जब भी भारतमाता के प्रति समर्पित, यंत्रणा को प्रसाद की भांति स्वीकारने वाले और विचारों की लौ से समय को चुनौती देने वाले पुरुषों की गाथा कही जाएगी, तब विनायक दामोदर सावरकर का नाम उस श्रेणी में होगा, जहां कृतज्ञता शब्द भी छोटा पड़ जाए। सावरकर केवल व्यक्ति नहीं थे, वे विचार की ऐसी ज्वाला थे, जिसने औपनिवेशिक सत्ता के पाषाण प्रासादों को भीतर तक झकझोरा। भारतवर्ष के क्रांतिकारी आंदोलन को जिस वैचारिक धार की आवश्यकता थी, उसे सावरकर ने न केवल शब्द दिए, बल्कि अपने जीवन की आहुति देकर उसे जीवंत बनाया।
महाराष्ट्र के छोटे से गांव भगूर में जन्मा यह बालक बचपन से ही शिवाजी की प्रेरणा से ओतप्रोत था। किशोरावस्था में ‘अभिनव भारत’ जैसे क्रांतिकारी संगठन की स्थापना और इंग्लैंड जाकर ‘फ्री इंडिया सोसाइटी’ का गठन, किसी साधारण छात्र की नहीं, एक राष्ट्र-प्रेरित आत्मा की पहचान थी। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को ‘बगावत’ कहने वाली अंग्रेजी दुनिया के विरुद्ध खड़े होकर जब उन्होंने ‘The Indian War of Independence-1857’ लिखी, तो यह केवल इतिहास नहीं, विपरीत परिस्थितियों के अखाड़े में ठोकी गई वैचारिक विद्रोह की ताल थी। परंतु यह विचार केवल लेखनी तक सीमित नहीं था।
1910 में गिरफ्तारी और अंदमान की कुख्यात सेल्युलर जेल में दो-दो आजीवन कारावास ऐसी यंत्रणा थी, जिसकी कल्पना मात्र से लोगों का जीवट और संकल्प शक्ति टूट जाती थी। पर सावरकर झुके नहीं। वे पत्थर काटते थे, पत्राचार करते थे, पर भीतर से विचारों को और धार देते थे, संकल्प को दृढ़ करते थे। ठीक शिवाजी महाराज की तरह… जिन्हें परिस्थितियों के प्रहार तोड़ते नहीं, गढ़ते हैं। जिनका शत्रुबोध साफ और गहरा है, जो सामने पड़ने पर शत्रु की आंखों में आंख डालकर बात कर सकते हैं, जरूरत पड़ने पर मुस्कुरा कर बात कर सकते हैं। कुछ लिख भी सकते हैं, जैसे-शिवाजी महाराज औरंगजेब को और सावरकर अंग्रेज को आश्वस्ति पत्र लिखते हैं। परंतु उनके मन का प्रण परिस्थितियों की मार से मिटता नहीं, दृढ़तर होता है। कोठरी की दीवारें भले संकरी थीं, पर उनकी कल्पना का भारत विराट था-स्वतंत्र, गौरवशाली, धर्म-संगत और समरस।
1924 में जब वे रिहा हुए, तब राष्ट्र ने उन्हें क्रांतिकारी के रूप में जाना, पर उन्होंने स्वयं को सामाजिक सुधारक के रूप में पुनः गढ़ा। अस्पृश्यता के विरुद्ध ‘पतित पावन मंदिर’ की स्थापना की। यह दिखाता है कि उनके ‘हिंदुत्व’ में जातिवादी संकीर्णता नहीं, अपितु एक सभ्यतागत एकता का आह्वान था। वे ‘हिंदुत्व’ को केवल धार्मिक पहचान नहीं, एक सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के रूप में परिभाषित करते थे।
हिंदू महासभा के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने नारा दिया, ‘देश पहले, दल बाद में।’ जब देश 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की उथल-पुथल से गुजर रहा था, तब सावरकर ने सैन्य भर्ती का समर्थन किया ताकि भारत के सैनिक युद्ध-कला में दक्ष हों। यह दूरदृष्टि थी, जिसे तत्कालीन कांग्रेस समझ नहीं सकी। उनके जीवन पर धुंध की चादर लपेटने के प्रयास तब हुए, जब गांधीजी की हत्या के बाद घृणा भाव रखने वाली राजनीति के चलते उन्हें आरोपी बनाया गया।
यह सत्य है कि न्यायालय ने उन्हें बरी कर दिया, पर राजनीतिक वातावरण ने उनके योगदान को नकारात्मकता से रंगने का षड्यंत्र किया। किंतु प्रश्न यह है-क्या राष्ट्रप्रेम का ऋ ण उसके यंत्रणा भोगी सपूत से इस प्रकार चुकता होता है? क्या अंग्रेजों की दृष्टि और कसौटी से हम भारत भक्तों को देखेंगे! फिर उनमें और हम में क्या अंतर! क्या स्वतंत्र भारत का यह उत्तरदायित्व नहीं बनता कि वह अंग्रेजों को सदा खटकने वाले, उनकी नींदें हराम करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों, विशेषकर सावरकर सरीखी विभूति को स्मृति में नहीं, श्रद्धा में रखे?
