ट्रांस विचार से अब कोई अपरिचित नहीं है। ट्रांस अर्थात वे लोग जो अपने लैंगिक पहचान के साथ सहज नहीं होते हैं। इस विचार के लोग यह मानते हैं कि लैंगिक निर्धारण जैविक नहीं होता है, बल्कि इस पर होता है कि कोई व्यक्ति खुद को क्या मानता है या क्या अनुभव करता है। पहले यह लैंगिक भ्रम युवाओं के बीच होता था, उसके बाद इस विचारधारा के लोगों ने स्कूलों के बच्चों को शिकार बनाया और अब एक नया शब्द लेकर आए हैं और वह है ट्रांस-टोडलर्स।
टोडलर्स का अर्थ क्या होता है? क्या कभी टोडलर्स अर्थात नवजात, अपने लिए कोई निर्णय ले सकते हैं? क्या वे नवजात जो अभी चलने का अर्थ भी नहीं समझते हैं, वे यह समझेंगे कि उनकी लैंगिक पहचान क्या है? हम और आप यह सोचकर ही चकरा जाएंगे और प्रश्न करेंगे कि क्या यह संभव है? मगर यदि वोक लोगों की मानें तो यह संभव है और ब्रिटेन में एनएचएस अर्थात राष्ट्रीय स्वास्थ सेवा में ऐसा माना गया है कि नवजात और बहुत छोटे बच्चे जो ऐसा सोच रहे हैं कि वे ट्रांस जेंडर हैं, तो उन्हें जेन्डर ट्रीटमेंट दिया जा रहा है।
हालांकि अभी हाल ही में वहीं के सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया था कि केवल जैविक महिलाएं ही महिला की परिभाषा में आती हैं। मगर इसके बाद भी लैंगिंग पहचान बदलकर महिला बना जा सकता है या पुरुष बना जा सकता है, उसका पागलपन चल रहा है। पिछले वर्ष ब्रिटेन में एनएचएस ने एक ड्राफ्ट गाइडलाइंस जारी की थी और उसके अनुसार सात वर्ष से कम आयु के बच्चों को जेन्डर क्लीनिक्स पर भेजने पर रोक थी। मगर cass review रिपोर्ट, जिसमें यह अनुशंसा की गई थी, उस पर ट्रांस कार्यकर्ताओं ने अपनी प्रतिक्रिया दी थी। इस प्रतिक्रिया के बाद अब आयु सीमा को हटा दिया गया है। और यह सब ट्रांस जेन्डर बच्चों के परिवारों को समर्थन देने और सलाह देने के लिए किया गया है।
टेलीग्राफ ने इस विषय में एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसमें कहा गया है कि एनएचएस ट्रांस कार्यकर्ताओं की धमकी के आगे झुक गया और सात वर्ष वाली आयु सीमा को हटा दिया। नर्सरी की आयु के बच्चों को भी ट्रांसजेन्डर का ट्रीटमेंट दिया जा रहा है।
लोग प्रश्न कर रहे हैं कि क्या एक नर्सरी में जाने वाला बच्चा यह निर्धारण कर सकता है कि उसकी लैंगिक पहचान क्या है? उसे यह तक तो समझ आता नहीं है कि खाना क्या खाना है या सूसू कैसे जाना है? क्या वह यह बता देगा कि उसकी लैंगिक पहचान वह नहीं है जिसमें वह पैदा हुआ है?
टेलीग्राफ के अनुसार नर्सरी उम्र के लगभग 10 बच्चों का ‘इलाज’ किया जा रहा है। हालांकि क्लीनिकों में बच्चों को puberty blockers जैसी शक्तिशाली दवाएं नहीं दी जातीं, बल्कि उन्हें उनके परिवार के साथ परामर्श और चिकित्सा प्रदान की जाती है। वर्तमान में 157 बच्चे जिनकी उम्र 9 वर्ष से कम है, उन्हें जेन्डर सेवाओं में भेजा जा चुका है।
ये महज कुछ ही आंकड़े हैं। लोगों का तर्क है कि आंकड़े अलग भी हो सकते हैं। मगर फिर भी प्रश्न तो उठता ही है कि क्या कोई गलत शरीर में पैदा हो सकता है? क्या गलत शरीर नाम की कोई अवधारणा भी होती है? क्या नवजात जो अभी चलना भी नहीं सीख पाया है, वह यह बता सकता है कि उसकी पहचान क्या है? या फिर वह गलत शरीर में है?
लैंगिक निर्धारण क्या बच्चों द्वारा खिलौने पसंद करने के विकल्प के माध्यम से हो सकता है? यह बहुत ही स्वाभाविक है कि छोटे लड़के गुड़ियों से खेलें या फिर उन खिलौनों से खेलें, जिनसे लड़कियां खेलना पसंद करती हैं और ऐसा भी स्वाभाविक है कि लड़कियां फावड़े, ट्रक या बस जैसे खिलौनों से खेलना पसंद करें।
यह बच्चों की पसंद हो सकती है, इनसे लैंगिक निर्धारण नहीं होता। जैसे कि एनएचएस की गाइडलाइंस भी कहती हैं। यह कहती है कि जैसा कि हम जानते हैं कि विपरीत जेंडर के कपड़ों या खिलौनों में रुचि दिखाना – या विपरीत जेंडर से जुड़े व्यवहारों को प्रदर्शित करना – बचपन में काफी सामान्य व्यवहार है और आमतौर पर यह लैंगिक असंगति का संकेत नहीं है।
लोग यह भी कह रहे हैं कि टोडलर्स के पास बात करने के लिए शब्दों का भी अभाव होता है। फिर वे कैसे अपने आप यह बता सकते हैं कि वे ट्रांस हैं?
लोग सोशल मीडिया पर भी इस शब्द का विरोध कर रहे हैं। लोग कह रहे हैं कि आखिर वे बच्चे जो बोल नहीं सकते, जो चल नहीं सकते, वे यह कैसे बता सकते हैं कि वे ट्रांस हैं?
Kindly explain what could possibly make a toddler “transgender” and how a child who is barely old enough to verbalize their needs can express something that abstract.
I will literally delete my account if someone can successfully convince me. pic.twitter.com/vxu15aPHj9
— Chloe Cole ⭐️ (@ChoooCole) May 17, 2025
लोग सोशल मीडिया पर भी यही कह रहे हैं कि ट्रांस टोडलर्स जैसा कोई शब्द होता ही नहीं है। फिर भी सरकार किन लोगों के दबाव में हथियार डाल रही है और बच्चों का जीवन बर्बाद कर रही है। बच्चों को कहीं क्लीनिकल ट्रायल्स का हिस्सा तो नहीं बनाया जा रहा है?
क्या जेंडर परिवर्तन करना कपड़े बदलने जैसा है? आखिर बच्चों को शिकार क्यों बनाया जा रहा है? यद्यपि यह प्रश्न ब्रिटेन के लोग पूछ रहे हैं, परंतु भारत भी इससे अछूता नहीं रह गया है। यह विकृति भारत में भी अब पैर पसार रही है।
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