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स्व के लिए पूर्णाहुति : उलगुलान के भगवान बिरसा

बिरसा मुंडा ने उलगुलान के जरिए अंग्रेजों और मिशनरियों को ललकारा। हिंदुत्व और स्वराज के लिए उनके बलिदान की कहानी, जो आज भी प्रेरित करती है।

by डॉ. आनंद सिंह राणा
Jun 8, 2025, 10:46 am IST
in मत अभिमत
Birsamunda

भगवान बिरसामुंडा

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भारतीय इतिहास में स्व के लिए पूर्णाहुति देने वाले महानायकों में बिरसा मुंडा को भगवान के रुप में शिरोधार्य किया गया है। “न भूतो न भविष्यति” के आलोक में धरती आबा, ईश्वर का अवतार, हिंदुत्व के ध्वजवाहक, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रांतिकारी योद्धा हमारे महा महारथी” बिरसा मुंडा का बलिदान स्व के लिए पूर्णाहुति के चरमोत्कर्ष का प्रतीक है।विडंबना यह है कि भगवान् बिरसा ने जिन उद्देश्य और संकल्प के लिए अंग्रेजों और ईसाई मिशनरियों से संघर्ष करते हुए अपना बलिदान दिया,उसे भली भाँति समझा ही नहीं गया।

यदि समझ लिया गया होता तो भारत से ईसाई मिशनरियों का सूपड़ा साफ हो जाता और जनजातियों का व्यापक रुप से मंतातरण नहीं होता। इसलिए वर्तमान संदर्भ में भगवान बिरसा के विचार और संघर्ष का इतिहास जानना परम आवश्यक है, ताकि समस्त हिन्दू समाज , देश में हो रहे ईसाई मिशनरियों,लव जेहाद की आड़ में धर्मांतरण, वामियों और तथाकथित सेक्यूलरों के षड्यंत्रों का एकजुट हो सामना कर सके।

शब्द ब्रम्ह होते हैं और जैसे ही “उलगुलान” “हूल जोहार “भूमि जोहार” और “जय हो जोहार हो, लड़ाई आर-पार हो” शब्द अर्थ देते हैं, तो महा महारथी श्रीयुत बिरसा मुंडा के गौरवशाली इतिहास के पन्ने खुलने लगते हैं। महा महारथी, महानायक बिरसा मुंडा हमें हमेशा से महान् क्रांतिकारी योद्धा के साथ ईश्वर का अंशावतार के रुप दिखते हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि राणा पूंजा (पूंजा भील) जिसने महाराणा प्रताप के साथ मुगलों के विरुद्ध सर्वस्व अर्पित कर अपने गोरिल्ला युद्ध से छक्के छुड़ा दिये थे, वही बिरसा मुंडा के रूप में अवतरित हुए, जिसने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये।

याद आता है महारथी बिरसा का वह नारा “अबुआ दिशुम, अबुआ राज” (हमारा देश, हमारा राज्य), तो ऐसा लगता है कि लोकमान्य तिलक जी के “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार” और भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद के पूर्ण स्वतंत्रता के संकल्प, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा के संकल्प, तथा गांधी जी के भारत छोड़ो आंदोलन में, बिरसा मुंडा के नारे की सुगंध है।

हरिराम मीणा ने क्या खूब लिखा है महारथी बिरसा के लिए कि-

“मैं केवल देह नहीं..
मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ,…
पुश्तों और उनके दावे मरते नहीं..
मैं भी मर नहीं सकता..
मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता..
उलगुलान! उलगुलान! उलगुलान!
जहाँ उलगुलान का आशय,जल – जंगल – जमीन पर दावेदारी के लिए -कोलाहल, क्रांति, संघर्ष औऱ आंदोलन से है।

झारखंड के उलिहातु गांव में माता करमी हातु और पिता सुगना मुंडा के यहाँ 15 नवंबर 1875 को बिरसा मुंडा का अवतरण हुआ था। बिरसा कुशाग्र बुद्धि के थे इसलिए अंग्रेजों ने जर्मन स्कूल में भर्ती करवाया, वहां उनको बिरसा डेविस नाम दिया गया, परंतु जल्दी ही बिरसा ने ईसाई मिशनरियों के षडयंत्र को समझ लिया और धर्मांतरण का विरोध किया और ये कहते हुए स्कूल छोड़ दिया कि “साहेब साहेब एक टोपी है”। ईसाई धर्म स्वीकार करने सभी मुंडाओं को हिन्दू धर्म में पुन:दीक्षित किया।

