लोकतांत्रिक देशों में सिविल सोसाइटी संगठनों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। ये संगठन सामान्यतः सत्ता की निगरानी, जनहित के मुद्दे उठाने और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की पारदर्शिता सुनिश्चित करने में सहायक होते हैं। किंतु जब यह भूमिका अपनी सीमाएं लांघकर एक खास राजनीतिक एजेंडे को साधने का माध्यम बन जाती है, तब यह लोकतंत्र के लिए संकट का कारण भी बनती है।
भारत में ऐसे कई संगठन हैं, जिनके उद्देश्यों और वास्तविक क्रियाकलापों के बीच गहरा विरोधाभास पाया गया है। कई बार यही विरोधाभास भारतीय लोकतंत्र की जड़ों को कमजोर करने वाले एक जटिल संकट का भी रूप ले चुका है।
विडंबना यह है कि ये संगठन संविधान प्रदत्त अधिकारों के नाम पर संवैधानिक व्यवस्थाओं को चुनौती देने लगते हैं। उदाहरण के लिए, मतदाता सूची के शुद्धिकरण जैसी बुनियादी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का विरोध इस आधार पर करना कि वह कथित रूप से किसी विशेष समुदाय को लक्षित करती है। किंतु इस विरोध का स्वरूप ऐसा होता है, जो संस्थागत प्रक्रियाओं की वैधता पर ही प्रश्नचिह्न लगा देता है। ऐसे में यह विरोध सिर्फ तकनीकी आलोचना नहीं रह जाता, बल्कि चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाओं पर जनविश्वास को कमजोर करने का औजार बन जाता है। परिणामस्वरूप, लोकतंत्र की नींव ‘नागरिक विश्वास’ पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।
इसी तरह, मानवाधिकार के नाम पर की जाने वाली एकतरफा रिपोर्टिंग अब एक राजनीतिक उपकरण बन चुकी है। जब किसी संगठन की संवेदनशीलता केवल आतंकवादियों के अधिकारों तक सीमित रह जाए और उनके पीड़ितों के प्रति मौन हो जाए, तो वह संगठन सिविल सोसाइटी नहीं, बल्कि वैचारिक पूर्वाग्रह की प्रयोगशाला बन जाता है। नक्सलवाद, कश्मीर में आतंकवाद या दिल्ली दंगों पर चयनात्मक प्रतिक्रिया और चुप्पी एक खास विचारधारा को पोषित करने का प्रमाण बनती है। यह समस्या तब और जटिल हो जाती है, जब इन संगठनों की वित्तीय संरचना विदेशी चंदे पर टिकी हो और उनकी कार्यप्रणाली में पारदर्शिता का पूर्णत: अभाव हो। पारदर्शिता और जवाबदेही के अभाव में ऐसे संगठन लोकतंत्र के भीतर छिपे हुए गैर-जवाबदेह शक्ति केंद्र बन जाते हैं।
भारत की परंपरागत और सांस्कृतिक संस्थाओं पर बार-बार पितृसत्तात्मक, जातिवाद और दमन का ठप्पा लगाकर इन्हें लांछित करने की प्रवृत्ति भी गहरी चिंता का विषय है। विवाह-परिवार जैसी संस्थाओं पर कटाक्ष, वर्ण-व्यवस्था के अत्यधिक सरलीकरण और भारतीय सामाजिक ढांचे को ‘फासीवादी’ ठहराना बौद्धिक निष्ठा नहीं, बल्कि पूर्वाग्रह से प्रेरित आरोप लगते हैं। सुधार की जगह नितांत असहमति का मार्ग चुनना सिविल सोसाइटी का नहीं, वैचारिक संघर्ष को बढ़ाने का संकेत है।
“चुनाव आयोग को मतदाता सूची का सघन पुनरीक्षण करने का संवैधानिक अधिकार है। यह मामला लोकतंत्र के मूल और मतदान के अधिकार से जुड़ा हुआ है।” — सर्वोच्च न्यायालय
इसी कड़ी में छात्र संगठनों के माध्यम से इस्लामी राजनीतिक विमर्श को विश्वविद्यालय परिसरों में स्थापित करने की कोशिश भी विचारों की स्वतंत्रताके नाम पर सामाजिक ध्रुवीकरण का प्रयास बन गई है। जब ‘शिक्षा और नैतिकता’ के नाम पर संविधान विरोधी विचारों का प्रचार हो, तो यह स्पष्ट है कि संगठन की घोषित भूमिका और वास्तविक कार्य के बीच गहरी खाई है।
इन सबके बीच सबसे खतरनाक स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब ये संगठन ‘घृणा के विरुद्ध’ खड़े होने का दावा करते हैं, पर स्वयं विभाजनकारी और पक्षपातपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हैं। उनका विरोध ‘नीति’ या तर्क के विरुद्ध नहीं होता, बल्कि वह समाज के एक विशेष वर्ग को लक्ष्य कर उसका दानवीकरण करता है। किसी आंदोलन में यदि केवल एक विचारधारा, एक मजहब और एक विमर्श को ही स्थान मिले, तो वह आंदोलन लोकतंत्र की मूल आत्मा ‘बहुलता और समरसता’ से विमुख हो जाता है।
इस समूचे परिदृश्य में यह आवश्यक हो जाता है कि सिविल सोसाइटी संगठनों का मूल्यांकन केवल उनके घोषणा-पत्रों और नारों के आधार पर नहीं, बल्कि उनकी वास्तविक कार्यप्रणाली, वित्तीय पारदर्शिता और सामाजिक प्रभाव के आधार पर किया जाए। आलोचना लोकतंत्र का आधार है, लेकिन आलोचना तभी उपयोगी है, जब वह संतुलित, तथ्याधारित और निष्पक्ष हो। पूर्वाग्रह और वैचारिक कट्टरता से प्रेरित आलोचना लोकतंत्र को सुदृढ़ नहीं करती, बल्कि उसे भीतर से खोखला कर देती है।
जब लोकतंत्र के तथाकथित रक्षक ही उसके भक्षक बन जाएं, तब यह पूरे समाज के लिए एक चेतावनी है। ऐसे में सरकार, मीडिया, न्यायपालिका और जागरूक नागरिक-सभी की साझा जिम्मेदारी बनती है कि वे ऐसे संगठनों की पारदर्शिता, वैधानिकता और उद्देश्यों की तटस्थ समीक्षा करें। अन्यथा, ‘लोकतंत्र के नाम पर ही लोकतंत्र का अपहरण’ का यह खतरा सदैव बना रहेगा ।
टिप्पणियाँ