छत्रपति शिवाजी महाराज भारतीय इतिहास के ऐसे अद्वितीय नायक हैं जिन्हें न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य की अनेक पीढ़ियाँ भी स्मरण करेंगी। इसका मुख्य कारण यह है कि उन्होंने उस युग में, जब इस्लामी आक्रांताओं के अत्याचारों से भारतीय समाज शिथिल हो चुका था, एक नई चेतना और जागृति का संगठित प्रयास करते हुए उसे पुनर्जीवित किया।
उस कालखंड में जब विदेशी आक्रमणकारियों ने जबरन धर्मांतरण, सांस्कृतिक विनाश और धार्मिक स्थलों के विध्वंस के माध्यम से भारतीय सभ्यता को नष्ट करने का प्रयास किया, तब शिवाजी महाराज ने एक शक्तिशाली हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना कर इन विघटनकारी शक्तियों को परास्त किया।
अपने संघर्ष के दौरान उन्होंने न केवल सैन्य दृष्टि से अद्वितीय रणनीतियाँ अपनाईं, बल्कि प्रशासन, कृषि, भाषा, मुद्रा और धार्मिक व्यवस्था में भी भारतीय सनातन परंपराओं के अनुरूप दूरदर्शी सुधार किए। उनका शासन केवल एक क्षेत्रीय शक्ति नहीं था, बल्कि वह भारतीय आत्मगौरव, सांस्कृतिक पुनर्जागरण और धर्मरक्षा का प्रतीक बन गया।
शिवाजी के राज्य का उद्देश्य
“प्रसिद्ध मराठा इतिहासकार जी.एस. सरदेसाई (जिन्हें 1957 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था) के अनुसार, शिवाजी की वाणी में गजब का प्रभाव था। वे अपने साथियों को संबोधित करते हुए उन्हें यह समझाते थे कि कैसे विदेशी मुस्लिम शासन ने उनके देश और धर्म पर अत्याचार किए हैं। उन्होंने अपने देखे-सुने अत्याचारों की घटनाएँ विस्तार से सुनाईं। क्या यह उनका धर्म और कर्तव्य नहीं था कि वे इन अन्यायों का प्रतिशोध लें?”
वे आगे लिखते हैं, “मुस्लिम शासन के अधीन पूर्ण अंधकार छाया हुआ था। न कोई पूछताछ होती थी, न न्याय मिलता था। अधिकारी जो चाहें, वही करते थे। स्त्रियों के सम्मान का हनन, हत्याएं, हिंदुओं का जबरन धर्म परिवर्तन, उनके मंदिरों का विध्वंस, गायों का वध — ऐसे घिनौने अत्याचार उस शासन में आम बात थे। निजामशाही ने तो खुलेआम जीजाबाई के पिता, उनके भाइयों और पुत्रों की हत्या कर दी थी। फलटन के बजाजी निंबालकर को जबरन मुसलमान बनाया गया। ऐसे अनगिनत उदाहरण दिए जा सकते हैं। हिंदू सम्मानजनक जीवन नहीं जी सकते थे। यही बातें थीं, जिन्होंने शिवाजी के भीतर धर्मसम्मत क्रोध जगा दिया। विद्रोह की प्रबल भावना ने उनके मन को पूरी तरह घेर लिया। उन्होंने तुरंत कार्य आरंभ कर दिया। उन्होंने मन ही मन सोचा, ‘जिसके हाथ में शस्त्र की शक्ति है, उसे कोई भय नहीं होता, कोई कठिनाई नहीं आती।
भारतीय इतिहासकारों के आचार्य कहे जाने वाले आर.सी. मजूमदार के अनुसार, “शिवाजी ने बहुत जल्दी लोगों के दिल जीत लिए। वे सदैव सतर्क रहते थे और किसी भी खतरे व उसके परिणामों का सामना करने में सबसे आगे रहते थे। वे अपने साथियों के साथ गुप्त बैठकों का आयोजन करते और अत्यंत गंभीरता के साथ इस बात पर विचार करते कि अपनी मातृभूमि को मुस्लिम शासन से कैसे मुक्त कराया जाए, ताकि हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों का अंत किया जा सके।”
प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार के अनुसार, “शिवाजी के राजनीतिक आदर्श ऐसे थे जिन्हें हम आज भी बिना किसी परिवर्तन के स्वीकार कर सकते हैं। उनका उद्देश्य था अपने प्रजा को शांति देना, सभी जातियों और धर्मों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करना, एक कल्याणकारी, सक्रिय और निष्पक्ष प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करना, व्यापार को बढ़ावा देने के लिए नौसेना का विकास करना, और मातृभूमि की रक्षा के लिए एक प्रशिक्षित सेना तैयार करना।”
