जैव विविधता की दृष्टि से हमारा भारत दुनिया का सबसे समृद्ध देश माना जाता है। विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों के कारण हमारे यहां पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की सर्वाधिक प्रजातियां उपलब्ध हैं। जीव विज्ञानियों के अनुसार भारत में हिरणों की आठ प्रजातियां पायी जाती हैं। विश्व का सबसे दुर्लभ छोटा चूहा हिरण (माउस डियर) भारत में ही पाया जाता है। जबकि अफ्रीकी महाद्वीप में हिरणों की एक भी जाति नहीं पायी जाती। इसी तरह यूरोप एवं उत्तरी अमरीकी महाद्वीप में बब्बर शेर की प्रजाति नहीं पायी जाती। ऐसे ही मानव जाति के सर्वाधिक निकटस्थ चार प्राकृतिक संबंधियों -गुरिल्ला, चिम्पैंजी, ओरंगउटान और गिब्बन में से अंतिम गिब्बन केवल भारत के अरुणाचल प्रदेश के वनों में पायी जाती है। विशेषज्ञों की मानें तो यह सभी जीव विषुवत रेखा के सदाबहार वनों के हैं तथा जलवायु की अनुकूलता के साथ-साथ धरातल की विविधता, लम्बे सागर तट एवं विभिन्न समुद्री द्वीपों के कारण भारत में पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियों की विभिन्न जातियों का विकास सम्भव हो सका।
मगर; जिस तरह से आज पूरी दुनिया वैश्विक प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग से जूझ रही है; ऐसे में जैव विविधता का संरक्षण एक बेहद गंभीर चुनौती है। “नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस जर्नल” में छपे शोधपत्र में धरती पर जैविक विनाश को लेकर आगाह किया गया है। इस अध्ययन के मुताबिक करीब साढ़े चार अरब वर्ष की हो चुकी हमारी धरती अब तक पांच महाविनाश देख चुकी है तथा विनाश के इस क्रम में जीवों और वनस्पतियों की लाखों प्रजातियां नष्ट हुईं। वैज्ञानिकों की मानें तो पृथ्वी पर 16 लाख जीव-जन्तुओं की प्रजातियां खोजी जा चुकी हैं। उक्त शोध के अनुसार पृथ्वी पर जो पांचवां कहर बरपा था, उसने डायनासोर जैसे महाकाय प्राणी तक का अन्त कर दिया। इस शोध पत्र में यह भी आगाह किया गया है कि पृथ्वी अब छठे महाविनाश के दौर में प्रवेश कर चुकी है तथा इसका अन्त सबसे भयावह होगा। इस बाबत वैज्ञानिकों का मानना है कि बीते पांच महाविनाश तो प्राकृतिक थे लेकिन वर्तमान का छठा महाविनाश चूंकि मानव निर्मित है, इसलिये इसकी गति बहुत तेज है। उक्त शोध के नतीजे बताते हैं कि बीती दो शताब्दियों में विभिन्न जीव-जंतुओं की प्रजातियों की संख्या काफी तेजी से विलुप्त हुई हैं। वैज्ञानिकों ने इसे एक तरह की वैश्विक महामारी करार दिया है। उपरोक्त साइंस जर्नल की रिपोर्ट के मुताबिक प्राकृतिक आवास छिन जाने के कारण आज पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों की 41 हजार 415 प्रजातियां खतरे में हैं। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि यदि इंसान की लालची सोच पर प्रतिबंध न लगा तो वह दिन दूर नहीं जब जैव विविधता के टूटते ताने बाने का दुष्प्रभाव न केवल जीव-जगत की प्रजातियों वरन समूची मानवीय सभ्यता और संस्कृतियों पर भी पड़ेगा।
एक समय था जब मनुष्य वन्य पशुओं के भय से गुफाओं और पेड़ों पर आश्रय ढूंढता फिरता था लेकिन ज्यों-ज्यों प्रगति करता गया, मनुष्येत्तर जीव जगत का स्वामी बनने की उसकी चाहत बढ़ती चली गयी। अनियोजित औद्योगिक विकास व मनुष्य की संकीर्ण व स्वार्थी सोच का नतीजा है चीता, गिद्ध जैसे जीव-जंतुओं व वृक्ष-वनस्पतियों की विभिन्न प्रजातियों का तेजी से होता विलुप्तीकरण। बताते चलें कि जैव विविधता के संरक्षण का अर्थ है किसी भी राष्ट्र की भौगोलिक सीमाओं में पाये जाने वाले पशु-पक्षियों एवं पेड़-पौधों की जातियों को विलुप्त होने से बचाना; परन्तु गंभीर चिंता का विषय है कि हमारे देश की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर से गहन सरोकार रखने वाली हमारी अनमोल प्राकृतिक सम्पदा आज उपभोक्ता संस्कृति के बाजार में बिकाऊ हो गयी है। यही वजह है कि भौगोलिक विभिन्नताओं से परिपूर्ण हर इलाकों में पेड़-पौधों के साथ वन्य पशु-पक्षियों का बसेरा छिनता जा रहा है। हमारे भोले भाले वनवासियों को लालच देकर भारत के उन क्षेत्र में घुसपैठ हो चुकी है, जहां दुर्लभ जड़ी-बूटियां और मूल्यवान जीवाश्म मौजूद हैं। प्रकृति चक्र के साथ जिनका जीवन निहित है, वही बाजारवाद के कुचक्र में फंस कर इस अनमोल सम्पदा की अवैध तस्करी में सहायक