”हमारा धर्म तथा संस्कृति कितनी ही श्रेष्ठ क्यों न हो, जब तक उनकी रक्षा के लिए हमारे पास आवश्यक शक्ति नहीं है, उनका कुछ भी महत्व नहीं”
-आद्य सर संघचालक श्रीयुत, परम पूज्य डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार
महान सनातन में भगवान विष्णु के आशीर्वाद से साधारण बालक ध्रुव का तपस्या के फलस्वरुप ध्रुव तारा बनने का उपाख्यान अत्यंत अनुकरणीय है। ध्रुव तारा उत्तर दिशा का सूचक है, जो यात्रियों और नाविकों के लिए मार्गदर्शक है।यह दृढ़ता और भक्ति का प्रतीक है, क्योंकि ध्रुव ने अपनी इच्छाशक्ति और भक्ति से भगवान को प्रसन्न किया।
ध्रुव तारा भगवान नारायण के भक्तों के लिए एक प्रेरणा है, जो कठिनाइयों का सामना करते हुए भी अपनी भक्ति में स्थिर रहते हैं।इस उपाख्यान के आलोक में डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार के जीवन का आद्योपांत विहंगावलोकन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि वह हिंदुत्व के ध्रुव तारा हैं।
डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्म चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तदनुसार ,तत्समय,1 अप्रैल 1889 को नागपुर में हुआ था । उनके पिता का नाम बलिराम पन्त हेडगेवार, और माता का नाम रेवती बाई था। आपने शिक्षा कलकत्ता नेशनल मेडिकल कॉलेज से प्राप्त की। आगे चलकर वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक बने। आपने हिंदुत्व और स्व के लिए पूर्णाहुति दी। आपका स्वाधीनता संग्राम में अभूतपूर्व योगदान रहा है।
वह बचपन से ही क्रांतिकारी विचारधारा के थे। सन् 1908 में बालाघाट में उन्होंने रामपायली में युवाओं का सशक्त संगठन बना लिया था और अगस्त माह में बालाघाट की एक पुलिस चौकी के ऊपर बम फेंका जो निकट के तालाब के पास फटा परंतु ठोस प्रमाण न होने के कारण उनको हिरासत में नहीं लिया जा सका।
रामपायली में विजयदशमी के उत्सव पर आपने वंदे मातरम का उद्घोष करते हुए अंग्रेजों को भारत से भगाने का आह्वान किया, परिणाम स्वरुप उनकी गिरफ्तारी हुई और ‘राजद्रोह भाषण’ के आरोप में आप पर रामपायली में भाषण देने के लिए एक वर्ष का प्रतिबंध लग गया। प्रारंभ से ही उनके क्रांतिकारियों से घनिष्ठ संबंध रहे और उन्हें संरक्षण भी प्रदान किया। उन्होंने असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका के कारण एक वर्ष का कारावास की सजा भी काटी।
उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में सहभागिता करते हुए जंगल सत्याग्रह में उल्लेखनीय योगदान दिया। परंतु बरतानिया सरकार के हिन्दू समाज को जाति – पांति के नाम पर बांटने के षडयंत्र, ईसाई मिशनरीज के प्रकोप और बरतानिया सरकार के साथ कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के चलते हिन्दूओं और हिंदुत्व के साथ राष्ट्र के अस्तित्व को बचाने के लिए संघ कार्य में सर्वस्व अर्पित किया। उनका निधन 21 जून 1940 को हुआ।
संघ शताब्दी वर्ष पर उनके अमृत वचनों का संक्षिप्त सिंहावलोकन प्रस्तुत किया जा रहा है ताकि संघ और संघ दृष्टि को भलीभाँति समझा जा सके।
उन्होंने कहा कि- “हमारा विश्वास है कि भगवान हमारे साथ है। हमारा काम किसी पर आक्रमण करना नहीं है, अपितु अपनी शक्ति और संगठन का है। हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति के लिए हमे यह पवित्र कार्य करना चाहिए और अपनी उज्जवल संस्कृति की रक्षा कर उसकी वृद्धि करनी चाहिए। तब ही आज की दुनिया में हमारा समाज टिक सकेगा।”
”हम किसी पर आक्रमण करने नहीं चले हैं। पर इस बात के लिए हमे सदैव सतर्क तथा सचेत रहना होगा ,कि हम पर भी कोई आक्रमण न करे। आपको सदैव जांच-पड़ताल करते रहना चाहिए। केवल हम संघ के स्वयंसेवक हैं, और इतने वर्ष में संघ ने ऐसा कार्य किया है, इसी बात में आनंद तथा अभिमान मानते हुए, आलस्य में दिन काटना, निरा पागलपन ही नहीं, अपितु कार्यनाशक भी है। ”आप यह अच्छी तरह याद रखें कि , हमारा निश्चय और स्पष्ट ध्येय ही हमारी प्रगति का मूल कारण है। संघ के आरंभ से हम , हमारी भावनाएं ध्येय से , समरस हो गई है , हम कार्य से एक रूप हो गए हैं।”
हम लोगों को हमेशा सोचना चाहिए कि जिस कार्य को करने का हमने प्रण किया है और जो उद्देश्य हमारे सामने है , उसे प्राप्त करने के लिए हम कितना काम कर रहे हैं। जिस गति से तथा जिस प्रमाण से हम अपने कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं , क्या वह गति या प्रमाण हमारी कार्य सिद्धि के लिए पर्याप्त है ?
