बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय (फोटो साभार: इंडिया टुडे)
वंदेमातरम्। भारतीय साहित्य, संस्कृति और राष्ट्रवाद के इतिहास में ऐसा दिन, जो एक ऐसे युगद्रष्टा के जन्म की स्मृति लेकर आता है, जिसने अपने शब्दों की शक्ति से भारतमाता को स्वर दिया, जिसने साहित्य को मात्र मनोरंजन नहीं बल्कि राष्ट्र निर्माण का अस्त्र बनाया और जिसने अपनी लेखनी से भारतवर्ष को ‘वन्दे मातरम्’ का वह अमर घोष दिया, जो आगे चलकर स्वतंत्रता संग्राम का सबसे बड़ा घोषवाक्य बन गया। यह दिन है बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय की जयंती का, जिनका जीवन, व्यक्तित्व और कृतित्व भारतीय नवजागरण की पहचान है। बंकिमचंद्र का जन्म 27 जून 1838 को बंगाल के 24 परगना जिले के कांठालपाड़ा गांव में एक संस्कारी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पिता यादवचंद्र चट्टोपाध्याय ब्रिटिश प्रशासन में डिप्टी कलेक्टर थे। बचपन से ही बंकिम पढ़ाई-लिखाई में अत्यंत मेधावी रहे। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से बी.ए. की डिग्री प्राप्त की और फिर डिप्टी मजिस्ट्रेट की सरकारी सेवा में नियुक्त हुए पर यह उनकी नियति नहीं थी। नियति ने उन्हें भारतीय आत्मा का कवि और जागरण का अग्रदूत बनने के लिए चुना था।
शुरुआत में उन्होंने अंग्रेजी में लेखन किया मगर जल्द ही उन्हें अहसास हुआ कि अपनी आत्मा की बात केवल अपनी भाषा में ही कही जा सकती है। यहीं से बांग्ला भाषा में उनका साहित्यिक सफर शुरू हुआ। उनका पहला उपन्यास ‘दुर्गेशनंदिनी’ 1865 में प्रकाशित हुआ, जो बंगला साहित्य में उपन्यास विधा की शुरुआत मानी गई। इसके बाद ‘कपालकुंडला’, ‘मृणालिनी’, ‘चंद्रशेखर’, ‘विषवृक्ष’, ‘रजनी’, और ‘आनंदमठ’ जैसे कालजयी उपन्यासों ने उन्हें साहित्य के आकाश में स्थायी स्थान दिला दिया। बंकिमचंद्र केवल उपन्यासकार नहीं थे, वे उस कालखंड में जी रहे थे, जब भारत अंग्रेजी दासता की बेड़ियों में जकड़ा था, जब भारतीय समाज अपने आत्मविश्वास को खो रहा था और जब राष्ट्र की अवधारणा मात्र एक सपना लगती थी। बंकिमचंद्र ने अपने साहित्य के माध्यम से भारतीयों को उस गर्व और चेतना से जोड़ा, जो सदियों से धुंधली होती जा रही थी। उन्होंने अपने उपन्यासों में नायकों के माध्यम से वह शक्ति और आदर्श गढ़े जो राष्ट्र प्रेम, आत्मबलिदान और सांस्कृतिक गौरव के प्रतीक बन गए।
सबसे बड़ा और ऐतिहासिक योगदान उनका वह गीत (वन्दे मातरम्) है, जिसने आने वाले दशकों में देश की आजादी की लड़ाई को धधकती ज्वाला में बदल दिया। यह गीत उनके उपन्यास आनंदमठ में संन्यासी क्रांतिकारियों के मुख से निकला। इस गीत में मातृभूमि को देवी का रूप देकर उसके चरणों में सर्वस्व अर्पण की भावना व्यक्त की गई थी। यही गीत बंग-भंग आंदोलन में युवाओं की चेतना बना, यही गीत जेलों में क्रांतिकारियों की जुबान बना और यही गीत राष्ट्र की आत्मा बन गया। ‘वन्दे मातरम्’ केवल एक गीत नहीं था, बल्कि वह एक पुकार थी, एक संकल्प था, एक शक्ति थी। जब गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने इसे 1896 के कांग्रेस अधिवेशन में गाया तो सारा पंडाल जैसे मंत्रमुग्ध हो गया था। यही वह गीत था, जिसे सुनकर अंग्रेज सरकार कांप जाती थी और यही वह गीत था, जिसे कहने मात्र से युवाओं को कोड़े सहने पड़ते थे, लेकिन बंकिमचंद्र की वह रचना इतनी अमर थी कि आज भी उसकी गूंज भारत के कोने-कोने में सुनाई देती है।
