प्रतीकात्मक तस्वीर
Marathi Language Dispute: पश्चिमी राजनीतिक दार्शनिक निकोलो मैकियावेली ने कहा था, “राजनीति का नैतिकता से कोई संबंध नहीं होता।” इसके विपरीत भारतीय चिंतन परंपरा का अनुसरण करते हुए महात्मा गांधी का मानना था कि राजनीति को धर्म (नैतिकता) द्वारा संचालित होना चाहिए, जिससे सभी नागरिकों, विशेषकर गरीबों और वंचितों, का कल्याण सुनिश्चित किया जा सके। ये परस्पर विरोधी दृष्टिकोण पश्चिम और भारत की दो नितांत भिन्न विश्वदृष्टियों को दर्शाते हैं। पश्चिमी राजनीतिक विचारधारा के विपरीत भारतीय चिंतन में राजनीति और सत्ता की अवधारणा ऐतिहासिक रूप से जनकल्याण में निहित रही है। भगवान श्रीराम, सम्राट युधिष्ठिर और आधुनिक काल में गांधी या अंबेडकर में इस बात को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। दुर्भाग्यवश, भारत के कई राजनेता आज भारतीय चिंतन परंपरा या गांधीवादी सिद्धांतों के बजाय मैकियावेलियन व्यावहारिकता का सहारा लेते हुए धर्म और नैतिकता से विमुख एक अनैतिक व अमर्यादित राह पर चल पड़े हैं।
भारत में ऐसी निम्न स्तरीय राजनीति स्वाधीनता के साथ ही शुरू हो गई थी जिसमें, स्वार्थ प्रथम और जनहित या राष्ट्र अंतिम होता है। ऐसी निकृष्ट राजनीति करने वाले राजनेता सही मुद्दों के बजाय जाति, क्षेत्र और भाषा के छद्म मुद्दों पर जनता को भ्रमित करते हैं। ऐसी अनैतिक संकीर्ण सियासत की हालिया मिसाल है महाराष्ट्र में हिंदी विरोध की राजनीति के नाम पर परंपरा रूप से दो विरोधियों उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे का हाथ मिला लेना। यह न केवल राष्ट्रहित में नहीं है, बल्कि स्वयं ‘मराठी मानुष’ के लिए भी हितकारी नहीं है।
महाराष्ट्र में हालिया हिंदी विरोध तब शुरू हुआ जब महाराष्ट्र में देवेन्द्र फडणवीस की बीजेपी-शिवसेना (शिंदे) सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 के अनुशंसाओं के तहत कक्षा 1 से 5 के लिए तीसरी भाषा के रूप में हिंदी को अनिवार्य कर दिया। हालाँकि, विरोध के बाद हिंदी को वैकल्पिक कर दिया गया। लेकिन अपना सियासी वजूद खो रहे उद्धव ठाकरे की शिवसेना (यूबीटी) और राज ठाकरे की महाराष्ट्र निर्माण सेना (एमएनएस) ने अपने लिए तमिलनाडु या कर्नाटक के तर्ज पर यहाँ एक मौका दिखा। बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करते हुए यूबीटी और एमएनएस ने विरोध प्रदर्शन करते हुए मिथ्या आरोप लगाया कि सरकार मराठियों पर हिंदी थोप रही है।
याद रहे कि फडणवीस सरकार ने मराठी हटाने की कोई बात नहीं की थी। लेकिन तीव्र विरोध के कारण सरकार को अपना आदेश वापस लेना पड़ा। लेकिन हिंदी की यह खिलाफत ‘मराठी मानुष’ के हित की चिंता में नहीं, बल्कि इसके पीछे संकीर्ण सियासी स्वार्थ है। बीस साल बाद राज ठाकरे के साथ एक मंच पर आए उद्धव ठाकरे ने मुंबई की एक रैली में कहा कि हम मिलकर मुंबई महापालिका और महाराष्ट्र की सत्ता हासिल करेंगे। विदित हो कि मुंबई महापालिका नगर निगम (बीएमसी) चुनाव आने वाले हैं। केंद्र और राज्य की सत्ता से बेदखल इन नेताओं को आगामी बीएमसी चुनाव में भी हार का डर सता रहा है।
दरअसल, मराठी अस्मिता के नाम पर हिंदी एवं उत्तर भारतीयों का विरोध करने वाले इन नेताओं को न समृद्ध मराठी सांस्कृतिक विरासत की समझ है और न ही मराठी मानुष के आर्थिक हित की चिंता। मराठी अस्मिता के इन छद्म पैरोकारों को यह जानना चाहिए कि मराठी अस्मिता के दो सर्वाधिक प्रमुख प्रतीक छत्रपति शिवाजी और उनके सुपुत्र छत्रपति संभाजीराजे के हिंदी और हिंदी क्षेत्र के लोगों से क्या संबंध रहे थे। जब औरंगजेब ने 1666 में शिवाजी को आगरा बुलाकर धोखा करते हुए उन्हें नजरबंद कर लिया, तब टोकरियों में छिपकर भगाने में स्थानीय लोगों अर्थात हिंदी भाषी पट्टी के लोगों की भी अहम भूमिका रही।
