भील समुदाय महाराणा प्रताप का अनन्य सहयोगी रहा
महाराणा प्रताप का बचपन कुंभलगढ़ में बीता। कुंभलगढ़ में निवास के लगभग 10 वर्ष के समय में उन्होंने अधिकांशतः भील समुदाय के लोगों के साथ अपना समय व्यतीत किया। पुरोहित जी ने प्रताप काे बचपन में ‘कीका’ नाम दिया था। भील समाज में भी बालक को कीका कहा जाता है। अब कुंवर प्रताप मात्र महाराणा उदयसिंह के पुत्र न रहकर जनसामान्य के बालक बनकर पूरे समाज में स्वीकार्य हो गए। प्रजा जन की रक्षा के लिए शस्त्र-विद्या में निपुण प्रताप ने 10 वर्ष की अल्पायु में बिना डरे तेंदुए का सामना किया और उसे मार गिराया। मां जयवंता बाई (जसकंवर सोनीगरा अख्यराजोत) को यह पता लगा तो मां ने आशा के विपरीत उनकी पीठ थपथपाई और जनता की सेवा में जीवन अर्पण करने के कर्तव्य के लिए उन्हें प्रेरित किया। उन्होंने पराक्रम और शौर्य की शिक्षा अपनी माता से प्राप्त की और कम आयु में ही मानसिक और शारीरिक तौर पर योद्धा के रूप में तैयार होने लगे।
10 वर्ष की आयु में ही 1550 ईस्वीं में प्रताप कुंभलगढ़ से चित्तौड़गढ़ आ गए। भाटियाणी रानी के प्रभाव में आकर महाराणा उदयसिंह ने पटरानी जयवंता बाई को उनके पुत्र कुंवर प्रताप के साथ चित्तौड़गढ़ की तलहटी में स्थित झाली राणी की बावड़ी के पास बने महल में भेज दिया। यहां रहकर कुंवर प्रताप जयमल मेड़तिया से युद्ध प्रशिक्षण और रावत किशनदास से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करने लगे। इस दौरान चित्तौड़गढ़ के राजमहलों से उनके लिए प्रतिदिन भोजन आता था। साथ ही उनकी व्यवस्था व सुरक्षा के लिए महाराणा ने 10 राजपूत सरदारों को नियत किया था। भोजन के समय कुंवर प्रताप अपने सभी समवय साथियों के साथ सुबह-शाम पंगत में भोजन करते थे। यह परम्परा जो कुंवर प्रताप ने अपने बाल्यकाल में आरम्भ की, आगे चलकर मेवाड़ राजपरिवार की स्थायी परम्परा बन गई।
प्रताप के काल में मुगलों की साम्राज्यवादी नीति से पता चलता है कि वे पूरे भारतवर्ष पर तैमूरी परचम फहरा देना चाहते थे, किन्तु मेवाड़ ने मुगल शासक अकबर के इस विचार को साकार नहीं होने दिया। इस कारण ही मेवाड़-मुगल संघर्ष आरम्भ हुआ। यह संघर्ष महाराणा सांगा के काल में आरम्भ होकर महाराणा उदयसिंह के काल में एक सम्पूर्ण युद्ध में बदल जाता है। इसमें प्रताप लड़ते भी हैं और जीतते भी हैं। इसके लिए प्रताप ने जननायक के रूप में राजमहल से बाहर निकलकर आम लोगों के बीच रहने का निर्णय किया। इस विश्वास ने ही मेवाड़ के संघर्ष को मुगलों के विशाल संसाधन के सामने अरावली के समान अडिग और सर्वोच्च बना दिया था। प्रताप ने अपनी सर्वसुलभता से समाज में राज्य की अस्मिता को अपनी अस्मिता बनाकर मेवाड़ के लोगों के लिए भारतभूमि काे पुण्यभूमि बना दिया। इसी संघर्ष के कारण मेवाड़ के समाज ने अस्थिर और यायावर जीवन स्वीकार किया, लेकिन मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की।