आज जब हम राष्ट्रवाद की पुनर्रचना, सांस्कृतिक गौरव की पुनर्स्थापना की बात करते हैं, तब सावरकर के चिंतन को पुनः पढ़ने की आवश्यकता है। वह चिंतन जो न झुकता है, न तोड़ता है; जो यंत्रणा में भी तेजस्विता खोजता है।

लंदन में दो भारतीय
एक ने अपने कपड़े वहां धुलवाए, दूसरे ने वहां क्रांति का झंडा फहराया। एक राजनीतिक दल को लंबे समय तक लंदन की नरम गुलाबी छवि रुचती रही, जहां नेहरू के कपड़े धुलते रहे, वहीं उसे अपने नेता की ‘राजसी गरिमा’ का अहसास होता रहा। लंदन उनके लिए सिर्फ एक ‘एलीट क्लब’ था, जहां से वे ‘भारतीय राजनीति के स्वाभाविक उत्तराधिकारी’ बनकर लौटे। पर विडंबना देखिए, उसी लंदन में एक दूसरा भारतीय था, जिसे कोई सुविधा नहीं चाहिए थी, कोई सत्ता नहीं चाहिए थी, केवल एक लक्ष्य चाहिए था-भारत की स्वतंत्रता। वह थे वीर सावरकर।
सावरकर ने उस लंदन में ब्रिटिश साम्राज्य की नाक के नीचे क्रांतिकारी आंदोलन खड़ा किया और वहीं 1857 की क्रांति की स्वर्ण जयंती मनाकर यह भी जता दिया कि भारतीय इतिहास की ज्योति यूरोप के कोनों में भी जल सकती है। किंतु कांग्रेस को ऐसे क्रांतिकारी सावरकर चुभते थे, क्योंकि जब सावरकर स्वतंत्रता को ‘धारणा’ नहीं, ‘दृष्टि’ और ‘दायित्व’ मानते थे, तब कांग्रेस उसे ‘उदार ब्रिटिश राजनीति का दर्जी-नापा वस्त्र’ समझती थी। जहां सावरकर अंदमान की कालकोठरी में दिन-रात कोल्हू पर पीसते हुए 6,000 कविताएं रचते हैं, वहीं नेहरू की जेलें ‘एसी बंगले’ बन जाती हैं और उनकी पत्र शैली ‘राजनीतिक साहित्य’ में तब्दील हो जाती है। एक का काव्य क्रंदन है, दूसरे का साहित्य अभिजात्य स्मृतियों की गूंज।
सावरकर को विदेश भेजने वाले श्यामजी कृष्ण वर्मा जैसे कार्यकर्ताओं ने उनका रास्ता इसलिए बनाया, क्योंकि उन्हें राष्ट्र के लिए ‘बलिदान का बीज’ चाहिए था, ‘वंश का वारिस’ नहीं। उन्होंने सावरकर को ‘फ्री इंडिया सोसाइटी’ बनाने की प्रेरणा दी और उन्होंने उसे साकार किया। लंदन के ग्रेज इन लॉ कॉलेज से वकालत पास की, परंतु वकालत नहीं मिली; क्योंकि अंग्रेज जानते थे कि यह युवक न्याय नहीं, व्यवस्था को चुनौती देगा।
नेहरू की शिक्षा में ‘विदेशी संसर्ग’ था, परंतु उसमें ‘दासता से मुक्ति’ का ताप नहीं था। वह विशिष्ट होने की आकांक्षा में व्यस्त रहे, जबकि सावरकर ‘जन-जन की मुक्ति’ के लिए समर्पित रहे। एक का लंदन ‘प्रेस्टीज’ था, दूसरे का लंदन ‘संघर्ष भूमि’। यही फर्क था ‘राजनीति करने’ और ‘क्रांति रचने’ में। सावरकर को लेकर अदालत की फटकार और कांग्रेस की प्रतिक्रियावादी राजनीति को इन झरोखों से परखना आवश्यक है, क्योंकि कुछ कड़वे लगने पर भी ये तुलनाएं ऐसी हैं, जिनसे सत्य की पुनर्प्रतिष्ठा होती है। वास्तव में भारत के महापुरुषों और उनके साथ षड्यंत्र की गुत्थियां सुलझानी हैं तो तीन आयामों पर विचार करना होगा।
