भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर लोकतंत्र विरोधी होने का आरोप लगाने वाले कांग्रेस के नेता सबसे अधिक निरंकुश और लोकतंत्र विरोधी रहे हैं। भाजपा को छोड़कर, सभी राजनीतिक दलों का नेतृत्व आमतौर पर एक ही नेता करते हैं, जो अपनी पार्टी का नियंत्रण अपने बेटों या करीबी रिश्तेदारों को सौंप देते हैं। वे किसी भी असहमति की अनुमति नहीं देते हैं। ऐसे में शासक के रूप में वे लोकतांत्रिक कैसे हो सकते हैं? इसके विपरीत, भाजपा में किसी भी पार्टी अध्यक्ष के बाद उनके रिश्तेदार इस पद पर नहीं आए। अब जाकर भाजपा का अध्यक्ष पद भी दो कार्यकाल तक सीमित कर दिया गया है।

संस्थापक सदस्य, फ्रेंड्स ऑफ इंडिया सोसाइटी इंटरनेशनल
यह सही है कि रा.स्व.संघ के सरसंघचालक आम तौर पर लंबे समय तक पद पर बने रहते हैं। लेकिन वे सर्वसम्मति से ही संगठन का नेतृत्व करते हैं। असहमति के बावजूद मुझे दो महत्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी है, जब रा.स्व.संघ के सरसंघचालक ने बहुमत की राय मान ली थी। संघ के सभी सरसंघचालक आजीवन प्रचारक रहे हैं। उन्होंने अपना घर छोड़ दिया तथा कभी विवाह नहीं किया।
संघ पर बेबुनियाद आरोप
अक्सर कुछ लोग रा.स्व.संघ को सांप्रदायिक संगठन और पंथनिरपेक्षता के विरोधी के रूप में परिभाषित करते हैं। लेकिन जैसा कि ऊपर बताया गया है, ये आरोप उन लोगों द्वारा लगाए जाते हैं, जो अपनी पार्टी में किसी भी तरह की असहमति की अनुमति नहीं देते हैं। पंडित नेहरू किसी भी तरह के विरोध को बर्दाश्त नहीं करते थे। भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद जब उन्होंने संघ की बढ़ती लोकप्रियता देखी तो बिना किसी उचित प्रक्रिया का पालन किए एकतरफा संघ को दोषी ठहराया और संघ को गांधीजी की हत्या के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए लाखों स्वयंसेवकों को झूठे आरोपों में जेल में डाल दिया था। लेकिन उनकी सरकार इस आरोप को किसी भी अदालत में साबित नहीं कर सकी। दरअसल, गांधी हत्या का मुकदमा चला तो अदालत ने अपने आदेश में स्पष्ट कहा कि इसमें संघ की कोई भूमिका नहीं है।
पहली लोकसभा के एक सत्र में नेहरू ने एक बार कहा था, “मैं विपक्ष को कुचल दूंगा।” इसके उत्तर में डाॅ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था, ‘‘मैं कुचलने वाली मानसिकता को कुचल दूंगा।’’ बाद में श्रीनगर की जेल में उनकी कथित हत्या कर दी गई। यही नहीं, असहमति के आधार पर नेहरू ने पुरुषोत्तम दास टंडन को कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया था। इसके अतिरिक्त नेहरू ने अपनी सरकार के अधिकार बढ़ाने, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कम करने और विपक्ष को चुप कराने के लिए संविधान में कई संशोधन किए थे।
आज राहुल गांधी संविधान की प्रति लेकर भाजपा और संघ पर पर संविधान का उल्लंघन करने का आरोप लगा रहे हैं। पहली बात, इसमें संदेह है कि उन्होंने संविधान कभी पढ़ा भी होगा! यदि उन्होंने ऐसा किया होता और उसमें किए गए संशोधनों को भी पढ़ा होता, उन्हें पता चल जाता कि किस प्रकार उनके परिवार ने संविधान के साथ छल किया है। उनकी दादी इंदिरा गांधी ने तो संविधान को ताक पर ही रख दिया था। संविधान के विपरीत, उनकी मां ‘सुपर प्रधानमंत्री’ बन गईं और संविधान का उल्लंघन करते हुए सभी महत्वपूर्ण सरकारी फाइलों की समीक्षा करने लगीं। यहां तक कि उन्होंने अपने एक भ्रष्ट इतालवी मित्र को अपराधी होते हुए भी देश से भागने और सजा से बचने में भी मदद की।

जैसा कि भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी अक्सर कहा करते थे, ‘‘भारत हिंदुओं के कारण एक ‘पंथनिरपेक्ष’ देश है; भारत में बहुसंख्यक लोग ऐसा चाहते थे।’’ दिलचस्प बात यह है कि जनवरी 1950 में जब संविधान को अंगीकार किया गया, तब उसमें ‘पंथनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी भारत’ जैसे शब्द नहीं थे। ये शब्द 1975-77 के आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी द्वारा संविधान में संशोधन करने के बाद जोड़े गए थे, जब विपक्षी दलों के अधिकांश सांसद जेल में थे।
