महाराणा प्रताप का नाम भारतीय इतिहास में महान पराक्रमी योद्धा के रूप में लिया जाता है, किंतु वे स्थापत्य एवं अन्य कलाओं के गुण-ग्राहक और सम्मानकर्ता भी थे। अपने संघर्षपूर्ण जीवन के मध्य उन्होंने न तो निर्माण कार्य रोका और न ही अपने दरबार से विद्वतजन और कलाकारों को जाने दिया। महाराणा प्रताप केवल वीर योद्धा ही नहीं, संस्कृति और कलाओं के महान संरक्षक और ज्ञाता भी थे। इस तथ्य की पुष्टि उनके काल के मंदिरों, गढ़ों, मूर्तिकला और चित्रकला के अवशेषों के तटस्थ व शास्त्रीय अध्ययन विश्लेषण से होती है।
प्रताप का कार्यक्षेत्र मेवाड़ के भोमट और छप्पन नाम से विश्रुत भागों में रहा। इन क्षेत्रों में कई मंदिर, गढ़ और स्थापत्य स्मारकों के भग्नावशेष मिलते हैं। इनमें से कुछ का निर्माण महाराणा प्रताप के निर्देशों एवं संरक्षण में हुआ है, वहीं कुछ को प्रताप ने पुनःनिर्मित करवाया। मेवाड़ की सांस्कृतिक परंपरा ऐसे स्थापत्य स्मारक, जो निर्माण के संबंध में सीधे प्रताप से संबंधित हैं, में झाड़ोल तहसील में बदराणा नामक स्थान पर स्थित हरिहर का मंदिर प्रमुख है।
राजधानी चावंड का विकास

शोध अधीक्षक
प्रताप गौरव शोध केंद्र, उदयपुर
इतिहासविद् राजशेखर व्यास अपने एक लेख में लिखते हैं, “1585 में छप्पन कहे जाने वाले भू-क्षेत्र पर अधिकार करने के पश्चात् महाराणा प्रताप ने चामुंडी (गरगल) नदी के पूर्वी किनारे की भूमि पर चावंड नामक नगर का निर्माण करवाया। यहां चामुंडा देवी का मंदिर बनवाया। इसके साथ ही वहां एक गढ़, प्रशासनिक परिसर का भी विकास किया। जनस्मारकों का निर्माण करवाने के साथ चामुंडी नदी के पश्चिमी किनारे के भाग में तालाब बनवाया। चावंड में एक त्रिमुखी बावड़ी का निर्माण करवाया गया, जो चामुंडी नदी के किनारे स्थित है। इसकी लंबाई-चौड़ाई 100-100 फीट है। उन्होंने राजधानी रूप में तैयार करने के लिए चावंड नगर को व्यवस्थित किया। साथ ही मेवाड़ में कृषि के पुनःविकास के लिए चावंड में कृषि अनुसंधान केंद्र की स्थापना की। यह केंद्र महाराणा प्रताप के बाद उनके पुत्र महाराणा अमर सिंह के काल में करीब 15 वर्ष तक चलता रहा। इसके बाद यह केंद्र नई राजधानी उदयपुर में स्थानांतरित कर दिया गया।”
प्रताप से संबंधित स्मारकों एवं मूर्तियों के अवशेषों के अध्ययन से बड़े रोचक, आश्चर्यकारक एवं गौरव की अनुभूति प्रदान करने वाले तथ्य प्रकट होते हैं। वहीं, चावंड के भग्नावशेषों के अध्ययन के आधार पर यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि महाराणा प्रताप ने चावंड नामक राजधानी नगर एवं उससे संबंधित भवनों इत्यादि का निर्माण भारतीय स्थापत्य विज्ञान के सिद्धांतों एवं स्थापत्यशास्त्र के निर्देशों की अक्षरशः अनुपालना करके करवाया होगा। इसके लिए सर्वप्रथम स्थान एवं भूमि चयन संबंधी सिद्धांत के संदर्भ में चावंड की स्थिति, भूमि इत्यादि को भारतीय स्थापत्य शास्त्रों के संदर्भ में जांचा-परखा जाना उचित होगा। मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, विष्णुधर्मेत्तर पुराण, शिल्प रत्न, विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र, ईशान शिव गुरुदेव पद्धति, समरांगण सूत्रधार इत्यादि ग्रंथों में राजधानी नगर बनाने के उल्लेखित नियमों के अनुसार ही प्रताप ने चावंड की व्यवस्था की।