”प्रत्येक अधिकारी तथा शिक्षक को सोचना चाहिए कि उसका बर्ताव कैसा रहे और स्वयंसेवकों को कैसे तैयार किया जाए स्वयंसेवकों को पूर्णता संगठन के साथ एकरूप बनाकर उनमें से प्रत्येक के मन में यह विचार भर देना चाहिए कि मैं स्वयं ही संग हूं, प्रत्येक व्यक्ति की आंखों के सामने का एक ही तारा सदा जगमगाता रहे, उस पर उसकी दृष्टि तथा मन पूर्णता केंद्रित हो जाए।“
”हमें अपने नित्य के व्यवहार भी ध्येय पर दृष्टि रखकर ही करने चाहिए, प्रत्येक को अपना चरित्र कैसा रहे इसका विचार करना चाहिए
अपने चरित्र में किसी भी प्रकार की त्रुटि ना रहे“
”किसी भी आंदोलन में साधारण जनता, कार्यकर्ता के कार्य का इतना ख्याल नहीं करती, जितना कि उसके व्यक्तिगत चरित्र ढूंढने से भी
दोष या कलंक के छींटे तक ना मिले“
“आप इस भ्रम में ना रहे कि , लोग हमारी ओर नहीं देखते, वह हमारे कार्य तथा हमारी व्यक्तिगत आचरण की और आलोचनात्मक दृष्टि से देखा करते हैं। इसीलिए केवल व्यक्तिगत चाल चलन की दृष्टि से सावधानी बरतने से काम नहीं चलेगा। अभी से सामूहिक एवं सार्वजनिक जीवन में भी, हमारा व्यवहार हमें उदात्त रखना होगा। “
”अगर मैं तो आपसे केवल यही कहना चाहता हूं कि भविष्य के विषय में किसी तरह का संदेह ना रखते हुए, आप नियमित रूप से शाखा में आया करें। संघ कार्य के प्रत्येक विभाग का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर, उनमें निपुण बनने का प्रयास करें। बिना किसी व्यक्तियों की सहायता लिए, स्वतंत्र रीति से एक – दो संघ शाखाएं चला सकने की क्षमता प्राप्त करें। “
”यह खूब समझ लो कि बिना कष्ट उठाए और बिना स्वार्थ त्याग किए हमें कुछ भी फल मिलना असंभव है। मैंने स्वार्थ त्याग शब्द और उपयोग किया है, परंतु उनमें जो कार्य करना है , वह हमारी हिंदू जाति के स्वार्थ पूर्ति के लिए है। अतः उसी में हमारा व्यक्तिगत स्वार्थ
भी निहित है। फिर हमारे लिए भला दूसरा कौन सा स्वार्थ बचता है, यदि इस प्रकार यह कार्य हमारे स्वार्थ का ही है, तो फिर उसके लिए हमें जो भी कष्ट उठाने पड़ेंगे, उसे हम स्वार्थ त्याग कैसे कह कैसे कह सकेंगे..? वास्तव में यह स्वार्थ त्याग हो ही नहीं सकता।
हमें केवल अपने स्व का अर्थ विशाल करना है। अपने स्वार्थ को हिंदू राष्ट्र के स्वार्थ से हम एक रूप कर दें“
”संघ केवल स्वयंसेवकों के लिए नहीं, संघ के बाहर जो लोग हैं उनके लिए भी है, हमारा यह कर्तव्य हो जाता है कि उन लोगों को हम राष्ट्र के उद्धार का सच्चा मार्ग बताएं और यह मार्ग है केवल संगठन का।“
”कच्ची नींव पर खड़ी की गई इमारत प्रारंभ से भले ही सुंदर या सुघड़ प्रतीत होती होगी , परंतु बवंडर के पहले ही झोंके के साथ, वह भूमिसात हुए बिना खड़ी करना हो उतनी ही उसकी नींव विस्तृत और ठोस होनी चाहिए।
” राष्ट्र रक्षा समं पुण्य
राष्ट्र रक्षा समं व्रतम
राष्ट्र रक्षा समं यज्ञो
दृष्टि नैव च नैव च।”
भावार्थ – राष्ट्र रक्षा के समान कोई पुण्य नहीं , राष्ट्र रक्षा के समान कोई व्रत नहीं , राष्ट्रीय रक्षा के सामान को यज्ञ नहीं आता राष्ट्र रक्षा सर्वोपरि होनी चाहिए।
” हिंदू जाति का सुख ही मेरा और मेरे कुटुंब का सुख है। हिंदू जाति पर आने वाली विपत्ति हम सभी के लिए महासंकट है और हिंदू जाति का अपमान हम सभी का अपमान है। ऐसी आत्मीयता की वृत्ति हिंदू समाज के रोम – रोम में व्याप्त होनी चाहिए यही राष्ट्र धर्म का मूल मंत्र है। ”
नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोऽहम्।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते॥१॥
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