25 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल को 50 वर्ष पूरे हुए। इस अवधि में आपातकाल संबंधी कई पुस्तकें व सैकड़ों लेख लिखे जा चुके हैं। पर एक प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि क्या लेखों के माध्सम से सभी तथ्यों के साथ न्याय किया जा चुका है? कहना पड़ेगा कि ऐसा नहीं हुआ। भारत में तो वैसे भी लेखकों पर विचारधारा हावी रहती है और घटनाओं को देखने की उनकी अपनी दृष्टि होती है। ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि किन तथ्यों के साथ न्याय नहीं हुआ?
आपातकाल की संक्षिप्त कथा

पूर्व अध्यक्ष, अभाविप
पहले आपातकाल लागू होने की संक्षिप्त कथा जान लेते हैं। इसकी शुरुआत नवंबर-दिसंबर 1973 में प्रारंभ हुई, जब गुजरात में एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रावास में महंगाई के कारण भोजन शुल्क में वृद्धि की गई। छात्रों ने उसका विरोध किया। शुल्कवृद्धि एक कॉलेज तक नहीं रुकी बल्कि अन्य कॉलेजों में भी की गई। इससे छात्र उबल पड़े। उन्होंने इसे भ्रष्टाचार का परिणाम बताते हुए भ्रष्टाचार और महंगाई के लिए कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन प्रदेश मुख्यमंत्री को दोषी ठहराया। छात्रों के इस विरोध के चलते बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। छात्रों ने मुख्यमंत्री को त्यागपत्र देने को कहा। आंदोलन इतना प्रबल हो गया कि मुख्यमंत्री को त्यागपत्र देना पड़ा, विधानसभा भंग हुई, और एक महीने बाद पुन: चुनाव हुए। कांग्रेस चुनाव हार गई।
जैसा गुजरात में हुआ, कुछ वैसा ही दो महीने बाद, बिहार में हुआ। मार्च 1974 में बिहार के छात्र भी आंदोलन की राह पर चल पड़े। वहां भी कांग्रेस सरकार थी और उसके मुख्यमंत्री के त्यागपत्र की मांग प्रारंभ हो गई। बिहार में स्वच्छ छवि वाले व रचनात्मक कार्यों में लगे रहने वाले वयोवृद्ध स्वाधीनता सेनानी बाबू जयप्रकाशनारायण ने आंदोलन का समर्थन किया जिससे यह और प्रभावी हो गया। कांग्रेस विरोधी कुछ राजनीतिक भी आंदोलन का समर्थन करने लगे। यह आंदोलन बिहार आंदोलन व जयप्रकाश नारायण आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
पाञ्चजन्य और आपातकाल
पाञ्चजन्य दशकों से आपातकाल से जुड़ी घटनाओं, कहानियों और प्रताड़नाओं को जिंदा रख रहा है। इस कारण आपातकाल बौद्धिक विमर्श का हिस्सा बना हुआ है। यही कारण है कि हर वर्ष 25 जून के दिन आपातकाल के साथ-साथ पाञ्चजन्य की भी विशद् चर्चा होती है। गत दो वर्ष से लगातार पाञ्चजन्य के दो अंकों यथा-2 जुलाई, 2023 और 30 जून, 2024 ने पाठकों को विशेष रूप से आकर्षित किया और देश-दुनिया में सराहे गए।
फैला फैला प्रचंड आंदोलन
यह आंदोलन केवल बिहार तक सीमित नहीं रहा। भ्रष्टाचार और महंगाई के चलते पूरे देश में भी आंदोलन फैलने लगा। केंद्र सरकार द्वारा त्यागपत्र देने की मांग होने लगी। जून 1975 तक आते-आते आंदोलन की तपिश प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी तक पहुंच गई। गुजरात और बिहार आंदोलन साथ-साथ चल रहे थे, वहीं दोनों से असंबद्ध एक और घटनाक्रम अप्रैल 1971 से जारी था। 1971 के प्रारंभ में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव हुए थे जिसमें इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी बड़े बहुमत से जीती थी। पर उसी चुनाव में रायबरेली संसदीय सीट से इंदिरा गांधी के मुकाबले चुनाव हारने वाले समाजवादी नेता राजनारायण ने चुनाव में भ्रष्ट तरीके अपनाने का आरोप लगाते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनाव की वैधता को एक याचिका द्वारा चुनौती दी थी। चार वर्ष बाद उस याचिका का निर्णय आया, जिसमें उच्च न्यायालय ने इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द कर दिया, लेकिन निर्णय को दो सप्ताह तक रोकते हुए श्रीमती गांधी को सर्वोच्च न्यायालय में जाने की छूट दे दी। पर उस निर्णय से इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बने रहने का नैतिक अधिकार छिन गया।
पराजित हुई कांग्रेस
छात्रों के आंदोलन ने आग में घी का काम किया। गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई। इसी दिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय में इंदिरा गांधी की हार भी हुई। इसी दिन से प्रधानमंत्री के त्यागपत्र की मांग बहुत तेजी से उठी। उस दिन की एक और घटना ने भी श्रीमती गांधी को प्रभावित किया। उनके एक विश्वस्त राजनीतिक साथी डीपी धर की मृत्यु हो गई और अगले दो सप्ताह में देश की राजनीति में भूचाल आ गया। जब इंदिरा गांधी पर ज्यादा दबाव बना तो उन्होंने पद पर बने रहने के लिए 25 जून की आधी रात से आपातकाल लगा दिया।
अब हम उस प्रश्न पर आते हैं कि कौन से तथ्य देश के सामने उचित ढंग से नहीं आए। वे थे आंदोलन में छात्र संगठन (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्) और दो व्यक्तियों (श्री गोविंदाचार्य और श्री राम बहादुर राय) की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका। पहले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (अभाविप) की बात। 1971 से अभाविप ने यह कहना शुरू किया कि छात्र आज के नागरिक हैं, और देश-समाज के ज्वलंत प्रश्नों पर उन्हें आंदोलन करना चाहिए। गुजरात में छात्र आंदोलन स्वत:स्फूर्त था पर अभाविप ने उसका समर्थन किया और उसे अंदरुनी ताकत दी।
अभाविप का काम पूरे प्रदेश में था और उसके समर्थन के कारण ही आंदोलन प्रभावी हुआ। बिहार आंदोलन तो अभाविप की योजना से ही प्रारंभ हुआ था। अभाविप ने पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ के तत्वावधान में आंदोलन की योजना बनाई थी। अब दो व्यक्तियों की भूमिका। रामबहादुर राय उन दिनों बिहार अभाविप के संगठन मंत्री थे। एक प्रकार से वही आंदोलन के सूत्रधार थे। वहीं गोविंदाचार्य रा. स्व. संघ के पटना विभाग प्रचारक और अभाविप के परामर्शदाता थे। दोनों व्यक्तियों का पूरा तालमेल था। उन्हें यह समझ थी कि आंदोलन को बाबू जयप्रकाश नारायण का समर्थन मिलने से आंदोलन प्रभावी हो जायेगा। बाद में उन्होंने जयप्रकाश जी को इसके लिए मना लिया। आपातकाल का बाकी इतिहास सारा देश जानता है।
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