गत दिनों इस्राएल—ईरान संघर्ष के दौरान अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जिन्ना के देश की फौज के मुखिया को वाशिंगटन बुलाया था और वहां उनके साथ ‘डिनर डिप्लोमेसी’ की थी। उसके बाद से इस्राएल—ईरान संघर्ष में पाकिस्तान की भूमिका में अचानक परिवर्तन देखने को मिला था। पाकिस्तान ने ईरान का साथ छोड़ दिया था। इस घटनाक्रम के बाद से ही जिन्ना के देश सत्ता अधिष्ठान ही नहीं, आम अवाम में यह चर्चा चल निकली कि क्या जिन्ना के देश के जनरल असीम मुनीर का कद प्रधानमंत्री से भी बड़ा होता जा रहा है? क्या पाकिस्तान में तख्तापलट होने जा रहा है? राजनीति और सैन्य गलियारों में यह चर्चा तेज होती जा रही है, क्योंकि सत्ता में भी आपसी एकजुटता नहीं दिखाई दे रही है जो मंत्रियों और नेताओं के विरोधाभासी व्यवहार और बयानों से साफ होता है। बड़ा सवाल है कि क्या जिन्ना के देश में शाहबाज सरकार के दिन गिनती के रह गए हैं?
इसके परिणामस्वरूप ही पाकिस्तान में इन दिनों राजनीतिक और सैन्य हलचल तेजी होती दिख रही है। यह केवल अफवाहों का परिणाम नहीं हो सकता, बल्कि यह एक गहरे सत्ता संघर्ष की ओर संकेत करता है। जनरल असीम मुनीर का बढ़ता प्रभाव, राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी को हटाने की अटकलें और प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ की कमजोर होती स्थिति ने जिन्ना के देश को एक बार फिर उथलपुथल और तख्तापलट की आशंका के मुहाने पर ला खड़ा किया है।

वहां शाहबाज शरीफ की गठबंधन सरकार के भीतर मतभेद सतह पर दिख रहे हैं। पीपीपी और पीएमएल-एन के बीच विश्वास की कमी और बिलावल भुट्टो के तीखे बयान इस अस्थिरता को और गहरा कर रहे हैं। कई रिपोर्ट ऐसी भी आ रही है कि राष्ट्रपति जरदारी को इस्तीफा देने के लिए कहा गया है। हालांकि सरकार ने इन अटकलों को खारिज कर दिया है। फिर भी, यह स्पष्ट है कि राष्ट्रपति और सेना के बीच तनाव बढ़ रहा है।
जैसा पहले बताया, जिन्ना के देश के फौजी मुखिया ने आपरेशन सिंदर में भारत के हाथों पिटने के बाद, दुनिया को झांसा देने के लिए मनमाने तरीके से फील्ड मार्शल का पद पा लिया। जनरल असीम मुनीर ने खुद को पाकिस्तान का दूसरा फील्ड मार्शल बनाकर आपस में लड़ते अधिकरियों वाली लिजलिजी फौज में अपने लिए सम्मान पाने की कोशिश ही नहीं की बल्कि यह उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का संकेत भी है।
जनरल मुनीर ने अपनी नजदीकी आईएसआई प्रमुख असीम मलिक को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार नियुक्त किया है, जो सेना में उनके प्रभाव को और मजबूत बनाने की कवायद मालूम देती है। अंदर की रिपोर्ट है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और भारत के प्रति रणनीति जैसे फैसले अब सीधे सेना द्वारा लिए जा रहे हैं। कई पाकिस्तानी पत्रकारों और विश्लेषकों ने दावा किया है कि जनरल मुनीर पर्दे के पीछे राष्ट्रपति पद कब्जाने की तैयारी कर रहे हैं।
हालांकि पाकिस्तान के गृह मंत्री मोहसिन नकवी ने इन अटकलों को ‘दुर्भावनापूर्ण अभियान’ बताते हुए ऐसी किसी भी संभावना से इंकार किया है। लेकिन इतिहास बताता है कि पाकिस्तान में तख्तापलट अक्सर इस प्रकार के राजनीतिक खंडनों के बाद ही होते आए हैं।
इस मौके पर पाकिस्तान में अब तक हुईं तख्तापलट की घटनाओं पर नजर डालना उचित ही रहेगा। साल 1958 में जनरल अयूब खान ने इस्कंदर मिर्जा को हटाकर कुर्सी कब्जाई थी। फिर 1977 में जनरल ज़िया-उल-हक ने ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को अपमानित करके पद से हटने को मजबूर किया था और देश के सर्वेसर्वा बन बैठे थे। फिर 1999 में कारगिल युद्ध से ठीक पहले जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को पद से इसलिए बाहर करवा दिया था क्योंकि वह कथित रूप से भारत से मित्रता के पक्षधर थे।
इतिहास के इन घटनाक्रमों से स्पष्ट है कि जिन्ना के देश में सेना की सदा तूती बोलती आई है। कुर्सी पर कोई बैठा हो, लेकिन नीतियां सेना के रावलपिंडी मुख्यालय में तय होती हैं। सत्ता में फौजी हस्तक्षेप पाकिस्तान की राजनीति में कोई नई बात नहीं है।
इस परिस्थिति पर पाकिस्तान के कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह देश एक ‘हाइब्रिड सिस्टम’ की ओर बढ़ रहा है, जिसमें ‘सिविल’ सरकार केवल दिखावे की होती है और असली सत्ता सेना के हाथ में होती है। लेकिन दूसरी ओर, सेना के समर्थक इसे ‘आंतरिक सुधार’ और ‘रणनीतिक संतुलन’ की प्रक्रिया बता रहे हैं। उधर विपक्ष इसे शाहबाज सरकार की कमजोर होती पकड़ और सेना की सत्ता की भूख बता रहा है। हाल ही में पूर्व विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ने कुख्यात आतंकवादी हाफिज सईद और मसूद अजहर को भारत को सौंपने की संभावना वाला बयान दिया था। यह बयान सेना के खिलाफ एक साहसिक कदम माना गया, जिसने सत्ता संघर्ष को और तीखा बना दिया है।
कुछ रिपोर्ट ऐसी भी देखने में आ रही हैं जिनमें दावा किया गया है कि जनरल मुनीर संविधान में बदलाव कर सकते हैं। उधर सोशल मीडिया पर सैन्य तानाशाही के खिलाफ आवाजें उठ रही हैं, लेकिन डर का माहौल भी है।
लेकिन इसमें दो राय नहीं है कि पाकिस्तान एक बार फिर सत्ता संघर्ष के उस मोड़ पर खड़ा है, जहां लोकतंत्र और सैन्य तानाशाही के बीच संघर्ष निर्णायक हो सकता है। जनरल असीम मुनीर का बढ़ता प्रभाव और शाहबाज सरकार की ढीली होती पकड़ जताते हैं कि तख्तापलट की संभावना केवल अफवाह नहीं, बल्कि एक संभावित स्थिति है।
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