक प्रभुत्व के लिए पर्याप्त थी।
एक सम्पूर्ण राष्ट्रनिर्माता
छत्रपति शिवाजी एक सम्पूर्ण राष्ट्रनिर्माता थे। उनकी नीति केवल युद्ध तक सीमित नहीं थी, बल्कि उन्होंने एक सांस्कृतिक राष्ट्र की कल्पना की थी। उन्होंन स्वराज्य का अर्थ केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं, सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता से भी जोड़ा। उनके व्यक्तित्व में वीरता, विवेक, संगठन, स्थापत्य-बोध व सांस्कृतिक चेतना एक साथ मौजूद थी। उनके द्वारा स्थापित मूल्यों और संरचनाओं ने मराठा साम्राज्य को एक स्थायी सांस्कृतिक पहचान दी। अपने राज्यकाल में उन्होंने गांव, दुर्ग और राजधानी सभी को प्रशासन, न्याय और संस्कृति का केंद्र बनाया। उन्होंने महिलाओं, किसानों और कारीगरों के अधिकारों की रक्षा की, जो उनके लोककल्याणकारी दृष्टिकोण को दर्शाता है।
आज भी उनके किले, उनकी स्थापत्य कला आदर्श और उनके विचार हमें गौरव, आत्मनिर्भरता और राष्ट्रप्रेम की प्रेरणा देते हैं।
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