डॉ. राजशेखर व्यास ‘महाराणा प्रताप और उनका युग’ पुस्तक में प्रकाशित अपने आलेख में लिखते हैं, “स्थापत्य शास्त्र के सिद्धांतों के संदर्भ में चावंड के भग्नावशेष एक अन्य विलक्षण बात और उजागर करते हैं। वह यह है कि महाराणा प्रताप ने सामान्य रूप से शासकों द्वारा अपने राजधानी नगर के निर्माण के लिए अपनाए जाने वाले वास्तु-स्वरूप सर्वतोभद्र डिजाइन को न अपनाकर वर्धमान आरेख को अपनाया।” गर्ग संहिता और बृहत्संहिता में नगर, राजभवन, देवप्रासाद तथा अन्यान्य स्थापत्य निर्मितियों के तल आकर आरेख के स्वरूप और उनके फलों की विस्तृत जानकारी उपलब्ध होती है।
इन ग्रंथों में स्वस्तिक, सर्वतोभद्र, नयावर्त, वर्धमान, रूचक, पद्मक, सिद्धार्थ, गृहचुल्ली, यमसूर्य, हिरण्य इत्यादि वास्तु आरेख और उनके स्वरूप द्वारा विधान, दिशाः षट्छन्दस विधान आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है और स्पष्टतः कहा गया है कि चारों दिशाओं में द्वारों वाला नगर अथवा राजभवन राजा के हित, उन्नति उत्थान के लिए निर्मित किया जाना चाहिए। इसी तरह गर्ग संहिता और बृहत्संहिता में कहा गया है कि जनहित अथवा प्रजाजन के कल्याण के लिए पूर्व-पश्चिम एवं उत्तर दिशा में द्वारों वाले नगर अथवा राजभवन का निर्माण किया जाना चाहिए। चावंड के संबंध में आश्चर्यकारक वस्तुस्थिति यह है कि चावंड का राजधानी नगर पूर्व-पश्चिम और उत्तर दिशाओं में द्वारों और राजा के निवास भी पूर्व-पश्चिम एवं उत्तर दिशाओं में द्वार वाले वर्धमान वास्तु आरेख, जो राजा के हित साधन के लिए नहीं, प्रत्युत जनहित का आधार प्रदान करने वाला होता है, बनाया गया।
चामुंडा माता मंदिर
यही बात चावंड के चामुंडा देवी प्रासाद में लगे सप्तमातृका शिलापट्ट और गणपति की मूर्ति के संदर्भ में स्वीकारी जा सकती है। सप्तमातृका शिलापट्ट शास्त्रानुरूप निर्मित है। उसमें तक्षण की बारीकी और कौशल के स्थान पर भावों की अभिव्यक्ति पर विशेष बल मिलता है। चावंड के चामुंडा देवी मंदिर के सभा मंडप के बाएं भाग में बाद में जड़ दिया गया सिर रहित गणपति का धड़, सप्तमातृका का शिलापट्ट, देवी चामुंडा की मूर्ति एवं इसी मंदिर के बाहर लापरवाही से पड़ा मंदिर का मौलिक आयलसार पाषाण चक्र प्रमुख हैं।
जावर में देवी मंदिर
चावंड के निकट स्थित जावर खनन क्षेत्र के योगिनीपुर नगर में जावर माता का मंदिर इत्यादि भी पुनःनिर्माण अथवा जीर्णोद्धार की दृष्टि से महाराणा प्रताप से संबंधित हैं। जावर का जावर माता प्रासाद, जो द्विभौमिक है, अपने आप में प्रतापकालीन धार्मिक स्थापत्य की विशिष्टता को उद्घाटित करता है। ऐसी स्थिति में प्रताप के संरक्षण में निर्मित स्थापत्य स्मारकों के आधार पर प्रताप को जनहितैषी शासक स्वीकार करना सर्वथा समीचीन है।
झाड़ोल क्षेत्र नगर विकास एवं स्थापत्य
प्रताप ने हल्दी घाटी से लौट कर झाड़ोल क्षेत्र के कोल्यारी गांव में पड़ाव किया और उसके निकट कमलनाथ की पहाड़ी पर आवरगढ़ नामक दुर्ग का निर्माण करवाया। साथ ही पहाड़ी की तलहटी में स्थित 11वीं सदी के कमलनाथ महादेव मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। आज भी आवरगढ़ के खंडहर उसकी तकनीक का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। भूमि से करीब 1,500 मीटर उंचे इस गढ़ में दो कुंड बनें हैं, जिनमें वर्ष—पर्यन्त जल रहता है। कोल्यारी के निकट ही आमोड़ गांव में एकलिंगनाथ मंदिर का भी निर्माण करवाया।