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यही नहीं, शिवाजी ने 1674 में अपने राज्याभिषेक के लिए काशी यानी हिंदी क्षेत्र के पुरोहितों को बुलाया था। छत्रपति शिवाजी के पुत्र संभाजीराजे का भी हिंदी वालों से गहरा रिश्ता रहा था। ‘शिवाजी एंड हिज टाइम्स’ नामक अपनी पुस्तक में इतिहासकार जदुनाथ सरकार बताते हैं कि संभाजीराजे स्वयं हिंदी प्रेमी और हिंदी के उच्च कोटि के विद्वान थे। उन्होंने हिंदी भाषा में ‘सातशतक’, ‘नखशिखा’ और ‘नायिकाभेद’ नामक तीन पुस्तकें भी लिखीं। मराठा इतिहास के एक महत्वपूर्ण स्रोत ‘मराठी बखरों’ के अनुसार काशी, प्रयाग, मथुरा आदि से उनका आत्मीय संपर्क रहा जहाँ से पंडित, विद्वानों और कलाकारों को वे बुलाते थे। इन हिंदी रचनाओं या सांस्कृतिक मेलजोल से संभाजीराजे और महाराष्ट्र के लोगों का हिंदी एवं उत्तर भारतीय साहित्यिक परंपराओं के साथ गहरे संबंध का पता चलता है। मराठी से परे यह उनके एक व्यापक सांस्कृतिक जुड़ाव का संकेत भी है।
उद्धव और राज ठाकरे को हिंदी के लिए महाराष्ट्र के एक अन्य अप्रतिम योगदान को भी जानना चाहिए। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में एक अस्त्र बनाने का विचार महाराष्ट्र के ही एक सपूत ने दिया था। 1864 में महाराष्ट्र के श्रीमान पेंठे नामक एक विद्वान मराठी भाषा में एक पुस्तक लिखते हैं जिसका नाम था ‘राष्ट्रभाषा’। श्रीमान पेंठे इसमें लिखते हैं कि आज देश की एकता के लिए एक भाषा की जरूरत है और वह भाषा हिंदी ही हो सकती है। आगे चलकर लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, काका कालेलकर आदि महाराष्ट्र के कई महापुरुषों ने महाराष्ट्र और देश में हिंदी को अपनाने की बात कही। आज महाराष्ट्र की जनता को छत्रपति शिवाजी और संभाजीराजे अथवा स्वाधीनता आन्दोलन की इस महान, उदार विरासत को बताने की जरुरत है ताकि इन संकीर्ण नेताओं के उकसावे-बहकावे में वे न आ सके।
उद्धव ठाकरे जैसों की पोल इस बात से और भी खुल जाती है कि महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार में जब वह मुख्यमंत्री थे, तभी हिंदी को मराठी और अंग्रेजी कक्षा के साथ-साथ कक्षा 1 से 12 तक अनिवार्य बनाने का फैसला जनवरी 2022 में कर लिया गया था। उद्धव ठाकरे ने अपने कार्यकाल के दौरान एनईपी-2020 की सिफारिशों पर विचार करने के लिए डॉ. रघुनाथ माशेलकर समिति गठित की थी। इस समिति की अनुशंसाओं को उद्धव ठाकरे नीत एमवीए सरकार ने जनवरी 2022 में स्वीकार कर लिया था।
राजनीतिक पाखंड की पराकाष्ठा है कि बीएमसी समेत आगामी नगर निगम चुनावों में राजनीतिक लाभ के लिए उद्धव आज हिंदी विरोध को हवा दे रहे हैं। उद्देश्य मराठी मानुष हित नहीं, बल्कि स्वयं का राजनीतिक हित है। इनका राजनीतिक छद्म इस बात से भी पर्दाफाश हो जाता है कि मराठी भाषा की चिंता करने वाले उद्धव और राज ठाकरे मुस्लिम इलाकों में मराठी के प्रश्न पर चुप्पी साध लेते हैं। उद्धव के लिए मुसलमान कितना महत्वपूर्ण वोट बैंक है इसका खुलासा उद्धव गुट के नेता संजय राउत के इस हालिया कथन से हो जाता है कि “मुस्लिम वोटो की चिंता करने की जरूरत नहीं, सब लोग हमारे साथ हैं।” मुस्लिम वोट बैंक उनसे छिटक न जाए इसलिए मुस्लिम इलाकों में मराठी लागू करवाने की उन्हें कोई फ़िक्र नहीं।
