छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ के घने जंगलों में हाल ही में चला सुरक्षा बलों का अभियान भारतीय आंतरिक सुरक्षा के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ के रूप में दर्ज हो गया। इस अभियान में मारे गए नक्सलियों में डेढ़ करोड़ रुपये का इनामी और प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का महासचिव बसवा राजू भी शामिल है। बसवा राजू न केवल संगठन के सैन्य ढ़ांचे का प्रमुख रणनीतिकार था बल्कि उसने वर्षों से माओवादी हिंसा की संरचना और संचालन का नेतृत्व किया था। उसकी मौत से यह संदेश स्पष्ट हो गया है कि सरकार अब किसी भी रूप में नक्सली हिंसा को सहन नहीं करेगी। सरकार द्वारा हाल के वर्षों में चलाए गए अभियानों के चलते नक्सली संगठनों की रीढ़ टूटती नजर आ रही है।
छत्तीसगढ़, तेलंगाना, ओडिशा और आंध्र प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों में माओवादियों की गतिविधियों का संचालन करने वाला बसवा राजू उर्फ मल्लोजी कई वर्षों से सुरक्षा बलों के लिए सिरदर्द बना हुआ था। वह गुरिल्ला युद्ध शैली में निपुण था और उसने माओवादियों को इसी शैली में लड़ने के लिए प्रशिक्षित किया था। उसकी इस रणनीति ने सुरक्षाबलों को कई बार भारी क्षति पहुंचाई। सैकड़ों जवानों ने देश की आंतरिक सुरक्षा के इस सबसे घातक खतरे से लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। हालिया मुठभेड़ में भी डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड का एक जवान बलिदान हुआ। हाल के महीनों में बस्तर, सुकमा, बीजापुर और नारायणपुर में हुए अभियानों में मारे गए माओवादी कमांडरों की पहचान से यह साफ हो गया है कि संगठन के उच्च नेतृत्व पर करारा प्रहार हुआ है। बसवा राजू की मौत केवल एक शीर्ष नक्सली नेता की मौत नहीं है बल्कि यह माओवादी संगठन के उस सैन्य और वैचारिक नेतृत्व पर हुआ सबसे बड़ा आघात है, जिसने भारत के लोकतंत्र को लंबे समय तक चुनौती देने की कोशिश की। अब वह नेतृत्व ही नहीं बचा, जो नए कैडर को संगठित कर सके।
881 ने आत्मसमर्पण किया
पिछले कुछ वर्षों में नक्सलवाद के खिलाफ चलाए गए अभियानों में उल्लेखनीय सफलता मिली है। वर्ष 2024 तक 290 नक्सलियों को मार गिराया गया था और 1090 को गिरफ्तार किया गया जबकि 881 ने आत्मसमर्पण किया था। इस वर्ष के शुरुआती चार महीनों में ही देशभर में 148 माओवादी मारे गए, 104 को गिरफ्तार किया गया और 164 ने आत्मसमर्पण किया। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि अब सुरक्षा बल नक्सलवाद के खिलाफ न केवल आक्रामक रणनीति अपना रहे हैं बल्कि नक्सलियों को मुख्यधारा में वापस लाने के प्रयास भी कर रहे हैं।
नक्सलियों को छिपने की भी जगह नहीं मिलेगी
हाल ही में छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले में हुई मुठभेड़ में मारे गए 27 नक्सली इस बात का प्रमाण है कि सुरक्षा बल अब माओवादियों के छिपने की जगह भी नहीं छोड़ रहे। इसके करीब एक सप्ताह पहले ही तेलंगाना-छत्तीसगढ़ सीमा पर ऑपरेशन करेटा के तहत 24 घंटे तक चले लंबे अभियान में भी 31 नक्सली मारे गए थे, जिनमें 16 महिलाएं और 15 पुरुष नक्सली शामिल थे। इस तरह के सफल ऑपरेशन से यह स्पष्ट हो गया है कि अब रणनीति केवल जवाबी कार्रवाई की नहीं, माओवादियों की पूरी संरचना को ध्वस्त करने की है। केंद्र सरकार ने नक्सलवाद से देश को पूर्णतः मुक्त करने के लिए 31 मार्च 2026 तक की समय-सीमा तय की है और उसी के तहत नक्सलियों के खिलाफ अभियान तेज किए गए हैं।
बहुआयामी रणनीति
नक्सलवाद का इतिहास करीब छह दशक पुराना है, जिसने भारत के कई हिस्सों में समानांतर शासन स्थापित कर लोकतांत्रिक संस्थाओं को चुनौती दी। एक समय देश के 38 जिले पूरी तरह से नक्सल प्रभावित थे, जहां सरकार की नहीं, माओवादियों की हुकूमत चलती थी लेकिन अब यह संख्या घटकर केवल 6 जिलों तक ही सीमित रह गई है। यह गिरावट सरकार की नीति, सुरक्षा बलों की रणनीति और जनता के बदलते दृष्टिकोण का प्रतिफल है। सरकार ने बहुआयामी रणनीति अपनाई, एक तरफ सख्त कार्रवाई और दूसरी ओर विकास योजनाओं को प्राथमिकता दी गई। अब इन इलाकों में सड़क, बिजली, स्वास्थ्य और शिक्षा की योजनाएं तेजी से बढ़ रही हैं, जिससे माओवादियों का जनसमर्थन तेजी से खत्म हो रहा है। 2004 से 2014 तक के दशक में नक्सलवाद से जुड़ी 16463 हिंसक घटनाएं हुई थी, जिनमें 1851 सुरक्षाकर्मी और 4766 नागरिक मारे गए लेकिन 2014 से 2024 के बीच इन आंकड़ों में बड़ी गिरावट आई है। 2014 से 2024 के बीच हिंसक घटनाओं की संख्या 53 प्रतिशत घटकर 7744 रह गई जबकि सुरक्षा बलों की मौतों की संख्या में 73 प्रतिशत घटकर 1851 से 509 और नागरिकों की मौतों की संख्या 70 प्रतिशत घटकर 4766 से घटकर 1495 रह गई है।