प्रथम आयाम : महापुरुषों के साथ अन्याय
वीर सावरकर, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, डॉ. हेडगेवार, नेताजी सुभाषचंद्र बोस-ये सभी एक राष्ट्रवादी चेतना के वाहक थे, जिन्हें विभाजनकारी इतिहास लेखन और राजनीतिक सुविधा की दृष्टि से टुकड़ों में बांट दिया गया। कांग्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम की कथा को गांधीजी के नाम के सुविधाजनक प्रयोग और नेहरू परिवार के आभामंडल तक सीमित करने का षड्यंत्रपूर्वक प्रयास किया, जिससे क्रांतिकारी संघर्ष की पूरी परंपरा को उपेक्षित कर दिया गया।
इस खंडित दृष्टिकोण को आने वाली पीढ़ियों के गले उतारने की यह जिद ऐसी थी कि पूरी शिक्षा व्यवस्था को राजनीतिक दल के हितों के हरकारे की तरह प्रयोग किया गया। आजाद हिंद फौज की सरकार को मान्यता देने वाले देशों में जापान, जर्मनी, इटली जैसी महाशक्तियां थीं, जिसने सिंगापुर में तिरंगा फहरा कर औपनिवेशिक गुलामी को चुनौती दी। परंतु इन घटनाओं को पाठ्यक्रमों से बाहर रखा गया। नेताजी सुभाष के नेतृत्व में ब्रिटिश सत्ता की नींव हिल गई थी। 1956 में कोलकाता यात्रा के दौरान पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने तत्कालीन गवर्नर सी.डी. चक्रवर्ती से बातचीत में यह स्वीकार किया था कि भारत छोड़ने का निर्णय गांधी के आंदोलन से नहीं, बल्कि नेताजी और नौसेना विद्रोह से प्रेरित था। (‘Transfer of Power in India’, V.P. Menon)
इसके अतिरिक्त, राष्ट्रीय अभिलेखागार की गुप्तचर रपटें यह भी दर्शाती हैं कि नागपुर में संघ की एक गुप्त बैठक (20 सितंबर, 1943) में जापानी समर्थन से आजाद हिंद फौज की भारत में संभावित सफलता के बाद की रणनीति पर भी विचार हुआ था। इस विषय में प्रख्यात इतिहासकार सतीश चंद्र मित्तल की पुस्तकों तथा राष्ट्रीय अभिलेखागार में गृह विभाग की गुप्त फाइलों की ‘नोटिंग्स’ को देखा जा सकता है।
दूसरा आयाम : तुष्टीकरण बनाम समरसता
सावरकर ने कभी मुस्लिमों के अधिकारों के विरोध में बात नहीं की। उन्होंने हिंदुओं के अधिकारों की कीमत पर तुष्टीकरण का विरोध किया। रत्नागिरि में अस्पृश्यता के विरुद्ध उनके प्रयास गांधी से कम नहीं थे, लेकिन उन्हें सांप्रदायिक कहकर बदनाम किया गया। उन्होंने स्पष्ट कहा था, “मुसलमानों को यदि स्वतंत्रता संग्राम में साथ आना है तो स्वागत है, नहीं आना तो भी हम लड़ेंगे, विरोध करेंगे, तब भी हम पीछे नहीं हटेंगे।” (सावरकर रचनावली, खंड 3)
वीर सावरकर की मत अभिव्यक्ति के विषय में यह वैचारिक स्पष्टता कोई अपवाद नहीं है। 1937 में कांग्रेस नेताओं द्वारा सावरकर को पार्टी में आमंत्रित किया गया, लेकिन उन्होंने उत्तर दिया, “राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदुओं के अधिकारों की बलि देकर यदि मुसलमानों को संतुष्ट करना है, तो मैं ऐसा राष्ट्रवाद नहीं मानता।” (‘Collected Works of Savarkar’, सावरकर स्मारक)
