सिर चढ़कर बोल रही योग की लोकप्रियता: वैश्विक मंच पर भारत की गौरवशाली उपलब्धि
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सिर चढ़कर बोल रही योग की लोकप्रियता: वैश्विक मंच पर भारत की गौरवशाली उपलब्धि

योग की विश्वव्यापी लोकप्रियता भारत की वैदिक जीवन पद्धति की गौरवशाली उपलब्धि है। आचार्य पतंजलि से लेकर बाबा रामदेव तक, योग ने समग्र स्वास्थ्य और मानसिक शांति को बढ़ावा दिया। जानें योग की प्राचीनता, वैज्ञानिक महत्व और आधुनिक प्रचलन के बारे में।

by पूनम नेगी
Jun 20, 2025, 12:34 pm IST
in मत अभिमत
Yoga ki Lokpriyta

प्रतीकात्मक तस्वीर

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आज समूची दुनिया में योग की धूम मची हुई है। 21 जून 2014 को संयुक्त राष्ट्र से वैश्विक मान्यता मिलने के बाद से बीते एक दशक में भारतभूमि की यह वैदिक जीवन पद्धति एक वैकल्पिक चिकित्सा प्रणाली के रूप में समूची दुनिया में बहुत तेजी से प्रचलित होती जा रही है। योग की यह विश्वव्यापी लोकप्रियता हमारे भारत के लिए एक गौरवशाली उपलब्धि है। पिछले कुछ वर्षों में दुनियाभर के अनेक देशों में हुए शोध-अध्ययन इसकी महत्ता को साबित करते हैं। वर्तमान की तेज रफ्तार जिंदगी में; जब तनाव-अवसाद और तेजी से गहराते प्रदूषण ने इंसानी सेहत को ग्रहण लगा दिया है।

तथाकथित आधुनिकता में जकड़ा व्यथित मनुष्य मन व देह में संतुलन नहीं साध पा रहा है। इन विषम परिस्थितियों मानव जीवन को स्वस्थ व ऊर्जावान बनाये रखने में योग की उपयोगिता आज देश में ही नहीं, वैश्विक मंच पर भी साबित हो चुकी है। वर्तमान में योग को जन जन तक पहुंचाने का श्रेय मुख्य रूप से बीकेएस अंयगर और बाबा रामदेव सरीखे योग गुरुओं को जाता है, जिन्होंने योग का सरलीकरण कर इसे देश विदेश में हर खासोआम तक पहुंचा दिया। आयुष मंत्रालय के मुताबिक, बीते दस साल में अमेरिका और यूरोप ही नहीं, खाड़ी देशों में भी योग अपनाने वाले लोग तेजी से बढ़े हैं।

अच्छी सेहत के लिए योग के प्रति बढ़ रहा आकर्षण 

योग विशेषज्ञों के अनुसार, मनुष्य के समग्र स्वास्थ्य को साधने वाला भारत का यह अनूठा स्वास्थ्य विज्ञान मानव शरीर को ऊर्जावान व मस्तिष्क को शांत बनाकर शरीर को एक लयात्मक गति देता है। इस दिशा में हुए शोध के नतीजे बताते हैं कि प्रतिदिन 30-45 मिनट का नियमित योगाभ्यास आश्चर्यजनक लाभ देता है और इससे तनाव दूर होने के साथ याद्दाश्त भी बेहतर होने में भी काफी मदद मिलती है। खास बात है कि बूढ़े हों या युवा, स्वस्थ हों या बीमार; योग का अभ्यास सभी के लिए समान रूप से लाभप्रद है। यही वजह है कि आज महानगरों व छोटे-बड़े शहरों में ही नहीं, कस्बों व तमाम गांवों में भी बड़ी तादात में योग प्रशिक्षण केन्द्र खुल गये हैं।

सुबह-शाम पार्कों में ‘भ्रस्तिका’,  ‘कपालभाति’ और ‘अनुलोम-विलोम’ करने वालों की अच्छी खासी तादात देखी जा सकती है। इसे एक सुखद बदलाव के रूप में देखा जाना चाहिए कि बड़ी संख्या में जन सामान्य अच्छी सेहत के लिए योग के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। जानना दिलचस्प हो कि पारम्परिक योग के अलावा भी आजकल योग के अनेक तरीके मसलन पॉवर योग, वॉटर योग, ऑफिस योग, चेयर योग आदि भी खूब प्रचलन में हैं। हालांकि ये तरीके भारत की यौगिक पद्धति जितने ही कारगर हैं; इसे लेकर कोई दावा नहीं किया जा सकता।