डाॅ. लक्ष्मीकांत व्यास अपने आलेख ‘प्रतापकालीन समाज’ में लिखते हैं कि महाराणा उदयसिह ने सुरक्षा की दृष्टि से उदयपुर को राजधानी बनाया, वहीं प्रताप को उदयपुर से दूर अरावली पर्वत श्रेणियों के मध्य बसे चावंड को अपनी राजधानी बनाना पड़ा, यहां तक कि प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा में और उसका उत्सव कुंभलगढ़ में सम्पन्न हुआ। प्रताप के राज्याभिषेक के साथ ही जो संघर्ष का युग प्रारम्भ हुआ, वह उनके जीवनपर्यन्त चलता रहा और उनका पूरा जीवन संघर्ष का पर्याय बन गया। इसी भावना ने समाज को भी संघर्ष करने की प्रेरणा प्रदान की और प्रताप को सम्बल प्रदान किया। इससे मेवाड़ की तत्कालीन परिस्थिति में महाराणा प्रताप की दृढ़ता और उनके व्यक्तित्व की गहराई स्पष्ट हो जाती है।
इस सम्बन्ध में महामहोपाध्याय रायबहादुर गौरीशंकर हीराचंद ओझा लिखते हैं, ‘वह ऐसे समय मेवाड़ की गद्दी पर बैठे जब उसकी राजधानी चित्तौड़गढ़ पर तो मुगलों का अधिकार था ही, किन्तु मेवाड़ की समतल भूमि भी मुगलों के कब्जे में जा चुकी थी। मेवाड़ के बड़े-बड़े सरदार भी 1568 ईस्वीं में चित्तौड़गढ़ के तीसरे साके में वीरगति प्राप्त कर चुके थे किन्तु स्वतंत्रता के पुजारी प्रताप देशभक्त और कर्तव्यपरायण राजपूतों, भीलों, ब्राह्मणों, कायस्थों, वणिकों आदि की सहायता से अपने देश की स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए कटिबद्ध हो गए। उनकी वीरता, रणकुशलता और नीतिमत्ता अत्यन्त प्रशंसनीय और अनुकरणीय थी।’
महाराणा प्रताप में राजत्व के गुण अपनी कुल मर्यादा से आए और उन्होंने इसका सम्पूर्ण जीवन पालन किया। उन्होंने कभी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं रखी। महाराणा उदयसिंह पर उनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा हावी थी। यही कारण था कि उन्होंने अपने सर्वाधिक राजकुशल और लोकप्रिय ज्येष्ठ पुत्र प्रतापसिंह के स्थान पर अक्षम और अकुशल छोटे पुत्र जगमाल को उत्तराधिकारी घोषित किया। उदयसिंह के देहान्त के बाद स्वयं जगमाल ने राजतिलक का प्रयास किया किन्तु जनमत के प्रभाव से कुछ सरदारों ने प्रताप का राज्याभिषेक राजमहलों से दूर गोगुन्दा में मिलकर किया। इस संबंध में महाराज कुमार डाॅ. रघुबीर सिंह लिखते हैं, ‘उदयसिंह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र प्रतापसिंह को अधिकारच्युत कर अपनी प्रिय भटियाणी रानी के पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था परन्तु उदयसिंह की मृत्यु के बाद मेवाड़ के सरदारों ने जगमाल को राज्य विमुख कर प्रतापसिंह को ही मेवाड़ की गद्दी पर बैठाया।’