बंकिमचंद्र की रचनाओं में इतिहास के प्रति श्रद्धा, संस्कृति के प्रति सम्मान और राष्ट्र के प्रति अद्भुत समर्पण झलकता है। कपालकुंडला जैसे उपन्यासों में जहां मानव-मन की संवेदनाएं हैं, वहीं आनंदमठ में आध्यात्मिक राष्ट्रवाद की धारा प्रवाहित होती है। उनके पात्र केवल कथानक के हिस्से नहीं बल्कि विचारधारा के वाहक हैं। उन्होंने साहित्य को जनता की चेतना में रूपांतरित किया। यह विशेष उल्लेखनीय है कि बंकिमचंद्र स्वयं अंग्रेजी शासन के अधीन प्रशासनिक अधिकारी थे लेकिन उन्होंने कभी सत्य के मार्ग से विचलन नहीं किया। उनके लेखन में अंग्रेजी दासता के प्रति विरोध खुलकर उभरता है और वह भी उस दौर में, जब स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्ति देना खतरनाक माना जाता था। उन्होंने न तो पद की परवाह की, न ही किसी सजा की। उनका उद्देश्य केवल एक था, भारतीय समाज को जागरूक करना, उसकी आत्मा को फिर से जीवंत करना और उसे उसकी अस्मिता से जोड़ना।
1872 में बंकिमचंद्र ने बंगदर्शन नामक पत्रिका की शुरुआत की, जो उस समय का प्रमुख वैचारिक मंच बन गई। उस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने समाज, धर्म, शिक्षा, संस्कृति और राजनीति पर धारदार लेख लिखे और नवजागरण की नींव डाली। वे धर्मांधता के विरोधी लेकिन आध्यात्मिक मूल्यों के पक्षधर थे। वे परंपरा के आलोचक थे लेकिन राष्ट्र की सनातन भावना के संरक्षक। बंकिमचंद्र का प्रभाव सीमित नहीं रहा। उनके विचार, उनके शब्द, उनकी रचनाएं पूरे भारत में गूंजने लगी। बंगाल में युवा उनके उपन्यासों से प्रेरणा लेकर क्रांति की राह पर निकले तो देश के अन्य भागों में भी उनके विचारों ने स्वतंत्रता की ज्वाला जलाई। अरविंद घोष ने आनंदमठ को ‘राष्ट्रधर्म ग्रंथ’ कहा तो सुभाष चंद्र बोस ने कहा कि ‘वन्दे मातरम्’ ने उनके जीवन की दिशा तय की।
बंकिमचंद्र की जीवनगाथा से जुड़ा एक प्रेरक प्रसंग यह भी है कि जब एक बार ब्रिटिश सरकार ने ‘वन्दे मातरम्’ के गाने पर रोक लगा दी थी, तब कोलकाता के एक विद्यालय में छात्रों ने प्रार्थना सभा में इसे गाया। पुलिस ने स्कूल में घुसकर बच्चों पर डंडे बरसाए लेकिन एक 13 वर्षीय बालक तब भी लगातार ‘वन्दे मातरम्’ गाता रहा। यह गीत वह चिंगारी थी, जिसे बंकिम ने कभी अपने हृदय की वेदना से जन्म दिया था और जो आगे चलकर एक ज्वाला बन गई। 8 अप्रैल 1894 को जब बंकिमचंद्र इस दुनिया को अलविदा कह गए, तब तक वे अपनी लेखनी से अमरत्व प्राप्त कर चुके थे।
वे नहीं रहे पर उनकी वाणी आज भी जीवित है। उनका जीवन बताता है कि यदि लेखनी में राष्ट्र का स्वाभिमान हो तो वह बंदूक से कहीं अधिक शक्तिशाली बन सकती है। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय को श्रद्धांजलि केवल एक साहित्यकार को श्रद्धांजलि नहीं है बल्कि यह उस आत्मा को नमन है, जिसने भारत को उसकी पहचान दिलाई, जिसने उसकी आत्मा को जगाया और जिसने शब्दों में राष्ट्रभक्ति को जीवंत किया। वे आज भी भारत के विचार, चेतना और आत्मा में बसे हुए हैं। उनका ‘वन्दे मातरम्’ केवल गीत नहीं, भारत का आत्मघोष है। जब-जब भारतमाता की जय होगी, तब-तब बंकिम की लेखनी की गूंज हमारे कानों में गूंजती रहेगी।
वन्दे मातरम्। वन्दे मातरम्।
(डिस्क्लेमर: ये लेखिका के अपने स्वयं के विचार हैं। ये आवश्यक नहीं कि पाञ्चजन्य उनसे सहमत हो।)
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