भारत ने 6–7 मई, 2025 की आधी रात को पाकिस्तान अधिक्रांत कश्मीर (पीओजेके) और पंजाब में सैन्य प्रहार ‘ऑपरेशन सिंदूर’ से दुनिया को स्पष्ट संदेश दिया, ‘‘भारत अब केवल जवाबी कार्रवाई नहीं, निर्णायक कार्रवाई करेगा।’’ यह सैन्य अभियान विशुद्ध नैतिक और रणनीतिक प्रतिशोध था, उन 26 निर्दोष नागरिकों की हत्या के विरुद्ध, जो 22 अप्रैल को पहलगाम में सुनियोजित आतंकी हमले में मारे गए थे। इस ऑपरेशन में भारतीय सेना ने 9 आतंकी ठिकानों को न केवल नष्ट किया, बल्कि बड़ी संख्या में आतंकियों को भी मार गिराया। पाकिस्तान के उकसावे वाले ड्रोन हमलों सहित उसके सैन्य प्रयासों का भी जवाब दिया गया।
इस निर्णायक सैन्य कार्रवाई के साथ भारत के भीतर एक और युद्ध छिड़ा है-शब्दों का युद्ध। कुछ प्रमुख मीडिया संस्थानों द्वारा ‘Indian-administered Kashmir’, ‘Indian-controlled Kashmir’ और यहां तक कि ‘Indian-occupied Kashmir’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाना भारत की संप्रभुता और संवैधानिक स्थिति पर एक सूक्ष्म, लेकिन गंभीर हमला है। यह केवल भाषा का मामला नहीं, बल्कि राष्ट्रीय आत्मसम्मान और वैचारिक दृढ़ता का प्रश्न है।
यह स्थिति ‘Broken Windows Theory’ की तरह है, जहां यदि राष्ट्र विरोधी शब्दों को अनदेखा किया गया, तो वे धीरे-धीरे सामान्य और वैध हो जाते हैं, जिससे भारत के खिलाफ एक ‘सूक्ष्म युद्ध’ का निर्माण होता है। यह ‘soft narrative infiltration’ पश्चिमी एजेंसियों, पाकिस्तानी थिंक टैंकों और चीन के मीडिया प्रभाव के माध्यम से वर्षों से भारत में फैल रहा है। इस प्रकार के ‘post-truth journalism’ में तथ्यों की जगह एजेंडा चलता है।
भारतीय संविधान के अनुसार, जम्मू-कश्मीर अब एक केंद्र शासित प्रदेश है और सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद-370 की समाप्ति को वैध माना है। इसलिए ‘Indian-administered’ या ‘Indian-occupied’ जैसे शब्द भारत की संवैधानिक संप्रभुता को चुनौती देते हैं और पाकिस्तान या अंतरराष्ट्रीय निकायों के नैरेटिव को बल देते हैं।
भारत की जनता और सेना, आतंकवाद के विरुद्ध एक स्पष्ट एवं नैतिक लड़ाई लड़ रही है। लेकिन जब यही लड़ाई भारत के भीतर बैठी मीडिया संस्थाओं के ‘stylebook’ में धुंधली दिखती है, तो यह एक वैचारिक घात बन जाती है। सेना आतंकवादियों को मारती है, मीडिया उनके नैरेटिव को जीवित रखती है। यह युद्ध का न तो सीधा समर्थन है, न खुला विरोध, बल्कि कुटिल सहमति का संदेहास्पद खेल है।
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को इस चुनौती से निपटने के लिए कड़े कदम उठाने चाहिए, जैसे कि कश्मीर से जुड़ी रिपोर्टिंग में अनुचित अंतरराष्ट्रीय शब्दावली पर प्रतिबंध, मीडिया संपादकों की जवाबदेही तय करना, एक राष्ट्रीय नैरेटिव निगरानी समिति का गठन और जनजागरण अभियान चलाना, ताकि जनता को इस शब्दावली के राष्ट्रविरोधी प्रभावों से अवगत कराया जा सके।
यह केवल मीडिया की समस्या नहीं, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा है। पाकिस्तान की रणनीति अब केवल सैन्य हमलों तक सीमित नहीं, बल्कि वैचारिक ध्रुवीकरण और अंतरराष्ट्रीय छवि निर्माण की जटिल लड़ाई है। दुर्भाग्य से, भारत के भीतर कुछ संस्थान अनजाने या जानबूझकर इस लड़ाई में पाकिस्तान के पक्ष में काम कर रहे हैं। ऑपरेशन सिंदूर ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत आतंकवाद के प्रति सहिष्णु नहीं रहेगा। अब यह आवश्यक है कि भारत विचारधारा के स्तर पर भी आत्मविनाश से बचते हुए अपने राष्ट्रीय नैरेटिव को मजबूत बनाए। जो शब्द भारत की संप्रभुता को चोट पहुंचाते हैं, आतंक के लिए सहानुभूति जुटाते हैं या विवाद के नाम पर विभाजन को सामान्य बनाते हैं, वे राष्ट्रद्रोह के समान हैं। ऐसे संस्थानों को ‘संपादकीय स्वतंत्रता’ के नाम पर छिपने की बजाय सामाजिक और कानूनी जिम्मेदारी समझनी होगी।
‘ऑपरेशन सिंदूर’ की आड़ में कुछ देशी-विदेशी मीडिया चैनल पाकिस्तान के दुष्प्रचार को हवा दे रहे हैं। ऐसे दौर में, जब सोशल मीडिया सूचनाओं को बिजली की गति से फैलाता है, पत्रकारों पर सच्चाई के रखवालों के रूप में काम करने की जिम्मेदारी बढ़ जाती है
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