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि सावरकर का राष्ट्र प्रेम केवल हिंदू धर्म तक सीमित नहीं था, बल्कि उसमें समस्त भारतभूमि पर जन्मे पंथों के प्रति समान श्रद्धा थी, जैसा कि उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘हिंदुत्व : हू इज अ हिंदू?’ में लिखा है।
तृतीय आयाम : भ्रम रचना की राजनीति
सावरकर की जिन्ना से तुलना करने का प्रयास वैचारिक अपराध है। जिन्ना ने विभाजन की राजनीति की, जबकि सावरकर ने समान नागरिकता और कानून की बात की। सावरकर ने चेतावनी दी थी-“हिंदू राष्ट्र में सभी को समान पूजा की स्वतंत्रता होगी, लेकिन मजहबी अलगाववाद के नाम पर कोई समानांतर राष्ट्र नहीं चल सकता।” (‘Hindutva’, वी.डी. सावरकर)
भगत सिंह, जिन्हें अक्सर सामाजिक और बौद्धिक विमर्श में वामपंथी छवि और प्रभाव में प्रस्तुत किया जाता है, के विषय में भी एक भ्रम का निवारण आवश्यक है। भगत सिंह ने सावरकर की जीवनी ‘Life of Barrister Savarkar’ पढ़ी थी और ‘श्रद्धानंद’ पत्रिका के लेखों को अपनाया था। ‘आतंक के असली अर्थ’ शीर्षक से उनका लेख सावरकर के ‘अत्याचार शब्दाचा अर्थ’ का रूपांतर था। (‘भगत सिंह संपूर्ण दस्तावेज’, पृ. 243)
राष्ट्रीय सुरक्षा का स्वप्नद्रष्टा
असम में मुस्लिम घुसपैठ, हिंदी पर हिंदुस्तानी थोपना, पाकिस्तान को लेकर नेहरू का अंधविश्वास-इन सभी पर सावरकर ने दशकों पहले चेताया था। जब शरणार्थी बनते हिंदू बंगाल और पंजाब से खदेड़े जा रहे थे, सावरकर ने शरणार्थियों के लिए राष्ट्र की नीति मांगी, न कि वोटों के लिए सांत्वना। भाषा पर सांस्कृतिक हमले के खिलाफ सावरकर का आंदोलन मराठी व हिंदी को फारसी-अरबी शब्दों से मुक्त करने की मांग के रूप में सामने आया। ‘दूरदर्शन’, ‘महापौर’, ‘पार्षद’ जैसे शब्दों का निर्माण उनके प्रयासों से ही हुआ। (‘सावरकर विचारधारा’, रवींद्र कांबले)
कांग्रेस का झूठ और सावरकर का पुनरुत्थान
आज जब अदालत कांग्रेस को यह स्मरण कराती है कि वीर सावरकर पर आरोप लगाकर आप राजनीतिक लाभ नहीं उठा सकते, तो यह केवल न्यायालय का निर्णय नहीं, बल्कि ऐतिहासिक विवेक की पुनर्स्थापना है। सावरकर को सांप्रदायिक ठहराने वालों को अब यह समझना होगा कि राष्ट्रवाद कोई अपराध नहीं है, और राष्ट्र के साथ खड़े रहने का अर्थ किसी मत का विरोध नहीं, बल्कि सबके साथ न्याय करना है। भारत को यदि वाकई आत्मनिर्भर, सांस्कृतिक रूप से सुदृढ़ और सुरक्षित राष्ट्र बनाना है, तो सावरकर को केवल श्रद्धांजलि देने से नहीं, बल्कि उनके विचारों को व्यवहार में लाने से ही यह संभव होगा।
X@hiteshshankar
टिप्पणियाँ