महादेव गोविंद रानाडे ने इस ओर संकेत किया है कि, “अपने समय में शिवाजी पहले नेपोलियन की तरह एक महान संगठनकर्ता थे और नागरिक संस्थाओं के निर्माता भी।”
महाराष्ट्र के प्रसिद्ध इतिहासकार गजानन भास्कर मेहेंदळे अपनी पुस्तक‘शिवाजी: हिज़ लाइफ एंड टाइम्स’में लिखते हैं कि शिवाजी ने अपने जीवन के बहुत आरंभिक दौर से ही स्वयं को वास्तविक शासक (दे फैक्टो सॉवरेन) की तरह प्रस्तुत किया। इसका प्रमाण उनकी मुहर में मिलता है; सबसे प्राचीन दस्तावेज़ जिसमें यह मुहर है, वह 28 जनवरी 1646 का है, जब शिवाजी मात्र सोलह वर्ष के थे।
गजानन भास्कर मेहेंदळे के अनुसार परमानंद — जो‘शिवभारत’के लेखक थे — शिवाजी के समकालीन थे। वे आगरा भी उनके साथ गए थे और शिवाजी से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे। उन्होंने यह उल्लेख किया है किशिवभारतमहाकाव्य की रचना स्वयं शिवाजी के आदेश पर की गई थी, इसलिए इसे शिवाजी की आधिकारिक जीवनी माना जा सकता है। इस महाकाव्य में एक प्रसंग के रूप में यह कथन भी मिलता है, जो कहा जाता है कि अली आदिलशाह ने अफ़ज़ल ख़ान को शिवाजी के विरुद्ध भेजते समय किया था: “मुसलमानों का धर्म उस शिवाजी द्वारा नष्ट किया जा रहा है, जिसे अपने धर्म पर अत्यधिक गर्व है, और जिसने बचपन से ही यवनों (मुसलमानों) का अपमान किया है।”
प्रसिद्ध इतिहासकार केदार फड़के लिखते हैं, “शिवाजी सैकड़ों थल दुर्गों, समुद्री किलों और हजारों सैनिकों के स्वामी बन चुके थे। भारतीय जनता उन्हें उस व्यक्तित्व के रूप में देखने लगी थी जो उनके भाग्य को बदल सकता है। कवि भूषण ने उन्हें ‘हिंदुपति पातशाह’ की उपाधि दी थी।”
महात्मा गांधी: “एक ऐसे प्रांत की यात्रा, जिसमें लोकमान्य तिलक महाराज का जन्म हुआ, वह प्रांत जिसने आधुनिक युग में वीरों को जन्म दिया, जिसने शिवाजी को दिया और जिसमें रामदास और तुकाराम फले-फूले — मेरे लिए किसी तीर्थ यात्रा से कम नहीं है।”
जन्म और उपदेश (19 फरवरी 1630)
शाहजी भोंसले की पत्नी जीजाबाई ने दो पुत्रों को जन्म दिया — संभाजी और शिवाजी। बड़े पुत्र महाराष्ट्र से बहुत दूर कार्यरत थे और कम उम्र में ही उनका निधन हो गया। दूसरा पुत्र शिवाजी, शिवनेर के पहाड़ी किले में जन्में, जो पुणे जिले के उत्तर छोर पर स्थित जुन्नर नगर के ऊपर स्थित है। उसकी माता ने अपनी संतान की भलाई के लिए स्थानीय देवी शिवाई से प्रार्थना की थी, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र का नाम उसी देवी के नाम पर ‘शिवाजी’ रखा।
सन् 1641–42 में शिवाजी पुणे आए। उस समय उनकी उम्र बारह वर्ष थी। उनके साथ कुछ विश्वसनीय और अनुभवी लोग तथा कुछ अन्य अधिकारी भी थे। उनकी माता जीजामाता असाधारण क्षमताओं, दृढ़ चरित्र और संकल्प वाली महिला थीं और अत्यंत संस्कारी थीं। शिवाजी का पालन-पोषण जीजामाता की बाज़ की तरह निगरानी में हुआ। शिवाजी में धर्म और संस्कृति के प्रति आदर की भावना विकसित हुई। जीजामाता के मार्गदर्शन में शिवाजी के मन में भारत की अमूल्य सांस्कृतिक परंपरा, धार्मिक आस्था और सहिष्णु दृष्टिकोण के प्रति गर्व पैदा हुआ।
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