शिक्षण व स्वास्थ्य संस्थानों में योग के पाठ्यक्रम संचालित

आज देशभर के विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों, योग संस्थानों, प्राकृतिक चिकित्सा केन्द्रों द्वारा योग की शिक्षा दी जा रही है। देश के 50 से ज्यादा विश्वविद्यालयों व महाविद्यालयों में योग के रोजगार आधारित डिप्लोमा, स्नातक एवं स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम चलाये जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद द्वारा अपने पाठ्यक्रम में योग को अनिवार्य विषय के रूप में शामिल किया जा चुका है। यही नहीं, सरकारी व निजी अस्पतालों में भी योग क्लीनिक, योग थेरेपी सेंटर व अनुसंधान केंद्र स्थापित किये जा रहे हैं। करियर के रूप में योग को अपनाने वालों की संख्या में भी काफी इजाफा दिख रहा है।

योग की प्राचीनता के ऐतिहासिक साक्ष्य

सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर पूर्व वैदिक काल (2700 ईसा पूर्व) में योग की मौजूदगी के कई ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध हैं। इनमें वेद, उपनिषद, स्मृतियां, बौद्ध व जैन धर्म का साहित्य प्रमुख है। महाभारत एवं रामायण, शैवों व वैष्णवों की परंपराओं में भी योग की मौजूदगी मिलती है। महावीर के पंच महाव्रतों एवं बुद्ध के अष्टांग मार्ग में योग साधना की शुरुआती प्रकृति को देखा जा सकता है। वैदिक संस्कृति में ‘प्राणायाम’ दैनिक संस्कार का हिस्सा था। भारतीय संस्कृति में देवाधिदेव शिव को आदि योगी माना जाता है। सदियों पहले सर्वप्रथम देवाधिदेव शिव ने हिमालय के दिव्य वातावरण में योग की सिद्धि प्राप्त की थी। आदियोगी शिव से यह योग ज्ञान सप्त ऋषियों को हस्तान्तरित हुआ। योग की यह प्रथम कार्यशाला केदारनाथ में कांति सरोवर के तट पर आयोजित हुई थी। यौगिक विद्या के इन सर्वप्रथम सात साधकों ने महादेव से अर्जित योग के इस विज्ञान को समूची दुनिया में फैलाया था।

योग विशारदों की मान्यता है कि वैदिक काल दौरान सूर्य को सबसे अधिक महत्व मिलने के कारण योग में “सूर्य नमस्कार” की प्रथा का आविष्कार हुआ था। 800 से 1700 ईसवी के बीच की अवधि में योग विज्ञान का उत्कृष्ट विकास हुआ। इस अवधि में आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, सुदर्शन, पुरंदर दास, हठयोग परंपरा के गोरखनाथ, मत्स्येंद्रनाथ, गौरांगी नाथ, श्रीनिवास भट्ट आदि ने योग को लोकप्रिय बनाया। इसके बाद 1700-1900 ईसवी के बीच रमन महर्षि, रामकृष्ण परमहंस, परमहंस योगानंद, लाहिड़ी महाशय व विवेकानंद जैसे महान योगाचार्यों आदि ने राजयोग के विकास में योगदान दिया है। इस अवधि में वेदांत, भक्तियोग, नाथयोग व हठयोग समूचे देश में फला फूला। इसके बाद बीसवीं सदी में श्री टी. कृष्णम आचार्य, स्वामी कुवालयनंदा, श्री योगेंद्र, स्वामी राम, श्री अरविंदो, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश, स्वामी सत्येंद्र सरस्वती आदि जैसी कई महान हस्तियों ने योग को पूरी दुनिया में फैलाया।

आचार्य पतंजलि का अद्भुत योग विज्ञान

भारत के वैदिक मनीषियों द्वारा स्थापित आत्मोत्थान व आरोग्य की इस सर्वाधिक प्रभावी भारतीय पद्धति का जो स्वरूप आज देश व दुनिया में बहुतायत से प्रचलित है; उसका श्रेय आचार्य पतंजलि को जाता है। उन्होंने ही सबसे पहले योग विद्या को व्यवस्थित रूप दिया। उपलब्ध साक्ष्य बताते हैं कि महर्षि पतंजलि ने उस समय विद्यमान योग की विधियां, परम्पराओं व संबंधित ज्ञान को व्यवस्थित रूप में लिपिबद्ध किया। एक समय ऐसा आया कि योग की तकरीबन 1700 विधाएं तैयार हो गयीं। तब आचार्य पतंजलि ने पूरे योगशास्त्र को मात्र 200 सूत्रों में समेट दिया। इंसान की अंदरूनी प्रणालियों के बारे में जो कुछ भी बताया जा सकता था वो सब इन सूत्रों में शामिल है। पतंजलि के अष्टांग योग में धर्म और दर्शन की सभी विद्याओं के समावेश के साथ-साथ मानव शरीर और मन के विज्ञान का भी सम्मिश्रण है। 200 ईसा पूर्व में पतंजलि ने योग क्रियाओं को “योग-सूत्र” नामक ग्रन्थ में लिपिबद्ध कर दिया था।