माओवादियों के बर्बादी के एजेंडे खत्म
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने अगस्त और दिसंबर 2024 में छत्तीसगढ़ के रायपुर और जगदलपुर में स्पष्ट रूप से कहा था कि नक्सलवाद अब और नहीं सहा जाएगा। उन्होंने दो टूक चेतावनी दी थी कि नक्सली हथियार डालें अन्यथा उन्हें समाप्त कर दिया जाएगा। शाह के बयानों के बाद नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में चल रहे अभियानों में और तेजी आई। अब ये अभियान केवल जंगलों तक सीमित नहीं हैं बल्कि नक्सलियों के शहरी नेटवर्क और सहायता तंत्र पर भी प्रहार हो रहा है। सरकार यह भी सुनिश्चित कर रही है कि आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों को पुनर्वास मिले, उन्हें व्यावसायिक प्रशिक्षण और आर्थिक सहायता प्रदान की जाती है ताकि वे सम्मानजनक जीवन जी सकें। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में अब युवाओं को रोजगार और शिक्षा के अवसर दिए जा रहे हैं। ग्राम पंचायत स्तर तक योजनाएं पहुंचाई गई हैं, स्वास्थ्य शिविर लगाए जा रहे हैं, स्कूल खोले गए हैं और डिजिटल साक्षरता पर बल दिया जा रहा है। यह विकास की वह धारा है, जो माओवादियों के बर्बादी के एजेंडे को खत्म कर रही है।
दरअसल माओवादी जिस विचारधारा से लैस हैं, वह लोकतंत्र, संविधान, संसद और न्यायपालिका को नहीं मानती। वे बंदूक के बल पर सत्ता छीनने का सपना देखते हैं और भारत की संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर करना चाहते हैं। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि न केवल सुरक्षा बल सतर्क रहें, समाज का हर वर्ग भी माओवादियों के वैचारिक छलावे से सतर्क रहे। हालांकि चिंता की बात यह है कि आज भी कुछ छद्म प्रगतिशील और तथाकथित मानवाधिकारवादी माओवादियों का समर्थन करते हैं। वे उनकी हिंसा को ‘जनता की आवाज’ कहकर वैध ठहराने का प्रयास करते हैं लेकिन इन बुद्धिजीवियों को समझना होगा कि माओवादी जिन गरीबों और वनवासियों के हितैषी बनने का दावा करते हैं, वे उन्हीं के सबसे बड़े शत्रु हैं। वे वनवासियों को मानव ढाल बनाते हैं, स्कूलों को बारूदी सुरंगों से उड़ाते हैं और विकास के हर प्रयास को हिंसा से रोकते हैं।
माओवाद से मुक्त हो रहा रेड कॉरिडोर
नक्सल आंदोलन का केंद्र रहे ‘रेड कॉरिडोर’ के अधिकांश इलाके अब माओवाद मुक्त हो चुके हैं। विशेष रूप से झारखंड, बिहार, ओडिशा, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में माओवादी संरचना टूट रही है। 2023 के अंत से छत्तीसगढ़ में अभियान ने जबरदस्त रफ्तार पकड़ी है। सुरक्षा बलों को प्रशिक्षण और रणनीतिक संसाधनों से लैस किया गया है। विभिन्न एजेंसियों के समन्वित प्रयासों से संयुक्त अभियान चलाए जा रहे हैं। इससे पहले करेंगुट्टा पहाड़ी क्षेत्र में 31 माओवादी मारे गए थे, जो अब तक का सबसे बड़ा मुठभेड़ अभियान था। इन अभियानों में ड्रोन, सैटेलाइट इंटेलिजेंस, लोकल नेटवर्क और तकनीकी विश्लेषण का उपयोग किया जा रहा है। सरकार का जोर अब केवल माओवादियों को मारने पर नहीं, उनके वैचारिक समर्थन को समाप्त करने पर भी है। सरकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जो लोग माओवाद के नाम पर वैचारिक आतंक फैला रहे हैं, उनके खिलाफ भी कठोर कार्रवाई होगी। अब नक्सल समर्थक एनजीओ, वकील, शिक्षक और अन्य शहरी नेटवर्क की भी जांच की जा रही है। सरकार के इस दृष्टिकोण से स्पष्ट हो गया है कि माओवाद अब किसी भी रूप में छिप नहीं सकता।
कुल मिलाकर देखा जाए तो भारत अब नक्सलवाद की आखिरी छाया से मुक्ति की ओर अग्रसर है, बस जरूरत इस बात की है कि सरकार की यह आक्रामक और समन्वित नीति कमजोर न होने पाए। विकास और सुरक्षा की दोहरी रणनीति को जारी रखना होगा। नक्सलवाद अब वैचारिक रूप से भी धराशायी हो चुका है और इसका बचा-खुचा अस्तित्व केवल जंगलों में छिपे कुछ समूहों तक सीमित है। यदि यह अभियान इसी गति से जारी रहा तो 2026 तक भारत को पूरी तरह नक्सल मुक्त घोषित किया जा सकता है। देश को उस खूनी विचारधारा से मुक्त करना ही सच्चे लोकतंत्र का उद्देश्य है, जो दशकों से विकास, शांति और संविधान के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए थी।
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