आधुनिक भारत के निर्माताओं में विनायक दामोदर सावरकर का नाम अग्रणी है। भारतीयता के मूलस्वर हिंदुत्व के विचार को देश में स्थापित करने का श्रेय वीर सावरकर को जाता है। यद्यपि इससे पूर्व हिंदू जागरण का कार्य लोकमान्य तिलक ने प्रारंभ कर दिया था, किंतु पारंपरिक रूढ़ियों में बंधे होने के कारण तिलक का अभियान समाज के सभी वर्गों को स्पर्श नहीं कर सका। उसका प्रमुख स्वरूप धार्मिक और राजनैतिक जनजागरण का ही रहा था। वीर सावरकर ने हिंदू और हिंदुत्व शब्द को उपासनापरक अर्थ से बाहर निकालकर उसे राष्ट्रीयतापरक अर्थ दिया। हिंदुत्व को राष्ट्रीयता का आधार बनाया इसीलिए उन्हें हिंदू राष्ट्र का मंत्रदृष्टा कहा जाता है। खूब विचार–मंथन कर उन्होंने हिंदू शब्द की परिभाषा निश्चित की, जो आज की सर्वाधिक प्रचलित परिभाषा है-
“आसिंधु सिंधुपर्यंतं यस्य भारतभूमिका।
पितृभू: पुण्यभूश्चैव स वै हिंदुरितिस्मृत:।।”
अर्थात् सिन्धु नदी से लेकर हिंद महासागर तक फैली हुई इस भूमि को जो व्यक्ति अपनी पितृभूमि (पूर्वजों की भूमि) व पुण्यभूमि मानता है, वह हिन्दू है। आगे चलकर हिंदुराष्ट्र की अवधारणा को युगानुरूप परिष्कृत करते हुए हिंदुओं को संगठित करने का बीड़ा डॉक्टर केशवराव बलिराम हेडगेवार ने उठाया। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना कर संगठित हिंदू शक्ति के माध्यम से भारत राष्ट्र के अभ्युदय का पथ प्रशस्त किया। यह देश में स्वतंत्रता आंदोलन के तिलक–काल का अवसान और गांधी–काल का उठान था, जिसमें मुस्लिम तुष्टीकरण एक प्रमुख प्रवृत्ति बन गया।
मुस्लिम समुदाय की संतुष्टि के लिए तात्कालीन सत्ता प्रतिष्ठानों द्वारा हिंदू शब्द से भी परहेज किया जाने लगा। भारत की मौलिक पहचान एवं ऐतिहासिक गौरव बिंदुओं को यह कहकर तिरस्कृत किया गया कि यह हिंदू सांप्रदायिकता के चिह्न हैं। ऐसे सर्वथा प्रतिकूल माहौल में इन्हीं दोनों प्रणेताओं ने हिंदुत्व का उद्घोष किया जिसने दैन्यग्रस्त हिंदू समाज को वैचारिक ऊर्जा प्रदान की। जब पश्चिमी विद्वान् यह दुष्प्रचार कर रहे थे कि भारत की कोई एक प्राचीन राष्ट्रीयता नहीं, यह बाहर से आए हुए भाँति–भाँति के लोगों और संस्कृतियों का जमावड़ा रहा है, तब सावरकर ने ही सर्वप्रथम भारत की राष्ट्रीयता को दृढ़तापूर्वक “हिन्दू राष्ट्रीयता” के नाम से सम्बोधित किया था।
राष्ट्रीय राजनीति से तिलक के अवसान के बाद राजनीति की दिशा बदल गई। कांग्रेस द्वारा खिलाफत आन्दोलन को हाथ में लेना एक असामान्य घटना थी। यह राजनीति में सांप्रदायिकता का अनैतिक घपला था। यह कितना अनुचित था इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि जिन्ना जैसे मुस्लिम नेता भी इसके घोर विरोधी थे। भारत में यह पहली राजनैतिक घटना थी जिसने मुस्लिमों की उग्रता और आक्रामकता को प्रोत्साहित कर अत्यधिक बढ़ा दिया। देश में मुस्लिम साम्प्रदायिकता को यदि यह राजनैतिक आधार नहीं मिला होता तो न मोपला हत्याकांड घटित होता, न देश का विभाजन होता। सावरकर हिंदुओं पर बढ़ते जा रहे इन संकटों का एकमात्र समाधान देशभक्त हिंदुओं का संगठन और हिंदुत्व का पुनर्जागरण करने में देखते थे।