महर्षि पतंजलि द्वारा लिखित “योगसूत्र” योग दर्शन का पहला सबसे व्यवस्थित और वैज्ञानिक अध्ययन माना जाता है। उनका योगदर्शन चार विस्तृत भागों में विभाजित है- 1. समाधिपद 2. साधनपद 3. विभूतिपद 4. कैवल्यपद। समाधिपद का मुख्य विषय मन की विभिन्न वृत्तियों का नियमित कर साधक को समाधि के द्वारा आत्म साक्षात्कार करना है। साधनपद में पांच बहिरंग साधन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का पूर्ण वर्णन है। विभूतिपद में अंतरंग की धारणा ध्यान और समाधि का पूर्ण वर्णन है। इसमें योग को करने से प्राप्त होने वाली सभी सिद्धियों का भी वर्णन है। कैवल्यपद मुक्ति की वह सबसे उच्च अवस्था है जहां योग साधक जीवन के मूल स्रोत से एकीकरण हो जाता है। पतंजलि के अष्टांग योग के इन आठ अंग हैं- 1. यम 2. नियम 3. आसन 4. प्राणायाम 5. प्रत्याहार 6. धारणा 7. ध्यान 8. समाधि। हालांकि वर्तमान समय में योग के जिन तीन को प्रमुखता दी जाती है वे हैं- आसन, प्राणायाम व ध्यान मुद्रा।

भगवद्गीता में योग के आध्यात्मिक पक्ष की अद्भुत व्याख्या

भगवद्गीता में योग के आध्यात्मिक पक्ष की अद्भुत व्याख्या मिलती है। योगीराज श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘सिद्धयसिद्धयो समोभूत्वा समत्वंयोग उच्यते।’ अर्थात् दुख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वंद्वों में सर्वत्र समभाव रखना ही योग है। गीता में योग की तीन परिभाषाएं दी गयी हैं- कर्म में कुशलता योग है, समभाव में स्थित होकर कर्म करना योग है और दुख के संयोग के वियोग का नाम योग है। कृष्ण कहते हैं कि सर्वोच्च लक्ष्य के साथ संबंध जोड़ लेना ही योग है। योग कर्तव्य कर्म करने की उस कुशलता का नाम है, जिससे कर्म का फल लिप्त नहीं होता। सुख-दुख, दोनों स्थितियों में सम रहने वाले योगी को न सुख स्पर्श करता है और न दुख। भगवद्गीता में प्रस्तुत ज्ञान, भक्ति और कर्म योग की संकल्पना वाकई अद्भुत है।

योग को हिंदुत्व की उपज बताना वैचारिक संकीर्णता

खेद का विषय है कि पिछले दिनों एक वर्ग विशेष के कुछ लोगों द्वारा योग को हिंदुत्व की उपज बताकर समाज में साम्प्रदायिक वैमनस्य पैदा करने की कोशिश की गयी है। यह पूरी तरह अज्ञानता है। योग विज्ञानियों की मानें तो कुछ संकीर्ण सोच के लोगों द्वारा योग विज्ञान पर हिंदुत्व का लेबल इसलिए लगा दिया गया है क्योंकि इस विज्ञान और तकनीक का विकास भारत की सनातन हिन्दू संस्कृति में हुआ। इस विषय में व्यापक दृष्टि से विचार करें तो पाएंगे कि हिंदू न कोई वाद है और न ही कोई धर्म का नाम है, अपितु सनातन जीवन मूल्यों में यकीन रखने वाले एक भौगोलिक भूखण्ड की सांस्कृतिक पहचान है। योग को लेकर एक अन्य भ्रांति यह भी है कि तमाम लोग योग को प्राणायाम व आसन तक सीमित कर देते हैं। जबकि योग विज्ञान जीवन से जुड़े प्रत्येक पहलू से जुड़ा है।

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के अपने विचार हैं। आवश्यक नहीं कि पॉञ्चजन्य इससे सहमत हो।)

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