25 जून, 1975 को आपातकाल की घोषणा के साथ ही विपक्षी दलों और रा.स्व.संघ के कई अधिकारियों और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था। हालांकि, बड़ी संख्या में संघ के प्रचारक व स्वयंसेवक भूमिगत हो गए और गिरफ्तारी से बच गए थे। उनमें से अधिकांश को तो पुलिस पहचान ही नहीं पाई थी। लोकतांत्रिक देश को तानाशाही में बदल दिया गया था। यहां तक कि नागरिकों के मौलिक अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक छीन ली गई थी। संघ ने इसकी निंदा करते हुए न केवल सत्याग्रह किया, बल्कि लोकसमर्थक अभियान भी चलाया था।
दिलचस्प बात यह है कि जयप्रकाश नारायण तब संघ के उतने समर्थक नहीं माने जाते थे, लेकिन बाद में जीवन भर वे संघ के प्रशंसक रहे। उन्होंने एक सभा में आह्वान किया था कि देश से आपातकाल हटाने में सहभागी हों। संघ के कार्यकर्ताओं ने देश-विदेश आपातकाल और इंदिरा गांधी के विरुद्ध जोरदार अभियान चलाया था। अमेरिका में कुछ मित्रों ने मिलकर इंडियंस फॉर डेमोक्रेसी (आईएफडी) की स्थापना की।
आईएफडी ने एक अभियान शुरू किया और अमेरिका के कई शहरों में आपातकाल के विरुद्ध सेमिनार और प्रदर्शन आयोजित किए। साथ ही, आईएफडी ने अमेरिका यात्रा पर गए भारत सरकार के मंत्रियों से भी इस विषय पर बात की थी। इसके अलावा, इस संगठन के सदस्यों ने अमेरिका में कई कांग्रेसी और राजनीतिक नेताओं से भी मुलाकात की थी। आपातकाल के दौरान टी.एन. कौल, जो उस समय अमेरिका में भारत के राजदूत थे, द्वारा गिरफ्तार करने की धमकी के बावजूद मैंने 1975 में भारत का दौरा किया।
हमने अपने संचार चैनल की योजना बनाई और गिरफ्तारी से बचने के लिए भारत से बाहर निकलने की व्यवस्था की। मैं मुंबई भी गया था, जहां तत्कालीन सरकार्यवाह माधवराव मुले जी के साथ पूरे दिन बैठक की थी। वे भूमिगत थे। उनके साथ अपनी रणनीति पर चर्चा के बाद मैंने आचार्य कृपलानी से भी मुलाकात की। पुलिस उन्हें भी गिरफ्तार नहीं कर पाई थी। वह इंदिरा गांधी से बहुत नाराज थे। उन्होंने संघ के प्रयासों की सराहना की।
जल्द ही जर्मनी, हॉलैंड, जापान, हांगकांग और केन्या में फ्रेंड्स ऑफ इंडिया सोसाइटी इंटरनेशनल (एफआईएसआई) चैप्टर स्थापित हो गए। स्थिति यह हो गई थी कि जब भी भारत से कोई सरकारी अधिकारी किसी देश का दौरा करता और आपातकाल का बचाव करने की कोशिश करता, हम उन्हें बहुत असहज कर देते थे। नतीजा, वे अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाते थे और वापस चले जाते थे। इसमें कोई संशय नहीं है कि देश में और देश के बाहर संघ ने जो आंदोलन चलाए, उससे सरकार पर बहुत दबाव बना था।
दबाव के बाद कराया चुनाव
एक रोचक घटना है। उस समय वाशिंगटन पोस्ट में लुईस सिमंस की एक बहुत दिलचस्प सचित्र रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी। उस चित्र में संजय गांधी एक मेज के सामने कुर्सी पर बैठे हुए थे और इंदिरा गांधी एक तरफ खड़ी थीं। रिपोर्ट यह थी कि जब संजय ने अपनी मां पर आपातकाल लगाने का दबाव डाला तो उन्होंने इनकार कर दिया। इसके बाद संजय ने अपनी मां (इंदिरा गांधी) को थप्पड़ मार दिया था। इसके बाद इंदिरा आपातकाल लगाने के लिए तैयार हो गईं। अमेरिकी अखबार में यह समाचार प्रकाशित होने के बाद लुईस सिमंस को भारत से निष्कासित कर दिया गया था। मैंने वाशिंगटन में उन्हें फोन किया और उनसे समाचार के स्रोत के बारे में पूछा।
खैर, देश के बाहर से भारी दबाव के कारण इंदिरा गांधी को आपातकाल हटाने और चुनाव कराने के लिए बाध्य होना पड़ा। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि चुनाव में उनकी पार्टी ही नहीं, उनका बेटा संजय और खुद भी हार जाएंगी। चुनाव में कांग्रेस पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया था। इंदिरा गांधी पार्टी पर पूर्ण नियंत्रण नहीं रख सकीं तो कई नेताओं ने कांग्रेस से अलग होकर अपनी-अपनी पार्टी बना ली। आपातकाल हटने के बाद मेरी मुलाकात जॉर्ज फर्नांडिस, एनजी गोरे, मधु लिमये और जामा मस्जिद के इमाम जैसे कई समाजवादी नेताओं से हुई।
आपातकाल का वह दौर ऐसा था, जिसमें जनसंघ ही नहीं, देश की लगभग सभी विपक्षी पार्टियां निष्क्रिय हो गई थीं। उस समय संघ को छोड़कर भारत या भारत के बाहर किसी ने भी सक्रिय तौर पर आपातकाल का विरोध नहीं किया था। देश में लोकतंत्र की पुनर्बहाली में संघ ने बड़ी भूमिका निभाई थी। आज तमाम उथल-पुथल के बावजूद देश में लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। देश में मजबूत, व्यावहारिक और जनोन्मुख लोकतांत्रिक प्रणाली बनाए रखने के लिए सभी लोगों को एकजुट होकर काम करना होगा।
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