‘साहब-साहब एक टोपी’ यानि अंग्रेज सरकार, ईसाई मिशनरी सब एक ही हैI इसी बीच बिरसा का आनंद पांडेय (भ्रम से कतिपय के अनुसार पांण अथवा पांड) से संपर्क हुआ। उन्होंने रामायण, महाभारत जैसे ग्रंथों का अध्ययन किया। इन ग्रंथों का उनके मन पर काफी गहरा प्रभाव निर्माण हुआ। धीरे-धीरे एक आध्यात्मिक महापुरुष के रूप में उनका स्थान निर्माण होने लगा।

बिरसाइत नाम से उन्होंने एक आध्यात्मिक आंदोलन को प्रारंभ किया। मुंडा – उरांव और अन्य कई समाज के हजारों लोग इस आंदोलन में सम्मिलित होने लगे। भगवान बिरसा ने उपदेश दिए कि शराब मत पिओ, चोरी मत करो, गौ हत्या मत करो, पवित्र यज्ञोपवीत पहनो, तुलसी का पौधा लगाओ और सर्वोच्च देवता सिंगबोंगा अर्थात सूर्य देवता की उपासना करो। यही तो हिंदुत्व के मूल में है।

आध्यात्मिक चेतना जागृत होने लगी। सन 1894 में छोटा नागपुर में महामारियां फैलीं, तब महारथी बिरसा ने सभी साथियों को अंधविश्वासों से दूर कर अकेले ही सामना किया और विजय हासिल की। बिरसा को देवीय आशीर्वाद मिलने लगा था, इसलिए सभी पीड़ित वर्ग, उनके स्पर्श मात्र से स्वस्थ्य होने लगे थे। आलोचकों को बता दूँ कि जापान में रेकी पद्धति यही है – आध्यात्मिक स्पर्श। इस समय तक बिरसा भगवान के अवतार बन गए थे। अंग्रेज़ों ने “इंडियन फॉरेस्ट एक्ट” द्वारा सभी वनवासियों को जंगल से बेदखल कर दिया। यहाँ से आरंभ हुआ महारथी बिरसा का अंग्रेजों के विरुद्ध महान स्वतंत्रता संग्राम का आंदोलन “उलगुलान”।

महारथी बिरसा ने 1897 से 1900 तक अंग्रेजों से परंपरागत हथियारों से 8 गोरिल्ला युद्ध किये अंग्रेजों को भयंकर पराजय दी। सन 1897 में महारथी बिरसा ने 400 वीर मुंडाओं के साथ “खूंटी थाने” पर भयंकर आक्रमण किया और अंग्रेज़ों को खदेड़ दिया। सन 1898 में “तांगा नदी” के युद्ध में पुनः महारथी बिरसा ने अंग्रेजों की दुर्दशा कर दी। इस समय लाला बाबा के साथ सभी वनवासी, ये गीत गाते कि
” कटोंग बाबा कटोंग, साहेब कटोंग, रारी कटोंग कटोंग ”

(काटो बाबा काटो..यूरोपीय साहबों को काटो)। अंग्रेजों में महारथी बिरसा की दहशत व्याप्त हो गई थी।

भगवान बिरसा सभी को एक मुंडारी गीत गाकर अपना संदेश देते -“विशाल नदी में बाढ़ आई है..
आसमान में धूल भरी आंधी उमड़ – घुमड़ रही है..
ओ! मैना चली जा, चली जा..
जंगल में आग और धुंआ जोरों से उठ रहा है..
ओ! मैना चली जा,चली जा..
तुम्हारे माँ – बाप बरसाती तूफान में असहाय बहे जा रहे हैं..
ओ! मैना चली जा, चली जा।।”