मेवाड़ की राजव्यवस्था दो भागों में विभाजित रही। एक राजपरिवार के निकटस्थ रिश्तेदार (सरदार) और दूसरा, राज्य का कार्यपालक अधिकारी वर्ग। न तो सरदार स्थाई थे और न ही अधिकारी। लेकिन इस समूह की शासन और समाज में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। सरदार, जो बाद में सामन्त कहलाए, और महाराणा अमरसिंह द्वितीय के काल में वे अपने ठिकानों में स्वायत्तशासी शासक हो गए, किन्तु महाराणा प्रताप के काल में वे राज्य से अधिकार प्राप्त होने पर राजनियम पर ही अपन क्षेत्र को शासित कर सकते थे। विधि और नीति बनाने में इनका योगदान था लेकिन अधिकार नहीं। प्रताप का युग चूंकि संघर्ष का युग था, अतः सामन्तों का प्रभाव महत्त्वपूर्ण था। महाराणा उदयसिंह की इच्छा के विपरीत प्रताप को महाराणा बनाने का श्रेय सामन्तों को ही दिया जा सकता है।
महाराणाओं पर आसन्न संकट के दौरान सामन्तों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। ठिकानों के सामन्त और जागीरदार प्रायः वंश-परम्परा पर ही आधारित होते थे, किन्तु उन्हें अधिकार और जागीर क्षमता के आधार पर आवंटित होती थी, अक्षम होने पर उन्हें हटाने का अधिकार भी राज्य को ही प्राप्त था।
महाराणा प्रताप के शासन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि उनका लोकप्रिय होना और जनजातियों में उनका सम्मान अपने पुत्र के समान होना था। उन्हें सामाजिक रूप से प्रत्येक समाज ने स्वीकार किया। उन्होंने समाज एवं राज्य में भीलों के महत्व को पहचाना और समाज में उनकी महती भूमिका को राज स्वीकृति दी। प्रताप ने भीलों को अपने प्रशासन व सेना का महत्त्वपूर्ण अंग बना लिया था। भीलों के अलावा गरासिया समाज ने भी समान रूप से अपना सहयोग प्रताप को दिया। उन्होंने प्रताप को बहुत लम्बे समय तक संघर्ष में सहयोग प्रदान किया था। प्रताप ने भीलों को क्षत्रियों के समान सम्मान प्रदान किया और यही कारण रहा कि आगे चलकर ब्रिटिशकालीन मेवाड़ में निर्मित मेवाड़ के राज्य-चिह्न में भी क्षत्रिय सरदार के साथ भील योद्धा को अंकित किया गया है। प्रताप के छापामार युद्ध और वन प्रवास में इन्हीं भीलों ने महत्त्वपूर्ण सहयोग किया था। संस्कृत के ग्रंथ ‘राजरत्नाकर’ में भीलों के संघर्ष का बड़ा सटीक वर्णन मिलता है-
त्रकालॉजनाचलनिभा अथ सन्नियुक्ताः, सप्तायुतं समिति राणपुरंदरेण।
भिल्ला महांबुद घटारषतीव्रवेगा,
भल्लान् ववपुं रिसैन्यमहीतलेषु।।
भीलों के सहयोग के कारण प्रताप ने नवीन युद्ध प्रणाली का भी प्रणयन किया। युद्ध क्षेत्र में गुप्त सूचनाएं देना, सेना के आगमन की सूचना देना, विकट-दुर्गम रास्तों से जाकर दुश्मन की सेना की वास्तविक स्थित्ति का पता लगाना और निश्चित संकेतों से महत्त्वपूर्ण सूचनाएं देने का जो खुफिया कार्य भीलों ने किया, उसके अभाव में प्रताप के लिए संघर्ष को इतने लम्बे समय तक चलाना और उसका अस्तित्व बनाए रखना संभव नहीं था। इसी पद्धति के कारण ही प्रताप को सफलता भी मिली।