बन रहे हैं। वन्य जीव विशेषज्ञों ने ताजा आंकड़ों के आधार पर यह निष्कर्ष निकला है कि पिछली तीन शताब्दियों में मनुष्य ने अपने निजी हितों की रक्षा के लिये लगभग 200 जीव-जन्तुओं का अस्तित्व मिटा दिया। भारत में वर्तमान में करीब 140 प्रकार के जीव-जंतु संकटग्रस्त अवस्था में हैं। आंकड़े बताते हैं कि जहां 18वीं सदी तक प्रत्येक 55 वर्षों में एक वन्य पशु की प्रजाति लुप्त होती रही, वहीं 19वीं से 20वीं सदी के बीच प्रत्येक 18 माह में एक वन्य प्राणी की प्रजाति नष्ट हुई। कृषि क्षेत्र की बात करें तो विगत कुछ दशकों में हमारे देश में पैदावार बढ़ाने के लिये रसायनों के प्रयोग इतने बढ़ गए हैं कि कृषि आश्रित जैव विविधता को बड़ी हानि पहुंची है। आज हालात इतने बदतर हो गये हैं कि दिन ब दिन दर्जनों कृषि प्रजातियां नष्ट हो रही हैं। हरित क्रान्ति ने हमारी अनाज से सम्बन्धित जरूरतों की पूर्ति तो की पर रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाओं के प्रयोग ने भूमि की सेहत खराब कर दी है। प्रतिफल यह हुआ कि अनाज की कई प्रजातियां असमय ही नष्ट हो गयीं। कहा जाता है कि एक समय हमारे यहां चावल की अस्सी हजार किस्में थीं लेकिन अब इनमें से कितनी शेष रह गयी हैं, इसके आंकड़े कृषि विभाग के पास नहीं हैं। यही नहीं, अब फसल की उत्पादकता बढ़ाने के बहाने जीएम बीजों का प्रयोग भी जैव विविधता को नष्ट करने की प्रक्रिया को बढ़ा सकता है।
जरा उस दौर को याद कीजिए जब नदियों-झरनों की सुमधुर आवाजें और पक्षियों की चहचहाहट दूर-दूर तक सुनाई देती थीं। किन्तु आज ये आवाजें गाड़ियों, कारखानों में के भीषण शोर में दब गयी हैं। प्रदूषण की मार एवं उसके प्रभाव से उत्पन्न अनेक समस्याओं से घिरा इनसान आज कराह रहा है। ऊपर से प्रकृति चक्र की भीषण अनियमितता एवं असंतुलन इस आग में घी का काम कर रहा है। आंकड़े बताते हैं कि प्रतिवर्ष करीब 33 करोड़ टन लकड़ी का इस्तेमाल ईंधन के रूप में होता है। हालांकि केन्द्र सरकार की मोदी सरकार ने उज्ज्वला योजना के जरिए ईंधन के लिये लकड़ी पर निर्भरता को कम करने की दिशा में एक सराहनीय प्रयास किया है मगर जानकारों का कहना है कि सरकार को वनों के निकट स्थित गांवों में ईंधन की समस्या दूर करने के लिये गोबर गैस संयंत्र लगाने और प्रत्येक घर तक विद्युत कनेक्शन पहुंचाने की दिशा में ऐसी की सक्रियता बरतने की जरूरत है। जिस तरह सिक्किम पूर्ण रूप से जैविक खेती करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है इससे अन्य राज्यों को प्रेरणा लेने की जरूरत है। कृषि भूमि को बंजर होने से बचाने के लिये भी गोवंश आधारित प्राकृतिक व जैविक खेती को बढ़ावा देने की जरूरत है।
गौरतलब हो कि महामनीषी स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द और महात्मा गांधी से लेकर पं. दीनदयाल उपाध्याय तक सभी की मान्यता है कि एकमात्र भारत ही वह देश है जिसकी सनातन परम्पराओं में पर्यावरण संकट से कराहती दुनिया को रास्ता दिखाने की शक्ति है। ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धांत पर आधारित वैदिक हिन्दू दर्शन मनुष्य को जल, जंगल, जमीन और जलवायु से प्रेम करना सिखाता है। दुनिया के इस सर्वाधिक वैज्ञानिक और सर्वसमावेशी धर्म की प्रत्येक मान्यता एवं परम्परा प्रकृति के विभिन्न घटकों के संरक्षण की पोषक है। इसमें छीजती जैव विविधता के संरक्षण के अनेक सूत्र समाहित हैं। काबिलेगौर हो कि यजुर्वेद के शांतिपाठ के मंत्र ‘’ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ॥‘’ में वैदिक ऋषि जिस तरह समष्टि के कल्याण के लिए पंचतत्वों व औषधि एवं वनस्पतियों के शांति प्रदायक होने की प्रार्थना करते हैं, वैसा उदाहरण दुनिया की किसी भी अन्य धर्म संस्कृति में नहीं मिलता। देवाधिदेव महादेव शिव तो हिमालय की संपूर्ण जैव विविधताओं के संरक्षक माने जाते हैं। वे अपने विलक्षण व्यक्तित्व से जिस तरह जैव विविधताओं के संरक्षण की सीख देते हैं, वह अपने आप में अद्भुत है। आज आवश्यकता है इन धार्मिक मान्यताओं एवं आस्थाओं को समाज में सही ढंग से प्रदर्शित करने की, ताकि हमारा समाज जैव विविधता की महत्ता को समझे एवं उसके संरक्षण में अपना योगदान दे। यदि हमें अपनी धरती माता को सुरक्षित व संरक्षित रखना है तो अपनी वैदिक संस्कृति के सूत्रों को अमली जामा पहनाना ही होगा।
टिप्पणियाँ