सावरकर हिंदुओं के सम्मुख दो तरह के खतरे देख रहे थे। एक ओर गांधी और नेहरू की छाया में कांग्रेस द्वारा मुस्लिम तुष्टीकरण और हिंदू विचारों की निरंतर उपेक्षा हो रही थी तो दूसरी ओर भारत में कम्युनिस्टों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। भारतीय मानस पर मार्क्सवाद, इस्लाम और ईसाइयत के समवेत संकटों को देखते हुए इनका एकमात्र उत्तर देशभक्त हिंदुओं का संगठन और हिंदुत्व का पुनर्जागरण ही था और इसके लिए यह आवश्यक था कि वे अपना सम्पूर्ण समय हिंदुत्व की अवधारणा को साकार करने में लगाए। इस समय वे काले पानी के कठोर कारावास में लोमहर्षक यातनाएं झेल रहे थे। वीर सावरकर जिस चट्टानी धातु से निर्मित थे वह यातनाओं से विचलित होने वाली नहीं थी।
जिस काल कोठरी में एक दिन रहना मुश्किल हो जाता है उसमें उन्होंने अपनी जवानी के दस वर्ष बिताए। किन्तु हिंदुओं को संगठित करने की आग उन्हें चैन से बैठने नहीं दे रही थी। नियति ने उन्हें जेल के सीखचों में जीवन पूर्ण करने के लिए नहीं अपितु हिंदुत्व का ध्वजारोहण करने के लिए भेजा था। इसके लिए आवश्यक था कि वे येन–केन–पथेन दुष्ट अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त होकर हिंदुत्व के सिद्धांत को साकार करने में अपनी शक्ति लगाएं। आखिरकार उन्होंने अपनी चतुराई से भांति–भांति के पत्र लिखकर कारावास से बाहर निकलने का मार्ग खोजा। क्षमायाचना का चारा फेंक कर वे जेल से रिहा हो गए और अपना सम्पूर्ण जीवन हिंदुत्व और भारत राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया।
वीरवर सावरकर की छवि को धूमिल करने के लिए जिन विचारमूढों ने उनके कारागार से बाहर निकलने की रणनीति को निशाना बनाकर उन पर माफी मांगने का लांछन लगाया, उसका असली कारण कुछ और है। वे हिंदुद्रोही लोग सावरकर के विचारों में छुपी हुई उन चिंगारियों को फैलने से रोकना चाहते थे जो सेकुलरों और वामपंथियों की छल–कपट की लंका में आग लगा सकती थीं। इसीलिए वे उन पर व्यक्तिगत आक्रमण तो करते हैं, परन्तु उनके युगांतरकारी विचारों से मुंँह चुराते हैं। चाहे सन् 1857 की क्रांति पर उनकी नई इतिहास दृष्टि हो, मोपला हत्याकांड पर उनका तथ्यात्मक लेखन हो, उनकी हिंदुत्व की मौलिक अवधारणा हो, खिलाफत आंदोलन की विफलता का तार्किक विश्लेषण हो, तिब्बत की स्वतंत्रता को लेकर उनकी दूरदृष्टि हो, अस्पृश्यता निवारण और सामाजिक समरसता के लिए किए गए जन आंदोलन हों, शास्त्रीय पोंगापंथियों के विरुद्ध उनके आधुनिक वैज्ञानिक विचार हों; ये सारे छद्म सेक्युलरवादी और वामपंथी उनके प्रखर विचारों से कन्नी काटते हुए बचकर निकल जाते हैं। यही सावरकर के विचारों की विजय है।
वस्तुत: उस कालखंड में हम ऐसे अनेक महापुरुषों को देखते हैं जिन्होंने सीधे स्वतंत्रता आंदोलन में कूदने के स्थान पर अपना जीवन समाज के जागरण और कल्याण में लगाना उचित समझा। उनकी दृष्टि में इस देश को गौरवशाली एवं वैभवशाली बनाने में समाज को जाग्रत और संगठित करना आवश्यक था। डॉ. अंबेडकर ने स्वतंत्रता आंदोलन में उतरने के स्थान पर दलित समुदायों के एकीकरण तथा उन्नयन में अपना जीवन लगा दिया। वीर सावरकर और महर्षि अरविन्द ने आरंभ में राष्ट्रीय आन्दोलन में बहुत सक्रियता से भाग लिया। किन्तु कुछ समय बाद महर्षि अरविंद ने स्वयं को आध्यात्मिक साधना में लगा दिया तो सावरकर ने जीवन का उत्तरार्ध हिंदुत्व के संधान और हिंदू समाज के उत्थान में लगा दिया। किंतु इससे इनका महत्व कोई कम नहीं हो जाता, अपितु इन असाधारण कार्यों के कारण कई गुणा बढ़ जाता है।
