विश्व

कौन हैं निताशा कौल और क्यों हुआ उनका ओसीआई कार्ड निरस्त?

निताशा कौल कहने तो कश्मीरी पंडित हैं, लेकिन वे हमेशा से कश्मीरियों के खिलाफ रही हैं। वे हिन्दुओं के खिलाफ रही हैं और हिन्दू विरोध करते करते वो भारत विरोध भी कर रही हैं।

Published by
सोनाली मिश्रा

भारतीय मूल की ब्रिटिश प्रोफेसर निताशा कौल जो अभी वेस्ट मिनिस्टर यूनिवर्सिटी में पढ़ा रही हैं, उनका ओसीआई कार्ड भारत सरकार ने निरस्त कर दिया है। उन्होंने सोशल मीडिया पर रविवार रात को यह पोस्ट किया कि भारत सरकार ने उनका ओसीआई कार्ड निरस्त कर दिया है।

उन्होंने लिखा कि उन्हें घर पहुंचकर यह कैंसिलेशन मिला। निताशा मोदी सरकार की या कहें हिंदुवादी सोच के खिलाफ रहती हैं। मोदी सरकार की आलोचना वे हमेशा करती रहती हैं। मगर सरकार की आलोचना में और देश की आलोचना दोनों में अंतर होता है और कहीं न कहीं निताशा जैसे लोग इस सीमा को समझते नहीं है।

निताशा कहने के लिए कश्मीरी पंडित हैं, और कल से कई लोग उनकी यही पहचान बता रहे हैं, परंतु क्या पहचान केवल यही होती है? निताशा कश्मीरी पंडित हैं, जो समुदाय मजहबी कट्टरता का शिकार हुआ था। जो जिहाद का शिकार हुआ है। जो जीनोसाइड का शिकार हुआ था और जो अभी भी अपनी जमीन पर वापस नहीं जा सकता है। और वह किस समुदाय और किस सोच के कारण अपनी ही भूमि पर वापस नहीं जा सकते हैं, ये सभी जानते हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या निताशा कभी अपने समुदाय की उस पीड़ा को पहचान दिलाने के लिए खड़ी हुईं, जिसका सामना अभी तक वह कर रहा है?

इस विषय में कश्मीर के लेखक राकेश कौल ने अपनी सोशल मीडिया प्रोफ़ाइल पर स्पष्ट लिखा है। उन्होंने निताशा कौल के ओसीआई कार्ड के निरस्त होने और कश्मीरी पंडित की पहचान पर लिखा है। उन्होंने एक्स पर लिखा, “यह सभी कश्मीरी पंडितों के लिए एक दुःखद दिन है कि उनके समुदाय को बदनाम किया जा रहा है।“

उन्होंने लिखा कि इन दिनों चर्चा में आई निताशा कौल का परिचय यह कहकर दिया जा रहा है कि वे एक कश्मीरी पंडित हैं।

उन्होंने लिखा कि कश्मीरी पंडित दरअसल एक टाइटल है, एक पहचान है और यह उस समुदाय से संबंधित है जिसने जीनोसाइड, निर्वासन और सांस्कृतिक विलोपन का शिकार होते रहे हैं और वह समुदाय बहुत मजबूती से स्मृति, पहचान और न्याय को थामे रहा।

वे आगे लिखते हैं कि जबकि इसके विपरीत निताशा ने समुदाय की जीवित पीड़ा को कम करके एवं उस देश को खलनायक बनाकर जिसने उसे जड़ें प्रदान की हैं, अपनी उसी पहचान का दुरुपयोग किया है। उन्हें ऐसे कश्मीरी पंडित के रूप में जाना जा सकता है, जो विद्रोही हैं और जिन्होंने नाम तो रखा हुआ है, परंतु उद्देश्य को बिसरा दिया। वे कभी भी कश्मीरी पंडितों के साथ खड़ी नहीं हुई हैं।