फिर, महाराष्ट्र के बच्चों को हिंदी से वंचित करना उनके मनोवैज्ञानिक विकास के साथ-साथ भविष्य के आर्थिक कैरियर के लिए भी ठीक नहीं। साइको-लिंग्विस्टिक्स के अनुसार बच्चों के लिए ज्यादा से ज्यादा भाषाएँ सीखना उनकी बौद्धिक क्षमता को बढ़ाता है। इसके अतिरिक्त कैरियर की भाषा के रूप में भी हिंदी एक नया मुकाम बना रही है। आज हिंदी मीडिया नई संभावनाओं को लेकर आया है। प्रिंट मीडिया को देखें तो देश के चार सर्वाधिक पढ़े जाने वाले और सर्वाधिक संख्या में छपने वाले अखबार हिंदी के हैं। देश में सबसे अधिक टीवी और यूट्यूब चैनल हिंदी के ही हैं। यानी हिंदी मीडिया में रोजगार की एक बड़ी संभावना है। याद रहे एक समय हिंदी पत्रकारिता में महाराष्ट्र के लोगों की अच्छी-खासी संख्या थी। इसी तरह टेलीविजन विज्ञापनों में 70% से भी अधिक विज्ञापन हिंदी में हैं जिनके लिए हिंदी कॉपीराइटर्स चाहिए। उधर टीवी सीरियल्स और ओटीटी वेब सीरीज के लिए हिंदी के स्क्रिप्ट राइटर्स की जरूरत है। यह भी याद रहे कि हिंदी सिनेमा के केंद्र रूप में मुंबई, हिंदी फिल्म उद्योग (बॉलीवुड) भारत की सबसे बड़ी मनोरंजन इंडस्ट्री में से एक है, और इसका वार्षिक लेनदेन (बिज़नेस) और बजट अब अरबों डॉलर यानी बिलियन डॉलर में पहुंच चुका है।
यहां एक रिपोर्ट के अनुसार 2024–2025 में यह $2.6–3.1 बिलियन डॉलर पहुँच चुकी है। इतने बड़े व्यापार से लाखों की संख्या में महाराष्ट्रवासियों को रोजगार मिला हुआ है। शिक्षण के क्षेत्र में भी हिंदी में रोजगार के अवसर हैं। भारत के हर राज्य या महाराष्ट्र के विभिन्न विश्वविद्यालयों और कॉलेज में हिंदी पढ़ाई जाती है। यहाँ तक कि भारत के बाहर लगभग 200 विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जाती है। फिर आर्थिक रूप से उभरते भारत में बड़ी संख्या में मल्टीनेशनल कंपनियों को अपने लिए कंटेंट जेनरेशन (लिखित सामग्री निर्माण) के लिए भारतीय भाषाओं और मुख्य रूप से हिंदी के कंटेंट राइटर या एडिटर की आवश्यकता होगी। हिंदी का विरोध करके ठाकरे बंधु महाराष्ट्र के लोगों को उपरोक्त अवसरों से वंचित ही करेंगे। इसके अतिरिक्त हिंदी का विरोध राष्ट्रीय एकता व अखंडता और सामाजिक सौहार्द पर भी एक चोट है।
महाराष्ट्र के लोगों को यह भी समझने की जरूरत है कि ‘महाराष्ट्र’ नाम ही अपने आप में एक महान व्यापक भाव भूमि का प्रतीक है. महाराष्ट्र यानी वह राज्य जो राष्ट्र का महाभाव लिए है, जो देश के सभी क्षेत्रों के लोगों को अपने यहाँ आत्मीय भाव से हृदय में स्थान देता हो। ध्यातव्य है कि देश के किसी भी राज्य के नाम में राष्ट्र शब्द नहीं लगा है। कई बड़े राज्यों के नामों में ‘प्रदेश’ जैसा ही शब्द प्रयुक्त हुआ है।
हिंदी विरोध की निकृष्ट राजनीति के द्वारा अपने ढहते हुए राजनीतिक जमीन को मजबूत करने की ठाकरे बंधुओं का प्रयास कितनी सफल होगा यह तो समय ही बताएगा, लेकिन यह विरोध न केवल महाराष्ट्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का अपमान है बल्कि स्वयं ‘मराठी मानुष’ के हित में भी नहीं है। आज छत्रपति शिवाजी महाराज होते तो वे भी हिंदी के इस अनैतिक विरोध को कभी स्वीकृति नहीं देते।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में डीन, योजना और भारतीय भाषा समिति के अध्यक्ष हैं।)
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के स्वयं के विचार हैं। ये आवश्यक नहीं कि पाञ्चजन्य उनसे सहमत हो।)
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