सावरकर की राष्ट्रभक्ति भावना कितनी निर्द्वन्द्व थी इसका एक उदाहरण देखना चाहिए। सावरकर भगवा ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज बनाए जाने का खुलकर समर्थन कर रहे थे। देश में ऐसा चाहने वाले करोड़ों लोग थे। किन्तु जब झंडा समिति द्वारा तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज निर्धारित कर दिया गया तो सावरकर ने 15 अगस्त 1947 के दिन अपने निवास “सावरकर सदन” पर हिंदू महासभा के ध्वज के साथ तिरंगा झंडा श्रद्धापूर्वक फहराया था। यह घटना इसलिए उल्लेखनीय है कि हिंदू महासभा का कार्यकर्ता नाथूराम गोडसे सावरकर के इस कदम से नाराज़ हुआ और उसने इसके विरोधस्वरूप अग्रणी पत्र में लेख भी लिखा था। नाथूराम उग्र विचारों का अतिवादी कार्यकर्ता था, जिसने गांधीजी की हत्या करके पूरे संगठन की विश्वसनीयता को संकट में डाल दिया था। हिंदुत्ववादी शक्तियों के प्रभाव विस्तार में इससे एकाएक गतिरोध आ गया। सच कहा जाए तो गोडसे ने अकेले गांधी की ही हत्या नहीं की। उसके इस कृत्य ने विनायक सावरकर को भी जीते जी मार दिया। इस घटना से सावरकर के व्यक्तित्व पर जो ग्रहण लगा, उसकी दुश्छाया से वे आज तक भी मुक्त नहीं हो सके। हिन्दू विद्वेषी लोग इस मिथ्या आरोप का जब–तब दुरुपयोग करते हैं।
सामाजिक समरसता के प्रति सावरकर का समर्पण देखने बनता है। वे इसे कोरी भाषणबाजी से नहीं कार्य व्यवहार से समाज में उतारने का प्रयास करते थे। डॉ आंबेडकर के हिंदू धर्म त्यागने की घोषणा करने के बाद विनायक सावरकर ने जो पत्र उनको लिखा उसका एक–एक शब्द पढ़ा जाना चाहिए। सामाजिक समरसता का ऐसा एकनिष्ठ और तीव्र प्रयास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं के अलावा देश में कहीं नहीं दिखाई देता।
छुआछूत से आहत डॉ. आंबेडकर ने चुनौती दी थी कि, “केवल बातों की सहानुभूति नहीं चाहिए। अब सक्रिय गारंटी क्या देते हैं; यह पक्की तरह करके दिखाइए।”
इस पर सावरकर का दिया गया उत्तर सामाजिक समरसता के इतिहास में मील का पत्थर है।
उन्होंने पत्र लिखकर अंबेडकर को रत्नागिरी आने का आमंत्रण दिया कि, “आइये, हम सार्वजनिक घोषणा के साथ सबसे पहले रोटी बंदी तोड़कर दिखाना चाहते हैं, आपके आगमन पर एक बड़ा कार्यक्रम रखते हैं।”…. “पतितपावन मंदिर के बीच सभा मंडप में औसत एक हजार ब्राह्मण, मराठा, वैश्य, किसान आदि प्रतिष्ठित प्रमुख स्पृश्य नागरिकों के साथ अस्पृश्य महार, चमार, भंगी सहित सब मिलजुल कर पंगत में बैठते हैं। ऐसा ही विशाल भोज आपकी अध्यक्षता में होगा।”…….”यहां के भंगी कथावाचक कथा बचेंगे। यदि आपके साथ कोई योग्य कथावाचक हो तो वह भी कथा कर सकेंगे। मंदिर में अन्य कथावाचकों जैसे ही भंगी कथावाचक का स्वागत सत्कार किया जाएगा और सैकड़ों लोग कथावाचक के चरण स्पर्श करेंगे।” …. “आपका एक व्याख्यान भी इस अवसर पर हो यह भी हमारी इच्छा है।”
यद्यपि इस आमंत्रण पर बाबा साहेब रत्नागिरी नहीं आ सके। उन्होंने दिनांक 24.11.1935 को सावरकर को इसका उत्तर भेजा कि “रत्नागिरी में आप जो कार्य कर रहे हैं उसकी जानकारी पढ़ कर मुझे खुशी हो रही है। यहां के लॉ कॉलेज की व्यवस्था के कारण मैं आपका आमंत्रण का लाभ नहीं ले पा रहा हूं इसका मुझे खेद है।”
सावरकर दूरदृष्टा मनीषी थे। वनवासी समुदाय को लेकर आज की विकराल समस्या पर उन्होंने सत्तर वर्ष पूर्व सचेत कर दिया था। 12.12.1953 को पुणे में “धर्मांतरण माने राष्ट्रांतरण” पर व्याख्यान देते हुए वे कहते हैं– “वनवासी लोगों को हिंदुओं से अलग करने के लिए मिशनरियों ने आदिवासी शब्द रूढ़ कर लिया है। हमें चाहिए कि हम वह शब्द काम में न लाएं। और वे वनवासी हिंदू हैं, यह जानबूझ कर कहें। उनमें भी वैसी जागृति उत्पन्न करें। वे वनवासी ईसाई हो गए तो उनका इस राष्ट्र के लिए स्नेह घट जाएगा, वे भी पादरिस्तान की मांग करने लगेंगे।”