हरिहर जी का मंदिर
प्रताप ने बदराणा नगर अपने प्रमुख सहयोगी झाल बीदा के नाम पर बसाया और वहां स्थित 10वीं-11वीं सदी के हरिहर के मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। महाराणा प्रताप के काल की कतिपय मूर्तिकला से संबंधित अवशेष कम ही हैं। इनमें बदराणा स्थित हरिहर के मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित हरिहर की मूर्ति, मंदिर के प्रदक्षिणा पथ की मूर्तियां अनुपम हैं, किंतु बदराणा के हरिहर मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित हरिहर की मूर्ति का सर्वतो-भावेन विन्यास सौंदर्य विधान की दृष्टि से इस तथ्य को स्वीकार करने को बाध्य करता है कि वह मूर्ति, रूपमंडन, देवतामूतिप्रकरण, समरांगण सूत्रधार प्रतिमा विज्ञान में उल्लिखित हरिहर के लक्षण स्वभाव के अनुरूप है।
प्रताप के काल की विशिष्ट मूर्ति बदराणा स्थित हरिहर प्रासाद की हरिहर प्रतिमा है। हरिहर की मूर्ति कला, अलंकरण, सौंदर्य-विधान की दृष्टि से विलक्षण है। उसमें मुकुट से लेकर पद भाग तक श्रधिशिव और विष्णु का ऐसा कौशल युक्त विन्यास उपलब्ध है, जिसके आधार पर उसे भारतीय मूर्तिकला की अमूल्य धरोहर स्वीकारा जाना चाहिए। शिव और विष्णु के इस सम्मिलित स्वरूप को संघाट स्वरूप कहा गया है। इसी हरिहर के लक्षणों और प्रभाव को प्रकट करने बाला एक स्तुति श्लोक दृष्टव्य है: –
यौ तौ शंखकपालभूषितकरौ मालास्थिमालाधरौ, देवी द्वारवतीश्मशाननिलयौ नागारिगौवर्धनौ।।
द्विपक्षौ बलिदक्षयज्ञमथनौ श्रीशैलजावल्लभौ, पापं वो हरतः सदा हरिहरौ श्रीवत्सगंगाधरी।।
वस्तुतः बदराणा स्थित हरिहर मंदिर में प्रतिष्ठित हरिहर की मूर्ति के दर्शन एक कला—समीक्षक को सर्वतोभावेन उपर्युक्त श्लोक में उल्लिखित भाव-भूमि पर ले जाकर खड़ा कर देता है। प्रतापकालीन मूर्तिकला के संदर्भ में यह जानना—समझना उचित होगा कि मेवाड़ में मूर्तिकला के विकास की दृष्टि से 10 से 12वीं शताब्दी सर्वश्रेष्ठ काल रहा है। उसके बाद 13-14वीं एवं 15वीं शताब्दियों में सौंदर्य, रूप—लावण्य, ताल—मान की दृष्टि से मूर्तिकला में कुछ गिरावट आई है। लेकिन आश्चर्यकारक तथ्य यह है कि 16वीं शताब्दी में मेवाड़ की मूर्तिकला में पुनः बहुत अच्छा विकास दिखता है।
प्रताप के अन्य शिल्प कार्य
इन स्थापत्य स्मारकों के अतिरिक्त गोगुन्दा के दक्षिण में धोलिया पहाड़ की तलहटी में स्थित राणीकोट नाम से प्रसिद्ध खंडहर, कुंभलगढ़ के निकट मचीन्द गांव के खंडहर, गोगुन्दा के महल, रोहिड़ा के खंडहर, प्रताप ने 1579-80 में आबू से 40 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में सुंधा पहाड़ों में स्थित लोयणा ठिकाने में निवास करते हुए वहां एक बावड़ी और बाग बनवाया। गोड़वाड़ के प्रमुख नगर सादड़ी में प्रताप द्वारा हाकिम के रूप में नियुक्त ताराचंद कावड़िया ने सादड़ी में स्थापत्य एवं वास्तु—विन्यास की दृष्टि से एक भव्य व आकर्षक बावड़ी भी बनवाई, जो सीढ़ियों, गवाक्ष, बैठक आदि सुविधाओं से युक्त उस काल के सर्वतोभावेन स्थापत्य की विशेषता प्रकट करती है। ताराचंद की मृत्यु के बाद उसके अंतिम-संस्कार स्थल पर बनी छतरी भी तत्कालीन स्थापत्य का उत्कृष्ट प्रमाण है।
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