जाति एवं वर्ण व्यवस्था भारतीय समाज की विशेषता रही है, जहां जातीय गौरव व वर्ण का अभिमान व्यक्ति का गुण माना गया। वैदिककाल में श्री विभक्त चत्वराय व्यवस्था इस समय में प्रचलित रही लेकिन इनमें कहीं-कहीं परिवर्तन भी होने लगा। जातियों और वर्ण के आधार पर ही जीवन का संचालन हो रहा था, पर कहीं-कहीं जन्म के स्थान पर कर्म को महत्त्व दिया जाने लगा था। महाराणा प्रताप के मंत्री भामाशाह वैश्य थे। उन्होंने हल्दीघाटी के युद्ध में कुशल सैन्य संचालन किया था। इसके अतिरिक्त भामाशाह का भाई ताराचन्द वैश्य होते हुए भी कुशल प्रशासक और सैन्य संचालक था। उनकी योग्यता को देखकर उन्हें सादड़ी का हाकिम नियुक्त किया गया था। यह गौड़वाड़ का क्षेत्र था, जहां से मुगलों का आक्रमण हो सकता था, अतः उसे वहां नियुक्त किया गया था।
चारण जाति ने भी सदैव राजपूतों का सहयोग किया और अपने काव्य से राजपूतों को उनके सम्मान के प्रति सचेष्ट बनाए रखा, लेकिन आवश्यकता पड़ने पर सेना में सहयोग भी किया। इस चारण जाति के योद्धाओं, रामा सांदू और माला सांदू की सैन्य कुशलता को विस्मृत नहीं किया जा सकता जिन्होंने काव्य सृजन के साथ ही हल्दीघाटी में युद्ध भी किया था। इसके सम्बन्ध में डिंगल गीतों की भी रचना हुई थी, एक गीत की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं-
वडच बिच हुवौ एक चारण वडो सम्रत लाभ जोतां स ठामां।
श्राविया काम मेवाड़ पोहो आगली राम सामां तिसां राम रामां।
विविधताओं से परिपूर्ण इस सामाजिक संयोजन में संघर्ष होना स्वाभाविक था। प्रायः सभी जातियां एक दूसरे से संघर्ष करती रहती थीं और एक दूसरे से अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहती थीं। धीरे-धीरे जातियां उपजातियों में परिवर्तित होती गईं। क्षत्रियों में भी विभिन्न जातियां बंटती रहीं। प्रताप का संबंध सिसोदिया वंश की गहलोत शाखा से था। इनके साथ राठाैड़, मोरा (चाैहान), डोहिया भाला आदि जातियों के वीरों ने भी जीवन समर्पित किया था।
महाराणा प्रताप ने जाति भेद को भुलाकर योग्यता के आधार पर उन्हें हमाज एवं प्रशासन में स्थान दिया था। भामाशाह ने राज्य के प्रधान का पद प्राप्त किया था जिसे कायस्थ रामा महसाणी के स्थान पर नियुक्त किया गया और यही भामाशाह मेवाड़ के लिए वरदान सिद्ध हुआ। भामाशाह के प्रधान बनने के संबंध में कहा जाता है-
भामो परधानो कर, रामो कीधौ रद्द।
घरची बाहर करण तू, मिलियो आय मरद्द।।
शासक और शासित में दूरी घटी
भारतीय धर्म एवं संस्कृति पर सातवीं-आठवीं शताब्दी से जो विदेशी आक्रमणों का सिलसिला शुरू हुआ, वह मुगल आक्रमण के समय अपने चरम तक पहुंच गया। इससे पूर्व जितने भी आक्रमण हुए, उनमें आक्रमण की दृष्टि केवल अर्थ तक ही सीमित थी, लेकिन बाबर मजहब एवं साम्राज्य के विस्तार की मंशा लेकर आया था। राणा सांगा ने उससे संघर्ष का नेतृत्व किया। महाराणा प्रताप को अपने पिता से मेवाड़ का छिन्न-भिन्न राज्य और मुगलों से शत्रुता विरासत में मिले थे। वे भली-भांति यह समझ रहे थे कि अकबर से विरोध उन्हें लम्बे और कठोर युद्ध की ओर धकेलेगा।