फिर वे बहुत महत्वपूर्ण बात लिखते हैं कि “अधिकार उत्तरदायित्वों के साथ आते हैं। सच्चे कश्मीरी पंडित कभी सच से नहीं भागते हैं।

फिर वे कई ऐसी घटनाएं लिखते हैं जो यह बताती हैं कि कैसे निताशा कौल कश्मीर की असली पहचान के खिलाफ खड़ी रही हैं। वे लिखते हैं कि निताशा कौल एक ऐसे समुदाय से संबंधित हैं, जिसका जीनोसाइड हुआ और यह जीनोसाइड इस्लामवादियों ने ही कराया था। परंतु निताशा ने समुदाय की पीड़ा को नकारते हुए इसे केवल राज्य की विफलता बताया और उसे हिंदुत्ववादी राजनीति के टूल के रूप में बताया। निताशा ने उन लोगों की सहायता की, जो हमेशा से ही इस जीनोसाइड को नकारते रहे हैं।

वर्ष 2019 में भारत ने कश्मीर से धारा 370 हटा दी थी। धारा 370 के हटने से जहाँ कश्मीरी पंडितों ने हर्ष व्यक्त किया था तो वहीं पाकिस्तान और अलगाववादी ताकतों ने इसका विरोध किया था। मगर यह और भी हैरान करने वाला तथ्य है कि निताशा कौल ने भी इसका विरोध किया था। उन्होंने वर्ष 2019 में अमेरिकी सदन की विदेश मामलों की समिति के सामने बयान दिया था और उन्होंने कश्मीर पर भारत के शासन को “एक कब्जा” बताया था।

पिछले वर्ष भारत सरकार ने जब निताशा कौल को भारत से वापस भेज दिया था तो उसे लेकर भी काफी हंगामा हुआ था। हमेशा चर्चा में रहने वाले पूर्व जस्टिस मार्कन्डेय काटजू ने भी अपनी वेबसाइट पर यह लिखा था कि वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्षधर हैं, परंतु निताशा कौल ने जो किया है और जो वे कहती हैं, वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में नहीं आता है। उन्होंने लिखा था कि जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 को हटाने की उनकी आलोचना में समझ का अभाव है।

उन्होंने भी इस बात को लिखा था कि जहाँ कौल बार –बार कश्मीरी मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचारों की बात करती हैं, तो वहीं 1990 के दौरान कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अत्याचारों पर उनका मौन बहुत संदिग्ध है। उन्होंने कहा था कि निताशा चुनिंदा ही मामले उठाती हैं और ऐसी चुनिंदा सक्रियता व्यापक सच को अस्पष्ट करने का काम करती है, जिसके लिए अधिक संतुलित और समावेशी विमर्श की आवश्यकता होती है।

दुर्भाग्य से निताशा भी समवेशीकरण जैसी बड़ी-बड़ी बातें तो करती हैं, मगर उस समावेशीकरण में भारत और कश्मीरी पंडितों की पीड़ा का समावेश नहीं है। जैसा कि राकेश कौल लिखते हैं कि जनरल बिपिन रावत की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु के उपरांत कौल ने सार्वजनिक रूप से अपमानित करते हुए उन्हें “कश्मीरियों का दुश्मन” कहा था। कौल भारत विरोधी समूहों के साथ भी संबद्ध हैं। जैसे कि स्टैंड विद कश्मीर और इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल और ये दोनों ही संगठन देश विरोधी है और कट्टर मजहबी एजेंडे और विमर्श को चलाते हैं।

निताशा कौल एक्स पर यह लिख रही हैं कि उन्हें उनके देश नहीं आने दिया जा रहा है, मगर उन्हें यह पहले स्पष्ट तो करना होगा कि देश को वह किस रूप में देखती हैं। देश उनके लिए क्या है? इसके साथ प्रश्न यह भी है कि वे जिस पहचान की पीड़ा, दर्द और वेदना के साथ खड़ी नहीं हो सकती हैं, क्या उस पहचान को धारण करने का भी वे दावा कर सकती हैं?

Share
Leave a Comment