बिरसा अंग्रेजों के लिए आतंक का पर्याय बन गये थे, परंतु कुटिल और धोखेबाज अंग्रेजों ने हमेशा की तरह हमेशा की तरह कुछ गद्दारों की सहायता से सन 1900 में दुम्बरी (डोमबाड़ी) की पहाड़ी में घेर लिया तब आमने – सामने की लड़ाई हुई 3 घंटे घमासान युद्ध चला लेकिन तोपखाना और बंदूकें भारी पड़ीं। लगभग 2000 हजार मुंडाओं सहित अन्य जनजातीय समुदाय से बलिदान हुआ। यद्यपि ये युद्ध अंग्रेजों के पक्ष में रहा परंतु बिरसा सुरक्षित रहे।

अंग्रेज़ों ने बिरसा पर 500 रुपये का ईनाम रखा इस ईनाम के चक्कर में मुखबिरी हो गयी और 3 फरवरी सन 1900 को बिरसा पकड़े गए। जेल जाते समय महारथी बिरसा ने लोगों से आह्वान किया, जो आज भी मुंडारी लोकगीतों में गाया जाता है –

“मैं तुम्हें अपने शब्द दिये जा रहा हूं,
उसे फेंक मत देना,
अपने घर या आंगन में उसे संजोकर रखना।
मेरा कहा कभी नहीं मरेगा।
उलगुलान! उलगुलान!
और ये शब्द मिटाए न जा सकेंगे।
ये बढ़ते जाएंगे।
बरसात में बढ़ने वाले घास की तरह बढ़ेंगे।
तुम सब कभी हिम्मत मत हारना।
उलगुलान जारी है।।”

रांची (झारखंड) में अंग्रेजों ने उन्हें फांसी या अन्य सजा इसलिए न दी कि विद्रोह न भड़क जाये, इसलिए धीमा जहर दिया और 9 जून को सन 1900 को खून की उल्टियाँ शुरु हो गईं, अंतिम समय में 3 बार उलगुलान! उलगुलान! उलगुलान! शब्द कहते हुए महारथी बिरसा ने पार्थिव शरीर त्याग दिया और उनकी आत्मा परमपिता से जा मिली। महा महारथी बिरसा का कुल 25 वर्ष का जीवन रहा। 25 वर्ष के अंतराल में उनके द्वारा किए गए विविध पवित्र और पुनीत अनुष्ठान और 4 वर्षों का महासंग्राम अमर रहेगा। महारथी बिरसा का पार्थिव शरीर भी पंच तत्वों में मिलकर अमर हो गया।

सन 1947 में देश स्वाधीन हो गया, परंतु धिक्कार है, एक दल विशेष के समर्थक और वामी इतिहासकारों पर जिन्होंने इतिहास लिखते समय महा महारथी बिरसा मुंडा के स्वतंत्रता संग्राम को जल, जंगल और जमीन का विद्रोह बताया और जनजाति समाज क़ो हिन्दू धर्म से पृथक बताकर वैमनस्यता पैदा करने के लिए प्रकारांतर से कुत्सित प्रयास किया औऱ कर रहे हैं। हमें गर्व होना चाहिए है कि हमारा जन्म महा महारथी बिरसा के देश में हुआ।

अंत में बलिदान दिवस पर यह लिखने में किंचित मात्र संकोच नहीं है कि महा महारथी बिरसा मुंडा की 146 वीं जयंती से माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के आव्हान पर, उनकी जयंती को राष्ट्रीय जनजातीय गौरव दिवस के रुप में मनाया जाने लगा है, जो सभी भारतीयों के लिए गर्व और गौरव का विषय है, सच्ची श्रद्धांजलि है। महा महारथी बिरसा मुंडा का अवदान एवं बलिदान वर्तमान और भावी पीढ़ी के लिए सदैव मार्गदर्शी रहेगा और यही भाव जाग्रत करेगा कि “मैं रहूँ या न रहूँ ये मेरा देश भारत रहना चाहिए।”

हमने महा महारथी बिरसा मुंडा को भगवान माना परंतु भगवान की बातें नहीं मानी, इसलिए विघटनकारी समस्याएँ घनीभूत हो गईं। अतः अब समय आ गया है कि भगवान बिरसा की बातों को आत्मसात कर, सशक्त भारत, समर्थ भारत, समरस भारत, एक भारत – श्रेष्ठ भारत के निर्माण में अपना सर्वस्व अर्पित करें।

 

(डिस्क्लेमर: स्वतंत्र लेखन। यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं; आवश्यक नहीं कि पाञ्चजन्य उनसे सहमत हो।)

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