हरिद्वार: देवभूमि उत्तराखण्ड ने पर्यटकों तथा अध्यात्म प्रेमियों का ध्यान सदैव अपनी ओर खींचा है, आचार्य श्रीराम शर्मा ने भी देवभूमि उत्तराखण्ड के हरिद्वार स्थित शान्तिकुंज को सेवाकार्य के लिए अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया था। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही मानव सेवा में समर्पित कर दिया था। उन्होंने आजीवन गायत्री साधना और मानव सेवा के महती कर्तव्य को निभाते हुए भावी पीढ़ी के लिए आदर्श प्रस्तुत किया हैं।
श्रीराम शर्मा आचार्य मां गायत्री के आराधक, समाज सुधारक, दार्शनिक और अखिल विश्व गायत्री परिवार के संस्थापक थे। उनकी विशिष्ट उत्कृष्टता उनके चेतन और अचेतन मन के माध्यम से लोगों की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षमता को प्रोत्साहित करने की बात करती है। दशकों पहले शुरू हुए एक व्यक्ति के अडिग संकल्प के माध्यम से असंख्य लोगों को गायत्री परिवार के अंतर्गत लाया गया है।
गायत्री परिवार संस्था के संस्थापक आचार्य श्रीराम शर्मा का जन्म 20 सितम्बर सन 1911 को उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के आंवलखेड़ा गांव में हुआ था। उनके पिता पंडित रूपकिशोर शर्मा दूर-दराज के राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भगवत कथाकार थे। उनकी माता का नाम दंकुनवारी देवी था। पंडित मदन मोहन मालवीय ने बाल्यकाल में उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी। 15 साल की उम्र से 24 साल की उम्र तक उन्होंने प्रत्येक वर्ष 24 लाख बार गायत्री मंत्र का जप किया था।
यद्यपि वह एक जमींदार घराने में जन्मे थे, परन्तु उनका मन प्रारम्भ से ही अध्यात्म साधना के साथ-साथ निर्धन एवं निर्बल की पीड़ा के प्रति संवेदनशील था। एक समय एक हरिजन महिला कुष्ठ से पीड़ित हो गयी, बालक श्रीराम ने घर वालों का विरोध सहकर भी उसकी भरपूर सेवा की थी, महिला ने स्वस्थ होकर उन्हें ढेरों आशीर्वाद दिये। उसी समय उन्हें अदृश्य छायारूप में अपनी गुरुसत्ता के दर्शन हुए, जिसने उन्हें हिमालय आकर गायत्री की साधना करने का आदेश दिया।
अब श्रीराम हिमालय में जाकर कठोर तप में लीन हो गये, वहाँ से लौटकर वह समाजसेवा के साथ–साथ देश के स्वतन्त्रता प्राप्ति आन्दोलन में भी कूद पड़े थे। सन 1927 से सन 1933 तक उन्होंने भारत के स्वतंत्रता प्राप्ति संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई थी। वह परिवार के विकट विरोध के बावजूद भी लम्बे समय तक देश के लिए भूमिगत कार्य करते रहे और समय आने पर जेल भी गए। नमक आन्दोलन के समय सत्याग्रह करने वह आगरा गये थे, वहां आंदोलन के समय ब्रिटिश पुलिस ने उनसे भारतीय ध्वज तिरंगा छीनने का बहुत प्रयास किया, उन्हें पीटा भी गया पर उन्होंने झण्डा नहीं छोड़ा और अंत में उन्होंने झण्डा मुँह में दबा लिया, जिसे उनके बेहोश होने के बाद ही मुँह से निकाला जा सका था।
इसी कारण उन्हें श्रीराम ‘मत्त’ नाम मिला था। जेल में वह अपने साथियों को शिक्षण–प्रशिक्षण दिया करते थे। वह जेल से अंग्रेजी सिखकर लौटे थे। जेल प्रवास के समय उन्हें महात्मा गाँधी, पण्डित मदन मोहन मालवीय और अहमद किदवई जैसे अनेक प्रबुद्ध लोगो का मार्गदर्शन मिला था। उन्होंने तीन बार जेल यात्रा की थी। वह गणेश शंकर विद्यार्थी से बहुत प्रभावित हुए थे। वह ऋषि अरविन्द से मिलने पांडिचेरी, रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिलने शान्ति निकेतन तथा महात्मा गांधी से मिलने सेवाग्राम गये थे। वहाँ से लौटकर उन्होंने अखण्ड ज्योति नामक मासिक पत्रिका प्रारम्भ की, आज भी यह पत्रिका लाखों की संख्या में भारत की अनेक भाषाओं में छप रही है। इसी बीच वह समय-समय पर हिमालय पर जाकर साधना एवं अनुष्ठान भी करते रहे।
गायत्री तपो भूमि मथुरा और शान्तिकुंज, हरिद्वार को उन्होंने अपने क्रियाकलापों का केन्द्र बनाया था, जहां हिमालय के किसी पवित्र स्थान से लायी गयी अखण्ड ज्योति का दीपक आज भी निरन्तर प्रज्वलित है। आचार्य श्रीराम शर्मा का मत था कि पठन-पाठन तथा यज्ञ करने एवं कराने का अधिकार सभी को है। अतः उन्होंने सन 1958 में कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर दस लाख लोगों को गायत्री की दीक्षा दी थी। इस आयोजन में सभी वर्ग, वर्ण और अवस्था के लोग सम्मिलित हुए थे। उनके कार्यक्रमों की एक विशेषता यह थी कि वह सबसे सपरिवार आने का आग्रह करते थे।
इस प्रकार केवल घर-गृहस्थी में उलझी नारियों को भी उन्होंने समाजसेवा एवं अध्यात्म की ओर मोड़ा था। नारी शक्ति के जागरण से सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि इससे देश में परिवारों का वातावरण सुधरने लगा था। आचार्य श्रीराम शर्मा ने वेद, पुराण, उपनिषद, स्मृति, आरण्यक, ब्राह्मण ग्रन्थ, योगवाशिष्ठ, तन्त्र एवं मन्त्र महाविज्ञान आदि सैकड़ों ग्रन्थों की व्याख्याएँ लिखीं थी। वह बीच-बीच में साधना के लिए एकांत प्रवास में जाते रहते थे, इस समयकाल में सम्पूर्ण कार्य उनकी धर्मपत्नी भगवती देवी सँभालती थीं। इस कठिन साधना और परिश्रम से ही युग निर्माण योजना जैसे प्रकल्प का जन्म हुआ। युग निर्माण योजना के द्वारा आयोजित यज्ञ में सभी स्त्री और पुरुष भाग लेते हैं, यह अवैज्ञानिक एवं कालबाह्य हो चुकी सामाजिक रूढ़ियों के बदले नयी मान्यताएँ स्थापित करने का एक सार्थक प्रयास है।
2 जून सन 1990 को गायत्री जयन्ती पर आचार्य श्रीराम शर्मा ने स्वयं को परमसत्ता में विलीन कर लिया था। सन 1991 में श्रीराम शर्मा आचार्य के शिलालेख के साथ एक डाक टिकट जारी किया गया था। इसके बाद माता भगवती देवी शर्मा ने सहस्राब्दी के परिवर्तन और एक नए युग के जन्म पर ध्यान केंद्रित करते हुए अश्वमेध यज्ञों की श्रृंखला को अंजाम दिया था।
टिप्पणियाँ