हिन्दी भाषा के प्रति जैसा आग्रह और दृढ़ता विनायक सावरकर ने दिखाई वैसी यदि कांग्रेस के अन्य नेतागण दिखाते तो आज हिंदी को यह दुर्दिन नहीं देखना पड़ता। हिंदी के प्रति इस अनन्य निष्ठा के कारण वे नेहरू और सुभाष चंद्र बोस, दोनों को कटघरे में खड़ा कर देते हैं।
वे कहते हैं, “पिछले दो साल पंडित जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। उन्होंने हिंदू मुस्लिम एकता के लिए हम हिंदुओं को आज्ञा दी के उर्दू को ही राष्ट्रभाषा बना। और श्री सुभाष बाबू उनसे सवाई अध्यक्ष हुए। उन्होंने पंडित नेहरू जी को मात करने के लिए बताया कि अपनी लिपि छोड़कर रोमन लिपि को स्वीकार करो। उनकी यह कल्पना है कि अगर हमने मुसलमान को न आने वाली नागरिक लिपि छोड़कर रोमन लिपि को स्वीकार किया तो वह प्रसन्न होंगे परंतु यह कल्पना गलत है क्योंकि मुसलमान का केवल नागरी लिपि से द्वेष नहीं है। वह निश्चित रूप से अरबी लिपि चाहते हैं उनका संतोष रोमन लिपि से होने वाला नहीं है। यह भी याद रखें कि देवनागरी लिपि को स्वीकार किए बिना हमें संतोष होने वाला नहीं है।
वे संस्कृतनिष्ठ हिंदी के पक्षधर थे। हिंदी में घुसा दिए गए हजारों ऐसे शब्दों को, जो उर्दू अथवा अंग्रेजी भाषा के हैं, उन्होंने चिह्नित कर उनके स्थान पर हिंदी के अपने शब्द प्रस्तुत किए। जो शब्द हिंदी में अनुपलब्ध थे उनके लिए नए शब्द गढकर भाषा को विकसित किया। वे डंके की चोट पर यह कहते थे कि,”संस्कृतनिष्ठ हिंदी ही भारत की राष्ट्रभाषा होनी चाहिए यह मेरा स्पष्ट मत है।”
विनायक सावरकर असाधारण प्रतिभा के उज्ज्वल पुंज थे। कवि, उपन्यासकार, इतिहासकार, पत्रकार, भाषाविद्, क्रांतिकारी, समाज सुधारक ऐसे कितने ही उनके जीवन के आयाम हैं। अठारह सौ सत्तावन की क्रांति पर पहला शोधपूर्ण ग्रंथ “१८५७ का स्वातंत्र्य समर” उन्होंने लिखा और इस आंदोलन के ऐतिहासिक विमर्श की धारा को मोड़ दिया। मोपला के भीषण नरसंहार की घटना पर विनायक राव ने एक मार्मिक उपन्यास “मुझे उससे क्या?” की रचना की। यह उपन्यास हमें झकझोर कर रख देता है। हिंदुत्व आधारित राजनैतिक अवधारणा को स्थापित करने के लिए सावरकर ने 1923 में “हिंदुत्व” नामक कालजयी ग्रंथ की रचना की, जिसने पूरे देश में हिंदू नवजागरण की लहर उत्पन्न कर दी। उन्होंने सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनैतिक, भाषापरक विषयों पर हजारों पृष्ठ लिख दिए। जेल की दीवारों पर लिख–लिख कर सैंकड़ों पृष्ठों की कविताएं रच डाली।
वीरवर सावरकर के अवदानों की सूची लंबी है। भारत के उत्थान हेतु हिंदू राष्ट्र की अवधारणा की जो ज्योति उन्होंने जलाई उसे कुछ और परिष्कृत कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कृति रूप में कोटि-कोटि दीपों में अवतरित कर रहा है। वीरवर सावरकर के निधन पर उनको श्रद्धांजलि देते हुए संघ के तात्कालीन सरसंघचालक श्रीगुरुजी ने कहा था कि, “आज उनके प्रति श्रद्धांजलि यह हो सकती है कि हम उनके प्रति श्रद्धा, आदर रखते हुए यह विचार करें कि उनके द्वारा चलाए गए कार्य को आगे बढ़ाना अपना काम है।” संघ ने ’अपना काम’ समझते हुए उनके द्वारा प्रारंभ किए गए कार्यों को निरंतर आगे बढ़ाया है। हिंदुत्व की दिव्य ज्योति से सम्पूर्ण विश्व को आलोकित करने की ठानी है।
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