आपातकाल @50 : तानाशाही के विरुद्ध जेल में ही बलिदान हुए 2 स्वयंसेवकों की रुह कंपाती गाथा
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आपातकाल @50 : तानाशाही के विरुद्ध जेल में ही बलिदान हुए 2 स्वयंसेवकों की रुह कंपाती गाथा

आपातकाल के समय जब देश में लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा था, संघ स्वयंसेवकों ने जेलों में असहनीय यातनाएँ झेली। जानिए संघ स्वयंसेवक परशुराम रजक और सोमनाथ हेडाऊ के दर्दनाक बलिदान की कहानी

by डॉ. आनंद सिंह राणा
Jun 25, 2025, 11:03 pm IST
in भारत, विश्लेषण, मध्य प्रदेश
जयप्रकाश नारायण आपातकाल के विरुद्ध आंदोलन का मुख्य चेहरा रहे

जयप्रकाश नारायण आपातकाल के विरुद्ध आंदोलन का मुख्य चेहरा रहे

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आपातकाल के नाम पर संविधान और लोकतंत्र की हत्या कर 25 जून 1975 को भारत में श्रीमती इंदिरा गाँधी और कॉंग्रेस ने तानाशाही तंत्र के परिप्रेक्ष्य में आतंक का राज्य स्थापित किया कर लिया था, वहीं दूसरी ओर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भी हत्या का भरपूर प्रयास किया गया, परन्तु यह संभव न हो सका। आतंक के राज्य के विरुद्ध राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत का द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम लड़ा और इसमें अपनी पूर्णाहुति दी।

आंतक के राज्य की 50वीं बरसी में महाकौशल के दो स्वयंसेवकों की याद आते ही आँखें नम हो जाती हैं क्योंकि दोनो को आपात काल में जबरिया गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया और अत्याचार की पराकाष्ठा तब हुई जब दोनो के बीमार पड़ने पर, उन्हें न मुक्त किया गया और न ही ईलाज दिया गया, दोनों स्वयंसेवक तड़फ -तड़फ के पंचत्व को प्राप्त हुए। मीसा कानून, अंग्रेजों के रोलेट एक्ट का रुप ले चुका था।

श्री परशुराम रजक का आतंक के राज्य के विरुद्ध जेल में बलिदान

श्री परशुराम रजक जबलपुर के निकट कटंगी के निवासी थे। वे संघ के निष्ठावान स्वयंसेवक और भारतीय जनसंघ के सक्रिय कार्यकर्ता थे। सामान्य श्रमिक जीवन जीने वाले परशुराम जी को आपातकाल के पश्चात 20 जून 1975 को धारा 151 के अंतर्गत गिरफ्तार कर जबलपुर केंद्रीय कारागार में भेजा गया। चूंकि पाटन तहसील से उनकी पेशी होती थी, इसलिए उन्हें वहां ले जाया जाता था।

वे अत्यंत बीमार थे, उन्हें दमा था,चलने की स्थिति में नहीं थे, फिर भी उन्हें हथकड़ियों में जंजीरों से बाँधकर पेशियों में ले जाया जाता था। बीमारी बढ़ने पर उन्हें जेल अस्पताल में भर्ती किया गया, लेकिन वहां दवाओं का इंतज़ाम कैदियों को खुद करना होता था। गरीब मजदूर परशुराम जी यह कैसे कर पाते?

इलाज की लापरवाही और उपेक्षा ने उनकी स्थिति और बिगाड़ दी। जब पीड़ा असह्य हो गई, तो उन्होंने दवाइयों के लिए फिर गुहार लगाई। 10 अगस्त को उन्हें पुनः अस्पताल ले जाया गया, लेकिन वही लापरवाही बरती गई। 17 अगस्त की रात उनकी हालत अत्यंत गंभीर हो गई। कंपाउंडर ने उन्हें अक्षम्य ढंग से इलाज दिया — जब वे दर्द से तड़पते हुए अपनी पीड़ा बताने लगे, तब कंपाउंडर ने वार्ड में ही झिड़ककर चुप कराया और उपचार में घोर लापरवाही बरती। परिणामस्वरूप, 18 अगस्त की सुबह परशुराम जी बैरक में मृत पाए गए। यह न सिर्फ एक मौत थी, यह उस शासन की संवेदनहीनता का जीता-जागता प्रमाण था।

श्री सोमनाथ हेडाऊ की त्रासदी और बलिदान

19 वर्षीय श्री सोमनाथ हेडाऊ, सिवनी जिले के निवासी और बी. काम. के छात्र थे। वे संघ मुख्य शिक्षक थे तदुपरांत जनसंघ के कर्मठ कार्यकर्ता भी बने। 10 अगस्त 1975 को पुलिस ने उन्हें भी उनके साथियों सहित गिरफ्तार कर जेल भेजा। एक रात वे पीठ और गर्दन में तीव्र पीड़ा की शिकायत करने लगे। उनका साथी डॉक्टर गौतम तुरन्त उन्हें देखने आया और स्पष्ट कहा कि यह टेटनस (धनुर्वात) के लक्षण हैं, जिन्हें शीघ्र बाहर अस्पताल ले जाना चाहिए।

डॉक्टरों की आपसी असहमति, प्रशासन की बेरुखी और बार-बार निवेदन के बाद भी उन्हें समय पर अस्पताल नहीं भेजा गया। जब भेजा भी गया, तो स्ट्रेचर तक की व्यवस्था नहीं की गई। कड़ी धूप में उन्हें स्टेचर पर यूँ ही छोड़ दिया गया, जबकि टेटनस रोगी को झटका और प्रकाश से बचाना आवश्यक होता है।

श्री सोमनाथ के पिता श्री शिवदयाल हेडाऊ को अस्पताल आने से रोका गया। जब वे किसी तरह भीतर पहुँचे तो पुत्र को अचेतावस्था में देखकर रो पड़े। डॉक्टर ने दवा की पर्ची थमा दी, लेकिन जब वे दवा लेकर लौटे, तब तक पुलिस ने उन्हें भी थाने बुला लिया और रात भर थाने में कैद रखा।

6 अप्रैल को जब उन्हें न्यायालय में प्रस्तुत किया गया, तब कहा गया कि ₹1000 के निजी मुचलके पर छोड़ा जा रहा है। इसके बाद जब वे पुनः अस्पताल पहुँचे तो देखा कि सोमनाथ का मुंह खून से भरा था। हालत लगातार बिगड़ती रही और अंततः 9 अप्रैल 1976 की सुबह, बिना होश में आए, उन्होंने अंतिम साँस ली।

उनकी मौत के बाद ही अस्पताल से उनके रिहाई के आदेश की प्रति मिली, जो उनके सिरहाने दबाई हुई पाई गई।

एक स्पष्ट संदेश — उन्हें जीवित रिहा करने की कोई मंशा ही नहीं थी।

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