प्रो. के.एस. गुप्ता लिखते हैं कि अब तक भारतीय संस्कृति पर मुस्लिम संस्कृति का प्रभाव न्यून था, लेकिन अब वह प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक पड़ने लगा। जहां कहीं संघर्ष हुआ, वहीं कुछ लोगों ने समन्वय के दृष्टिकोण को अपनाया। अकबर ने वैवाहिक सम्बन्धों से कटुता को समाप्त करने एवं इन सम्बन्धों से अपने साम्राज्य को विस्तार देने की योजना बनाई। जोधपुर, जयपुर आदि राज्यों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये गये। वे राजघराने, जिन्होंने इनसे वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किये थे, उन्होंने इन राज्यों को निम्न एवं समाज से हीन दृष्टि से देखना प्रारम्भ किया।
आमेर के मानसिंह की बुआ का वैवाहिक सम्बन्ध अकबर बादशाह से हो चुका था और इस कारण प्रताप उनको अपने से निम्न समझते थे और अपवित्र भी। अकबर के निर्देश पर मानसिंह जब गुजरात से प्रताप को अकबर की अधीनता स्वीकार कराने के उद्देश्य से आया और प्रताप ने उदयनिवास पर मानसिह को भोज दिया और वहां हुए मनमुटाव के बाद जब मानसिंह वहां से चल दिया तो प्रताप ने उस स्थान को गंगाजल से धोकर पवित्र किया और बर्तनों को अग्नि से पवित्र करवाया। इसे मानसिह ने अपना अपमान समझा और अकबर को प्रताप के विरुद्ध भड़काया। इस घटना का उल्लेख लगभग सभी साहित्यिक एवं ऐतिहासिक ग्रन्थों में मिलता है। ‘अमरकाव्य’ में इसका उल्लेख इस प्रकार हुआ है-
प्रतापसिंहोऽथ तदा जवेन, स्वाचारिभिः कारयति स्म सूदैः।
उल्लेखनं वार सवृत्यवन्या, भाण्डादिनिः सारणमेव विश्वकः।।
प्रक्षालनं श्भूरि विलेपनः च, पवित्रमूत्स्ना शुचिगोमयैश्च।
अत्राथ गंगाजल सेक मुच्चैः, पाकं ततः कारयति स्म तत्र।।
राव किसोरदास कृत डिंगल के ग्रन्थ ‘राजप्रकास’ में इसका उल्लेख इस प्रकार हुथा है-
ष्पडिहार त्यार परूसि, ताई बाज इन्द्रहं तूसि।
पै कहे मान प्रताप, ईक बाज बैठो आप।।
परताप किरिण री पांति, भूपति जीमै भांति।
राजा स मान रिसाय, उठियो सरोय अघाय।।
‘कोऊ नृप होय हमें का हानि’ के विचार ने जनता को राज्य के प्रति उदासीन बना दिया था और शासक भी अपने राग-रंग में जनता को भुला बैठे थे, लेकिन प्रताप के युग में उन सम्बन्धों में पुनः चेतना का संचार हुआ। प्रताप अपने राज्य को स्वतन्त्र बनाए रखना चाहते थे, जिस पर मुगल साम्राज्य की छाया भी न पड़े, जिसके लिए उन्होंने इतने कष्ट उठाये और संघर्ष किए। प्रताप के इस कृत्य से जनता बहुत प्रभावित हुई और जनसामान्य की भावनाएं उनके साथ जुड़ीं। समस्त जनता ने एक साथ आकर संघर्ष का बीड़ा उठाया जिसका परिणाम यह हुआ कि संघर्ष करने के लिए प्रताप का साहस बना रहा और इस जनसहयोग से ही वे लम्बे समय तक संघर्ष कर सके थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रताप के युग में शासक व शासित के बीच की दूरी कम हुई और उनके सम्बन्ध में प्रगाढ़ता आयी। इससे जहां लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त हुआ, वहीं जनता में भी राजनीतिक चेतना जाग्रत हुई।
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